उत्पातों की जड़ को काटिए।

December 1946

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आज देश का साम्प्रदायिक वातावरण जितना घृणा, द्वेष, अविश्वास, भय, आशंका से आच्छादित है उतना कई शताब्दियों और पीढ़ियों से नहीं देखा गया। हिन्दू मुस्लिम विद्वेष के लोमहर्षक समाचार चारों ओर से आ रहे हैं। सैकड़ों हजारों बहुमूल्य जीवन छुरों के घाट उतर गये। अनेक निरपराध बालक, वृद्ध तथा बहिन बेटियों को इस पशुता पर बलि चढ़ना पड़ा। त्राहि-त्राहि करते हुए अनेकों कातर मानव प्राणी शैतानों की राक्षसी डाढ़ों के नीचे कुचल कर नष्ट हो गये। तेजाब फेंक कर, रास्ता चलते बगल में छुरा भोंक कर जिस आततायीपन का आज नंगा प्रदर्शन हो रहा है उससे पशुता भी लज्जित हो जाती है।

इस प्रकार की नारकीय अग्नि एक स्थान से दूसरे स्थान में छूत की बीमारी की तरह उड़-उड़कर पहुँच रही है और नित नये काण्ड प्रस्तुत कर रही है। आग लगा देना सुगम है पर उस पर काबू पाना मुश्किल है। बादशाह और चंगेज को मात कर देने और खून की नदी बहा देने की धमकी देने वाले विगत कई वर्षों से निरन्तर घृणा और विद्वेष का प्रचार कर रहे थे। साम्प्रदायिकता का विषैला वातावरण तैयार करने में उन्होंने एड़ी से चोटी तक का पसीना एक कर दिया था। कट्टरता, अनुदारता, असहिष्णुता और धर्मान्धता पर ही उनकी लीडरी टिकी हुई थी। सेवा त्याग और बलिदान से कोसों दूर रहने वाले ये मजहबी लीडर धर्मान्धता विद्वेष और घृणा फैला कर अपनी लीडरी कायम किये हुए थे उसे मजबूत बनाने के लिए उन्होंने अपने हथकंडों को और भी उग्र कर दिया। “सीधी कार्यवाही” का आरम्भ जिस तरीके से हुआ उससे प्रत्येक समझदार व्यक्ति सन्न रह गया है।

घृणा से घृणा की उत्पत्ति होती है। द्वेष से द्वेष बढ़ता है। अविश्वास से अविश्वास की और आक्रमण से आक्रमण की उत्पत्ति होती है। तालाब में पत्थर फेंकने पर छींटे उड़े बिना नहीं रह सकते। कुएं में जैसी आवाज की जाती है उसकी प्रतिध्वनि तुरन्त ही आती है। रास्ते में असहाय पड़ी हुई धूलि भी लात मारने पर ऊपर उड़ती है और सिर पर चढ़ने का प्रयत्न करती हैं, दबी हुई चींटी भी काट लेती है। यह ऐसी सचाईयाँ हैं जिनसे इन्कार नहीं किया जा सकता। छुरे का जवाब देने के लिए लाठी निकल ही आती है। नोपा खाली में जो संगठित, व्यापक, विस्तृत एवं दिल दहला देने वाली पशुता बरती गई उसकी प्रतिक्रिया बिहार में हुई। उसी बर्बरता का नंगा रूप वहाँ भी देखने को मिला। चिनगारी एक स्थान से दूसरे स्थानों को उड़ रही हैं और गढ़मुक्तेश्वर, डासना, मेरठ, दिल्ली, आगरा, इलाहाबाद आदि से साम्प्रदायिक उपद्रवों के समाचार आ रहे हैं। इन उपद्रवों का देश के सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक जीवन पर कितना बुरा प्रभाव पड़ रहा है यह किसी से छुपा नहीं है। भविष्य के संबंध में आशंकाओं की कल्पनाओं से लोगों के चित्त विचलित हो रहे हैं।

आग लगाने वालों को विवेक बुद्धि की चुनौती है कि वे अपनी विषैली नीति की निस्सारता सोचें। घृणा से घृणा बढ़ेगी। द्वेष से द्वेष उत्पन्न होगा। इससे किसी का कोई हित नहीं हो सकता। आततायीपन से न तो किसी को शक्ति प्राप्त होती है और न सफलता। इस प्रकार घृणा का प्रचार करने से मनुष्य अपने विश्वासियों की सबसे बड़ी कुसेवा करता है क्योंकि अन्त में सभी दृष्टियों से उसे ही घाटे में रहना पड़ता है जो अनौचित्य पूर्ण आक्रमणात्मक नीति अपनाता है।

आज के अशाँत वातावरण में नेताओं की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है विशेष रूप से उनकी जिन्होंने एड़ी से चोटी का पसीना बहा कर अपने अनुगामियों को उत्तेजना एवं घृणा से भरा है और आक्रमण के लिए तैयार किया है। कुछ वर्ष पूर्व तक हिन्दू मुसलमान प्रेम पूर्वक सच्चे पड़ौसी की तरह भाई-भाई की भाँति रहते चले आ रहे थे, दोनों एक दूसरे के सुख-दुख में साथ रहते थे, झगड़े फसाद की कोई बात नहीं थी। सन 1921 में साम्प्रदायिक एकता का जो सुन्दर वातावरण था वह आँखों से ओझल नहीं हुआ है। हर आज दूसरे ही दृश्य देखने में आ रहे हैं। वीराँगना के समान रूप बदलने वाली राजनीति के हथकंडों ने कुछ-कुछ कर दिया है।

वर्तमान साम्प्रदायिक अशान्ति को ‘कुछ गुण्डों की शैतानी’ कह कर नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता। उसके पीछे उस राजनीति का हाथ है जिसने विद्वेष की चिंगारियाँ फैलाने का भयंकर खेल अपने हाथ में लिया है। इस प्रकार की नीति का यही परिणाम हो सकता है जो आज चारों ओर देखने में आ रहा है।

अशान्ति एवं उत्पातों को दबाने के लिए पुलिस और फौज को काम में लाया जा रहा है पर इतने से ही काम न चलेगा। उन उत्पातों की जननी वह विचार धारा है जो कट्टरता, द्वेष, घृणा और उत्पातों को प्रोत्साहन देती है। जब तक उस नीति को रोका न जायगा तब तक शान्ति स्थापित होना कठिन है। लोगों को उत्तेजित करने वाले और लड़ाने वाले नेता मौज से आराम कुर्सियों पर बैठे रहते हैं और उनके नासमझ अनुयायी अपनी या दूसरों की हानि करते हैं। वे खुद खून में हाथ रंगते और रंगाते हैं। ये ही लोग पकड़े जाने पर कठोर राज दंड पाते हैं या बदले प्रति क्रिया के शिकार होते हैं।

स्वस्थ वातावरण स्थापित करने के लिए घृणा, धमकी, आक्रमण, विद्वेष उत्पन्न करने वाला प्रचार करने वालों पर नियंत्रण करना होगा। इस कोढ़ को मरहम लगाकर अच्छा न किया जा सकेगा। इसके लिए रक्त शोधक चिकित्सा की आवश्यकता है। किसी भी देश की उत्तरदायी सरकार का यह पहला फर्ज है कि वह ध्यान पूर्वक देखे कि वे कौन लोग हैं जो घृणा का वातावरण तैयार करने में लगे हुए हैं, उनकी गति विधि को रोकना होगा, चाहे वे कितने ही बड़े आदमी क्यों न हों, अशान्ति उत्पन्न कराने वाले मौजे से ऐश उड़ावें और बेचारी भोली जनता आपस में कट मरे, इस स्थिति को जारी रखना सर्वथा अवाँछनीय है। इस स्थिति के रहते स्वस्थ वातावरण उत्पन्न होना बहुत कठिन है।

जिनके हाथ में शक्ति हो उनसे लड़कर छीनने की बात समझ में आ सकती है पर जिनके हाथ में कोई सत्ता नहीं हैं, उन निरपराध भोले-भाले नर नारियों पर आक्रमण करना और उन्हें गाजर मूली की तरह कतर डालना, नीचातिनी कुकृत्य एवं कसाईपन है। इस कसाईपन को जो लोग अपनाते हैं वे शैतान हैं पर उन्हें क्या कहा जाय जो इस शैतानी के लिए खुलेआम गुण्डों को उभार रहे हैं। नादिरशाह और चंगेजखाँ का अनुकरण जिस प्रकार हो रहा है और उसकी प्रतिक्रिया से जो बदले के आक्रमण हो रहे हैं उससे किसी का भी हित नहीं हो सकता।

अखण्ड-ज्योति, देश के विचारकों से, राजनीतिज्ञों से, नेताओं से, शासकों से एवं जन साधारण से अपील करती है कि इन शैतानी साम्प्रदायिक उत्पातों के भस्मासुर को रोको, यह काबू से बाहर हुआ जा रहा है। आग लगाने वाले तमाशा देख रहे हैं और इस भस्मासुर के प्रकोप से निरीह जनता भुनी जा रही है। इस दाबानल का अन्त करना है तो तात्कालिक रोक-थाम के अतिरिक्त उन लोगों को भी काबू में किया जाना चाहिए जिन्होंने मनुष्यता को कलंकित करने वाली यह आग लगाई है।


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