शरीर को स्वस्थ रखिए।

December 1946

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(श्री ब्रह्मदत्त शर्मा आयुर्वेदालंकार)

पिचके हुए गाल, गढ़े में धंसी हुई आँखें, सफेद काले बालों से खिचड़ी बना हुआ सिर, हड्डियों पर मंढ़े चमड़े वाला शरीर, लकड़ियों जैसी पतली टाँगें, पीला हल्दी जैसा या काला चेहरा, झुर्रीदार त्वचा, आँखों पर चश्मा, श्रीहीन-निश्तेज शरीर- यह है औसत ढांचा, जो आज बीसवीं सदी में शहरों के अंदर, देखने को मिलता है, सो भी तथाकथित युवकों का, राष्ट्र के वीर सुपुत्रों का। पेट की हालत यह है कि जिगर-तिल्ली बढ़े हुए हैं, कब्ज या दस्तों के मारे पेट रूपी वक्स में परेशानी बनी ही रहती है, बवासीर के मस्सों से पैजामे की हालत तंग है। कभी सिर में दर्द है तो कभी चक्कर। कभी इस टाँग में ‘श्याटिक’ का दर्द है तो कभी वह बाँह सुन्न है। कभी खट्टे डकार और छाती की जलन के मारे परेशानी हैं तो कभी पेट में शूल से चुभने का दर्द। कभी मसूड़ों से खून निकल रहा है तो कभी ‘पायरिया’ की पूय। कभी दाँत में कीड़ा लगा है तो कभी दाँत-दर्द के मारे हुलिया टैट है और कभी किसी दाँत का मसूड़ा सूज कर चेहरे पर भी सूजन झलक आई है। दाँत या तो काली हपसी से मंढ़ गए हैं या पीले कीचड़ से लिथड़े हुए और या सारे ही काले पड़ गए हैं। पेट या तो बिल्कुल ही पिचका हुआ है या मशक जैसी फूली तोंद है। छाती या तो बिल्कुल पतली सी डिब्बे जैसी या कबूतर जैसी है जिसमें से पसलियों की एक-एक नोंक और रेखा बखूबी झलक रही है या दो लोथड़े से छाती पर विराज कर उसे बिल्कुल गोल बनाए हुए हैं। जरा-सा चलते ही टाँगें दुखने लगती हैं, जरा-सा भार उठाते ही हाँफना शुरू हो जाता है, थोड़ा सा काम करने में अंग दुखने लगता है, हल्की-सी धूप में ही आँखें चौंधिया जाती हैं। किसी सामान्य से भी कारण से नजाकत-भरा अकारण जीर्ण-शीर्ण शरीर चरमराने लगता है, ढह पड़ता है-मानो ‘अंबर डंबर साँझ के बालू की सी भीत’ वाली बालू की दीवार हो। शरीर और मन या तो शिमला-नैनीताल में अच्छा रहा सकता है या विलायत में। यह है ग्राम प्रधान भारत के औसत युवक की ओज रहित श्रीहीन निस्तेज शारीरिक अवस्था।

यह सब इसलिए है कि कष्ट-सहन के लिए आज हम अपने शरीर को अभ्यास नहीं डालते। सुख-दुःख शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वात्मक शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने शरीर को हम तैयार नहीं करते। द्वन्द्वों से भरे इस जगत में कष्टमय (या कष्ट रूप से अनुभव होने वाली) अवस्थाओं की ओर से डर कर हम आँखें ही मींचे रहते हैं- ठीक वैसे ही जैसे कि बिल्ली को सामने देखकर कबूतर भय से अपनी ही आंखें मींचकर समझ लेता है कि वह बिल्ली की आँखों और पहुँच से ओझल हो गया और इस अवस्था में भोगवाद के वातावरण से हमारा शरीर इतना कृश-निर्बल और नाजुक हो जाता है कि संसार के विषम-पथ में बड़ी जल्दी लड़खड़ाने लगता है जीवन की झंझाओं में कंपकंपा उठता है- पीपल के पत्ते की तरह, दुःखों और कष्टों की आँधियों से चरमरा कर गिर पड़ता है- घुन और दीमकों से खाए हुए सूखे ठूँठ की तरह और उसे हम उत्तेजना देते हैं चाय-कह वे तम्बाकू से या मद्म-मसाले हौर्लिक्स-ओवल्टीन आदि से। ये सभी चीजें यों तो वैसे ही विष हैं, पर इस प्रकार के शरीर पर वैसा ही घातक प्रभाव करती हैं जैसा थके हुए घोड़े पर चाबुकों की मार का होता है और उस पर भी बड़े दुःख का विषय है कि हम समझते यही हैं कि इन पदार्थों से हम बड़ी ताजगी ओर शक्ति प्राप्त कर रहे हैं। परन्तु कितना विष इकट्ठा कर रहे हैं हम शरीर में। यह पता तब चलता है जब पहले से धुँधला हमारा देहरूपी सूर्य अकाल में ही संध्या-समुद्र में गोता लगाने की तैयारी कर चुकता है। कितनी अफसोसनाक हालत है यह हमारी। इससे छूटने का हर मनुष्य को प्रयत्न करना चाहिए।


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