अर्थ-उपार्जन

December 1946

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नीतिकार का वचन है कि-

वुभु क्षतैः व्याकरणं न भुज्यते।

पिपासितैः काव्य रसो न पीयते॥

अर्थात्- ‘भूखे व्यक्ति का व्याकरण के भोजन से काम नहीं चलता और न प्यासे की तृप्ति काव्य रस पीने से होती है।’

काव्य, व्याकरण, साहित्य, संगीत, कला, आदि की जीवन में निस्संदेह बहुत बड़ी आवश्यकता है, इनके बिना सरसता, कोमलता और मधुरता कायम नहीं रहती। यह होते हुए भी इन बौद्धिक व्यंजनों से पूर्व शारीरिक स्थिरता के उपकरण जुटाने की आवश्यकता होती है। जीवन को स्थिर रखने के लिए भोजन, वस्त्र, मकान, तथा सामाजिक सम्बन्धों को चलाने के लिए आवश्यक साधन सामग्री की आवश्यकता है, यह सभी वस्तुएं धन के ऊपर निर्भर हैं। पैसे के बिना उपरोक्त आवश्यकताओं में से एक की भी पूर्ति नहीं होती। इस युग में अर्थ के बिना जीवन धारण किये रहना भी कठिन है।

बौद्धिक उन्नति की ओर ध्यान देना जरूरी है, परमार्थिक धर्म संचय भी आवश्यक है, परन्तु इन दोनों से भी आरंभिक सीढ़ी जीवन रक्षा है। यदि भोजन की समुचित व्यवस्था न हो, शरीर रक्षा के आवश्यक उपकरण हो तो मनुष्य निर्बल एवं अस्वस्थ होकर मृत्यु के मुख में जाने की तैयारी करने लगेगा। समाज में रह कर सम्मान सहित जीवन बिताने के लायक धन न हो तो चित्त में, आत्मग्लानि, अपमान, हीनता, दीनता, दुर्भाग्य, चिन्ता, ईर्ष्या एवं घृणा के सत्यानाशी भाव सदा जागते रहेंगे और अंतःकरण की कोमलता को निरन्तर जलाते रहेंगे। ऐसी दशा में न तो सच्ची बौद्धिक उन्नति हो सकती है और न अध्यात्मिक उन्नति। संगीत साहित्य एवं कला में चित्त कैसे जमेगा। चिन्ता निराशा और उद्विग्नता से बेचैन मन किन्हीं ललित कलाओं पर किस प्रकार एकत्र होगा? शारीरिक स्थिरता के बिना दर्शन शास्त्र काव्य, एवं धार्मिक विवेचना में रुख किस प्रकार आयेगा?

एक नीति वचन है कि- “खाली बोरा सीधा खड़ा नहीं रहता।” बोरी अन्न, शक्कर आदि से भरी होगी वह सीधी खड़ी रहेगी पर जिस बोरी में कुछ न भरा हो खाली होगी वह सीधी खड़ी न रह सकेगी, धरती पर गिर पड़ेगी। उसी मनुष्य की नैतिकता स्थिर रह सकती है जिसके पास जीवन निर्वाह के आवश्यक साधन मौजूद हैं। जो भूखा है, अभावग्रस्त है, दीन और दरिद्र है, वह कब तक धर्म पर स्थिर रहेगा? चोरी, बेईमानी, धोखेबाजी आदि की ओर उसकी प्रवृत्ति झुकेगी। जब नीति युक्त रीति से अर्थ व्यवस्था में मनुष्य समर्थ नहीं होता तो उसका मन अनीति की ओर मुड़ते देर नहीं लगती। अभाव और असुविधाओं से सताये हुए मनुष्य के लिए उन आदेशों की ओर चलना कठिन है वह अनैतिकता के कुमार्ग की ओर आसानी से लुढ़क सकता है।

उन्नति की ओर चलना ठीक है, हर मनुष्य को विभिन्न दिशाओं में जीवन को विकसित करना चाहिए। पर सब में पहले आर्थिक स्थिरता की ओर समुचित ध्यान देना चाहिए। क्योंकि उस पर ही शारीरिक एवं मानसिक स्थिरता बहुत अंशों में निर्भर है। जब शरीर गत उद्विग्नताओं से निश्चिन्तता हो जाती है तब मन में अन्य दिशाओं की ओर प्रगति करने लायक स्फूर्ति उत्पन्न होती है। आवश्यक सुविधाओं के अभाव में भीतरी चेतना भी अनुत्साह एवं खिन्नता की दशा में पड़ी रहती है। स्वाध्याय के लिए पुस्तकें, सत्संग के लिए जाने को मार्गव्यय, देवता पर चढ़ाने के लिए भोग, गुरु को देने के लिए दक्षिणा यह सब भी तो अर्थ साध्य ही हैं। कथा, कीर्तन, व्रत तीर्थ, दान, यज्ञ अनुष्ठान, ब्रह्मभोज, सभी के लिए तो धन चाहिए। उचित अवसर पर जब उत्तम कार्य करने के लिये पास में पैसा नहीं होता तो परमार्थ की वृत्तियाँ संकुचित होकर मुरझा जाती है। परमार्थ के पथ पर पैर बढ़ाने योग्य साहस स्थिर नहीं रह पाता। इन सब बातों पर विचार करते हुए नीतिकार ने मनुष्य को सलाह दी है कि वह विकास की प्रवृत्ति आरम्भ करते हुए धन उपार्जन की दिशा से आँखें न मूँद ले। जो इधर उपेक्षा करते हैं और केवल मात्र बौद्धिक उन्नति पर निर्भर रहना चाहते हैं उन्हें नीतिकार ने स्मरण दिलाया है कि- व्याकरण से भूख और काव्य रस से प्यास शान्त नहीं होती। जीवन निर्वाह के लिए अन्न, जल की भी आवश्यकता है। अन्य उन्नतियों के लिए आवश्यक सुविधा एवं प्रेरणा प्राप्त करने को अर्थ की जरूरत है सो उसका भी यथोचित ध्यान रखना चाहिए।

अनीति से धन कमाना बुरा है, सम्पूर्ण शक्तियों को धन उपार्जन में ही लगाये रहना बुरा है, धन का अतिशय मोह, अहंकार, लालच बुरा है, धन के नशे में उचित अनुचित का विचार छोड़ देना बुरा है, परन्तु यह किसी भी प्रकार बुरा नहीं है कि जीवन निर्वाह की उचित आवश्यकताओं की पूर्ति को ईमानदारी और परिश्रम शीलता के साथ धन उपार्जन किया जाय। ऐसा उपार्जन उचित है, आवश्यक है, कर्त्तव्य है एवं जीवन को सुख शान्ति की ओर ले जाने वाला है।


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