(डा. दुर्गाशंकरजी नागर)
सुख बाहर से प्राप्त नहीं होता, बल्कि अंतः करण की अनुकूल बुद्धि में ही वास्तविक सुख है। सुख की प्राप्ति भविष्य में होगी या भविष्य में अमुक पदार्थों की प्राप्ति होगी-इस भ्रान्ति युक्त कल्पना को अपने अन्तःकरण से दूर कर दो। वर्तमान में किस बात का अभाव है कि तुम भविष्य की बाट जो रहे हो? भविष्य का विचार भविष्य को सौंप दो, उसे वर्तमान के साथ मिश्रित मत करो।
आज जो तुम्हें सुख उपलब्ध हो रहा है, वही सर्वोत्तम है। सुख के अनुभव करने का यही राजमार्ग है।
तुम क्यों फिर इधर-उधर अपने दुःख को दूर करने का उपाय सोचते-फिरते हो? तुम भय से क्यों काँप रहे हो? क्रोध से क्यों तप रहे हो?
दुःख को दूसरों के पास जाकर रोने गाने से दूर नहीं कर सकते। दुःख के उद्गार संक्रामक रोग के समान फैलते हैं। तुम्हें, स्वयं अधिक दुःखी करते हैं और दूसरों को भी दुःख पहुँचाते हैं। मरण-पर्यन्त तुम दुःख की गाथा संसार को सुनाते रहोगे तो भी तुम्हारा दुःख रत्ती भर कम न होगा।
यदि तुमको दुःख और महान विपत्ति का सामना करना पड़ रहा हो तो शान्ति से सहन करो, और उसके लिए परमात्मा का उपकार मानो। जगत के इतिहास में जो बड़े बड़े महान कार्य हुए हैं, वे धन, और सुख के परिणाम नहीं है। किन्तु दुःख विपत्ति और शोक के हैं।
भूत काल के भ्रान्तिमय दुःख, शोक, निराशा के लिए जरा भी पश्चाताप न करो। पश्चाताप और निराशा प्रकट करके जो तुम भूल सुधारना चाहते हो, वे विचार पुनः पुनः तुम्हारे मानसिक संग्रहालय में स्थान प्राप्त करेंगे। ऐसा करने से तुम पुनः उन विचारों को जाग्रत कर लोगे इसलिए उनका विचार करना बिल्कुल छोड़ दो।