सच्ची सौन्दर्योपासना

December 1946

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(प्रोफेसर रामचरण महेन्द्र एम. ए.)

सत्यसेवन तथा सदाचार-सम्पन्नता के मध्य में सौन्दर्योपासना नामक ध्येय का स्थान है। सौन्दर्योपासना करने का अधिकार बुद्धि और अन्तःकरण दोनों को समान रूप से प्राप्त है। युग की माँग यह है कि सत्य तथा सदाचार के साथ-साथ युवक सौंदर्य को भी अपने अध्याय में स्थान दें।

सौन्दर्योपासक भलाइयों के सौंदर्य को समझता है और वह अपने दैनिक तथा व्यवहारिक जीवन में उस सौंदर्य को प्रत्यक्ष करता है। सच्ची सौंदर्योपासना में सभी कुछ आ जाता है- शील, चरित्र, सुरुचि। जो अश्लील है, वह कुरूप हैं। अतः उसका बहिष्कार होना चाहिये। इसके विपरीत जो शीलयुक्त एवं संयत है, वह सुन्दर है। वह आदमी सुन्दर है जो सदा सर्वदा शुभ्र हितैषी एवं उत्तमोत्तम विचारों में मग्न रहता है, सात्विक कार्य करता तथा सात्विक वाणी का उच्चारण करता है, पवित्र स्थानों में रमण करता तथा दूसरों से पवित्र व्यवहार करता है, जिसकी मनोवृत्तियाँ सदैव पवित्रता की ओर उन्मुख रहती हैं। चरित्र की बुनियाद सौंदर्य पर कायम करनी चाहिये किन्तु यह सौंदर्य आन्तरिक सौंदर्य होना चाहिये। सौंदर्य अच्छाइयों को स्वभावतः देखता है, अच्छाइयों का आदर करता है और अच्छाइयों में जीवन-क्रम का निर्माण करता है।

सौंदर्य का अर्थ शारीरिक बनाव शृंगार, क्रीम, पाउडर, गंदा गायन, युवतियों का नाच, मद्यपान, व्यभिचार नहीं। ऐसा सोचना सौंदर्य का उपहास करना है। सौंदर्य के नाम पर दानवता का प्रचार करना हैं। सौंदर्य का यह बड़ा गन्दा स्वाँग है। जिनके मन में वासना का भयानक नृत्य हैं, इच्छा की उद्दंडता है, व्यभिचारी प्रवृत्तियों का नर्क है, वह बाहर से चिकना चुपड़ा सुन्दर आकर्षक होते हुए भी अपरिमार्जित तथा अपरिपक्व है।

सच्चे सौंदर्य का पारखी-

एक बार का वृतान्त है कि महापुरुष ईसा अपने कुछ शिष्यों सहित वायु सेवनार्थ जा रहे थे। मार्ग में एक स्थान से घृणित बदबू आई। शिष्यों ने नाक में कपड़ा लगा लिया। कुछ चलने के पश्चात् मार्ग में एक मरा हुआ कुत्ता सड़क पर पड़ा हुआ दृष्टिगोचर हुआ। उस पर मक्खियाँ भिनक रही थी, लहू बह रहा था पास से निकलते हुए भय प्रतीत होता था। शिष्य घृणा सूचक शब्दों का उच्चारण करते हुए एक ओर को निकलने लगे किन्तु महात्मा ईसा रुक गए। उन्होंने बड़ी ममता से मृत कुत्ते को हाथों में उठाया। उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु बहने लगे। उन्होंने बड़ी समता से कुत्ते को सड़क के एक किनारे लेटा दिया ओर बोले- कैसे सुन्दर है इसके दाँत।

ईसा सच्चे अर्थों में सौंदर्योपासक थे। वे सौंदर्य को प्रमुख स्थान देते थे। सूक्ष्म दृष्टि में सौंदर्य ही सदाचार का मूल था। अपने दैनिक जीवन में हमें सौंदर्य को प्रमुख स्थान देना चाहिये।

सौंदर्य के दो प्रकार-

सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर दो प्रकार का सौंदर्य होता है। बाह्य सौंदर्य, दूसरा आन्तरिक सौंदर्य। हम बाह्य सौंदर्य को बुरा नहीं कहते। हमें चाहिये कि हम शरीर से साफ , सुन्दर तथा आकर्षक बनें, अपना गृह स्वच्छ तथा सुन्दर रखें, अपनी पत्नि, बाल बच्चों को सुन्दर रखें, अपनी निजी वस्तुएं -उद्यान, कुण्ड, देवालय, विद्यालय, पुस्तकें, सभी स्थानों में सुन्दरता को प्रमुख स्थान है। प्रत्येक मनुष्य तथा स्त्री की यह स्वभावतः इच्छा होती है कि मैं खूब सुन्दर लगूँ। राष्ट्रों तथा संस्थाओं की भी यही बात है। हमारी पोशाक, बर्तन, शरीर सभी कुछ सुन्दर रहें पर वहीं सौंदर्योपासना की इतिश्री ने हो जाय। यह तो सौंदर्योपासना का प्रारंभ है। यह तो पहला पाठ है। इस बाह्य सौंदर्य के पश्चात् दूसरी स्टेज आन्तरिक (आत्मिक) सौंदर्य की आती है। आन्तरिक सौंदर्य ही वास्तविक सौंदर्य है। यही सच्चा परिपक्व सौंदर्य है। सच्चे सौंदर्य पारखी को यहीं आकर रुकना चाहिये।

रस्किन नामक अंग्रेज लेखक ने सौंदर्योपासना पर बहुत लिखा है। रस्किन कहता है हम देखते हैं आजकल के युवक रसिकता की वृद्धि के लिए जितना प्रयत्न करते हैं, उतना शील संवर्धन के लिए नहीं करते। आजकल के स्त्री पुरुष चाहते हैं कि हम नाच सकें, गा सकें, अच्छे चित्रों पर अपनी राय दे सके, शिल्प शास्त्र पर कुछ बोल सकें इत्यादि। उनकी यह चाह योग्य है किन्तु यदि उनमें केवल इतनी चाह ही है तो मैं कहूँगा कि उनकी शिक्षा अधूरी है। मैं चाहता हूँ कि इन कलाओं की आत्मा जो सदाचार सम्पन्नता है, उसकी ओर तरुण स्त्री पुरुषों का ध्यान आकर्षित करूं। जब तक मनुष्य को आन्तरिक सौंदर्य की प्रतीति नहीं हो जाती, तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि उसका मन सुसंस्कृत हो गया है।

वास्तव में बिना सदाचार की नींव के सौंदर्योपासना अग्नि से खिलवाड़ करना है। सदाचार सम्पन्नता सौंदर्योपासना का एक प्रकार है।


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