दुखों का कारण पाप ही नहीं है।

November 1944

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आमतौर से दुख को नापसंद किया जाता है। लोग समझते हैं कि पाप के फलस्वरूप अथवा ईश्वरीय कोप के कारण दुख आते हैं परन्तु यह बात पूर्ण रूप से सत्य नहीं है। दुखों का एक कारण पाप भी है। यह तो ठीक है परन्तु यह ठीक नहीं कि समस्त दुख पापों के कारण ही आते हैं।

बहुत बार ऐसा भी होता है कि ईश्वर की कृपा के कारण, संचित पुण्यों के कारण और पुण्य संचय की तपश्चर्या के कारण भी दुख आते हैं। भगवान को किसी प्राणी पर दया करके उसे अपनी शरण में लेना होता है, कल्याण के पथ की ओर ले जाना होता है तो उसे भव बन्धन से कुप्रवृत्तियों से छुड़ाने के लिए ऐसे दुख दायक अवसर उत्पन्न करते हैं जिनकी ठोकर खाकर मनुष्य अपनी भूल को समझ जाय निद्रा छोड़कर सावधान हो जाय।

साँसारिक मोह ममता और विषय वासना का चस्का ऐसा लुभावना होता है कि उन्हें साधारण इच्छा होने से छोड़ा नहीं जा सकता। एक हलका सा विचार आता है कि जीवन जैसी बहुमूल्य वस्तु का उपयोग किसी श्रेष्ठ काम में करना चाहिए परन्तु दूसरे ही क्षण ऐसी लुभावनी परिस्थितियाँ सामने आ जाती हैं जिनके कारण वह हलका विचार उड़ जाता है और मनुष्य जहाँ का तहाँ पड़ा रहता है। उसी तुच्छ परिस्थिति में पड़ा रहता है। इस प्रकार के कीचड़ में से निकालने के लिए भगवान अपने भक्त में झटका मारते हैं, सोते हुए को जगाने के लिए उसे बड़े जोर से झकझोरते हैं। यह झटका और झकझोर हमें दुख जैसा प्रतीत होता है।

मृत्यु के समीप तक ले जाने वाली बीमारी, परम प्रिय स्वजन की मृत्यु असाधारण घाटा, दुर्घटना, विश्वसनीय मित्रों द्वारा अपमान या विश्वासघात जैसी दिल को चोट पहुँचाने वाली घटनाएं इसलिए आती हैं कि उनके जबरदस्त फटके के आघात से मनुष्य तिलमिला जाय और सजग होकर अपनी भूल सुधार ले। गलत रास्ते को छोड़कर सही मार्ग पर आ जाय।

पूर्व संचित शुभ संस्कार एक सच्चे चौकीदार की भाँति उस मनुष्य को उत्तम मार्ग पर ले जाना चाहते हैं परन्तु पाप की ओर जब उसकी प्रवृत्ति बढ़ती है तो वे शुभ संस्कार इसे अपने ऊपर आक्रमण समझते हैं। और इससे बचाव करने के लिए पूरा प्रयत्न करते हैं। कोई आदमी पाप कर्म करने जाता है परन्तु रास्ते में ऐसा विघ्न उपस्थित हो जाता है जिसके कारण उस कार्य में सफलता नहीं मिलती। वह पाप होते-होते बच जाता है। चोरी करने के लिए जाते हुए यदि रास्ते में पैर टूट जाय और वह दुष्कर्म पूरा न हो सके तो समझना चाहिए कि यह पूर्व संचित शुभ संस्कारों के कारण पुण्य फल के कारण हुआ है।

धर्म कर्म करने में कर्त्तव्य धर्म का पालन करने में असाधारण कष्ट होता है। इसके अतिरिक्त दुष्टात्मा लोग अपने पाप पूर्ण स्वार्थ पर आघात होता देखकर उस धर्मसेवी के विरुद्ध हो जाते हैं और नाना प्रकार के कष्ट सत्पुरुषों को पग−पग पर झेलने पड़ते हैं। यह पुण्य संचय के, तपश्चर्या के, अपनी सत्यता की परीक्षा देने के दुख है।

निस्संदेह कुछ दुख पापों के परिणाम स्वरूप होते हैं परन्तु यह भी निश्चित है कि भगवान की कृपा से पूर्व संचित शुभ संस्कारों से और धर्म सेवा की तपश्चर्या से भी आते हैं। इसी प्रकार जब अपने ऊपर कोई विपत्ति आवे तो भी यही न सोचना चाहिये कि हम पापी, अभागे या ईश्वर के कोप भोजन हैं। संभव है वह कष्ट हमारे किसी हित के लिए ही आया हो, जिसे हमारा अल्पज्ञ मस्तिष्क आज ठीक ठीक रूप से न पहचान रहा हो।


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