(श्री विश्वेश्वर दयालुजी शर्मा, भरथना)
सत्संग की महत्ता प्रकट करते हुए रामायण कहती है कि -
चौ.-मज्जन फल देखिये तत्काला।
काक होंहि वक पिकहु मराला॥
शठ सुधरहिं सत संगति पाई।
परस परसि कुधातु सुहाई॥
सो मोसन कहि जात न कैसे।
शाक वणिक मणि गुण गण जैसे॥
काम क्रोध मद लोभ नसावन।
विमल विवेक विराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किये ते।
मिटहि पाप परिताप हिये के॥
जिन यह बारि न मानस धोये।
ते कायर कलिकाल विगाये॥
दोहा- विनु सत्संग न हरिकथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गये विनु राम पद होहि न दृढ अनुराग॥
सात र्स्वग अपवर्ग सुख धरिय तुला इक अंग।
तुलै न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सत्संग॥
निस्संदेह सत्संग से अधिक महत्वपूर्ण और कोई वस्तु इस दुनिया में नहीं है। समय का सदुपयोग सत्संग से बढ़कर और कुछ नहीं है। उच्च विचारों वाले, विद्वान, सदाचारी, कर्त्तव्य परायण, लोक हितैषी और देश काल पात्र की स्थिति को समझने वाले महात्माओं की संगति में रहने में मनुष्य को सच्चा पथ प्रदर्शन प्राप्त होता है।
हमें अच्छी संगति की तलाश में सदैव रहना चाहिए। सत्संग किस से किया जाय इसका निर्णय करते हुए किसी मनुष्य के व्यक्तित्व से प्रभावित होने की अपेक्षा यह देखना चाहिए कि इसके विचार सामयिक, उपयोगी और उचित हैं या नहीं। जब तक ऐसा मनुष्य न मिले तब तक महापुरुषों के ग्रन्थों से ही सत्संग करना चाहिए।