सुख शान्ति का मार्ग

November 1944

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री सत्यनारायणजी मृधड़ा, हैदराबाद)

संसार में सुख शान्ति का जीवन बिताने के लिए यह आवश्यक है कि हम संसार के नियमों को समझें। राजदंड का भागी वह होता है जो राजा के कानूनों को तोड़ता है। ईश्वर के दंड का- आधि-व्याधि और विपत्तियों का-भागी वह होता है जो ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन करता है।

ईश्वरीय नियम इतने स्पष्ट हैं कि उन्हें समझने के लिए कोई बहुत बड़ी खोज करने की आवश्यकता नहीं है। हर एक हृदय उन आज्ञाओं को सदैव अनुभव करता रहता है और उसके भीतर से एक पुकार सदैव उठती रहती है यह पुकार ही ईश्वर की आज्ञा है।

दो चीजें मनुष्य चाहता है एक सुख दूसरा सन्तोष या शान्ति। सुख, शारीरिक आनन्द को कहते हैं और शान्ति, आत्मिक आनन्द को। इन दो पदार्थों के अतिरिक्त और तीसरी कोई वस्तु ऐसी नहीं है जिसकी इच्छा किसी प्राणी को होती हो। उन्हीं दो की प्राप्ति के लिए वह नाना प्रकार के कार्यों को किया करता है।

शास्त्र का कथन है कि शक्ति में सुख है। सुखी वही रहेगा जो शक्तिशाली है। शारीरिक दृष्टि से जो बलवान है वह इन्द्रिय जनित सुखों को भोगेगा। बौद्धिक बल साँसारिक, सामाजिक सुखों को बढ़ाने वाला है। त्याग, पवित्रता, उदारता, प्रेम, साहस, उत्साह, दृढ़ता यह सब आत्मबल के चिन्ह है इन बलों के द्वारा हमें आत्मिक प्रसन्नता-शान्ति की प्राप्ति होती है।

ईश्वरीय नियम यह है कि मनुष्य सब दृष्टियों से अपने को बलवान बनावें। जो इस नियम की आज्ञा को पालन करेगा, निश्चय ही सुख और शान्ति उसे प्राप्त होगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: