पुस्तकालय महिमा

November 1944

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(लेखक- श्री लक्ष्मण त्रिपाठी)

एक दिन की बात है, जाड़ों की रात, सनसनाती थी कि जब ठंडी बयार।

बन्द करके द्वार मैं करने लगा, बैठकर आराम-कुर्सी पर विचार॥

क्या अजीब पदार्थ मानव ने रचा, जंगलों को काटकर, लकड़ी को चीर।

पीस कर फिर उसको बुनके अनगिनत, थाने-कागज या द्रुपद-दुहिता के चीर॥

फिर उन्हें कोल्हू में पेल मशीन के, देते हैं दिल पर अहो! स्याही की दाब।

छेदकर, फिर काटकर, और छाँटकर, हम बनाते हैं, हजारों ये किताब॥

ये किताबें, या कहानी हैं करुण अनगिनत मानव-हृदय की मूक सी।

ओह! कितनी साध है इनमें छिपी, सोचकर, उठती हृदय में हूक-सी॥

महा जग में, एक जो असहाय-सा, जानवर, कहते जिसे इन्सान हैं।

उसकी सारी बेवकूफी के जमा, इसमें इक से इक अजीब बयान हैं॥

किस तरह, पेड़ों की डाली छोड़कर, गगन-चुम्बी भवन में रहने लगा।

छोड़ कर वह चाल बन मानुस की फिर, कैसे वायु-विमान में उड़ने लगा॥

किस तरह उसने खुदा पहिचान कर, खूँ बहाया फिर खुदा के नाम पर।

और कैसे मर मिटा वह चाव से, बुजुर्गों के स्वर्ग से प्रिय धाम पर॥

मैं दबा-सा जाता हूँ, इस ढेर में, जो हिमालय का सा आलीशान है।

दिल मेरा धक-धक धड़कता सोचता, पुस्तकालय! क्या अनोखी शान है॥

इसमें गौतम की दया, गाँधी का सत, क्षमा ईसा की, मुहम्मद का इमान।

साधना जरथुस्त्र की, कन्फ्यूशियस की अमर उपदेश-माला का बितान॥

पुस्तकालय! क्या नहीं तुझमें बता, सब ही तीरथ तुझमें है, मेरे लिए।

तुझमें वृन्दावन है मीरा का छिपा, जगमगाते तुझमें ‘जौहर’ के दिये॥

तुझमें प्याला विषभरा सुकरात का, तुझमें सूली ‘अनलहक’ की तान की।

तेरे दामन में कहीं है ‘हल्दीघाट’ और ‘थरमापली’ भी यूनान की।

कितने ही ‘परताप’ लिओनिडाज’ हैं, कितने ही ‘अर्जुन’ औ’ ‘सीजर’ हैं छिपे।

कौन सा है दीप जगमग ज्योति से, जो न इस जागृत दिवाली में दिपे॥

है इसी में, आदि कवि की गुरु गिरा, है इसी में प्रतिभा कालीदास की।

है इसी में ‘सुरके शर’, भी इसी में, अमर-वाणी सन्त तुलसीदास की॥

इसमें मिल सकते हमें श्री प्रेमचन्द्र, मोरको, हयूगो तथा हैं टाल्सटाय।

जिसका चरचा था किया, ‘खय्याम’ ने, है वही यह कारवानों की सराय!,

भारती के भव्य मन्दिर! हे महान! कावे! विद्याप्रेमियों के पाक नाम।

जगत की जागृति के हे जेरूसलम! इसलिए है प्रेम से, तुझको प्रणाम॥

*समाप्त*


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