गृहस्थ योग

November 1944

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(गताँक से आगे)

इस बात को भली प्रकार समझ रखना चाहिए कि योग का अर्थ अपनी तुच्छता, संकीर्णता को महानता, उदारता और विश्वबन्धुत्व में जोड़ देना है। अर्थात् स्वार्थ का परिशोधन करके उसे परमार्थ बना लेना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए असंख्य प्रकार के योगों की साधनाएं की जाती हैं उन्हीं में से एक गृहस्थ योग की साधना है। अन्य साधनाओं की अपेक्षा यह अधिक सुलभ और स्वाभाविक है। इसलिए आचार्यों ने गृहस्थ योग का दूसरा नाम सहज योग भी रखा है। महात्मा कबीर ने अपने पदों में सहज योग की बहुत चर्चा और प्रशंसा की है।

किसी वस्तु को समुचित रीति से उपयोग करने पर वह साधारण होते हुए भी बहुत बड़ा लाभ दिखा देती है और कोई वस्तु उत्तम होते हुए भी यदि उसका दुरुपयोग किया जाय तो वह हानिकारक हो जाती है। दूध जैसे उत्तम पौष्टिक पदार्थ को भी यदि अविधिपूर्वक सेवन किया जाय तो वह रोग और मृत्यु का कारण बन सकता है इसके विपरीत यदि जहर को भी उचित रीति से शोधन, मारण करके काम में लाया जाय तो वह अमृत के समान रसायन का काम देता है। गृहस्थाश्रम के संबंध में भी यही बात है यदि उचित दृष्टिकोण के साथ आचरण किया जाय गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी ब्रह्म निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है जैसा कि अनेक ऋषि, महात्मा, योगी और तपस्वी पूर्वकाल में प्राप्त कर चुके हैं। आज कल गृहस्थों को दुख, चिन्ता, रोग, शोक आधि व्याधि, पाप ताप में ग्रसित अधिक देखा जाता है इससे ऐसा अनुमान न लगाना चाहिए कि इसका कारण गृहस्थाश्रम है, यह तो मानसिक विकारों का, कुविचार और कुसंस्कारों का फल है। दूषित मनोवृत्तियों के कारण हर एक आश्रम में, हर एक वर्ष में, हर एक देश में ऐसे ही संकट दुख उपस्थित होंगे। इसके लिए बेचारे गृहस्थाश्रम को दोष देना बेकार है। यदि वह वास्तव में ही दूषित, त्याज्य या तुच्छ होता तो संसार के महापुरुषों, अवतारों और युग निर्माताओं ने इससे अपने को अलग रखा होता, किन्तु हम देखते हैं विश्व की महानता का करीब-करीब समस्त इतिहास गृहस्थाश्रम की धुरी पर केन्द्रीभूत हो रहा है।

आत्मीयता की उन्नति के लिए अभ्यास करने का सबसे अच्छा स्थान अपना घर है। नट अपने घर के आँगन में कला खेलना सीखता है। बालक अपने घर में खड़ा होना ओर चलना-फिरना सीखता है। योग को साधना भी घर से ही आरम्भ होनी चाहिए। प्रेम, त्याग और सेवा का अभ्यास करने के लिए अपने घर का क्षेत्र सब से अच्छा है। इन तत्वों का प्रकाश जिस स्थान पर पड़ता है वही चमकने लगता है। जब तक आत्मीयता के भावों की कमी रहती है तब तक औरों के प्रति दुर्भाव, घृणा, क्रोध, उपेक्षा के भाव रहते हैं किन्तु जब अपने पन के विचार बढ़ने लगते हैं तो हलके दर्जे की चीजें भी बहुत सुन्दर दिखाई पड़ने लगती हैं। माता अपने बच्चे के प्रति आत्म भाव रखती है इसलिए यदि वह लाभदायक न हो तो भी उसे भरपूर स्नेह करती है, पतिव्रता पत्नियों को अपने काले कलूटे और दुर्गुणी प्रति भी इन्द्र जैसे सुन्दर और बृहस्पति जैसे गुणवान लगते हैं।

दुनिया में सारे झगड़ों की जड़ यह है कि हम देते कम हैं और माँगते ज्यादा हैं। हमें चाहिए कि दें बहुत और बदला बिलकुल न माँगें या बहुत कम पाने की आशा रखें। इस नीति को ग्रहण करते ही हमारे आस-पास के सारे झगड़े मिट जाते हैं। आत्मीयता की महान साधना में प्रवृत्त होने वाले को अपना दृष्टिकोण देने का-त्याग और सेवा का बनाना पड़ता है। आप प्रेम की उदार भावनाओं से अपने अन्तःकरण को परिपूर्ण कर लीजिए और सगे संबंधियों के साथ त्याग एवं सेवा का व्यवहार करना आरम्भ कर दीजिए। कुछ ही क्षणों के उपरान्त एक चमत्कार हुआ दिखाई देने लगेगा। अपना छोटा सा परिवार जो शायद बहुत दिनों से कलह और क्लेशों का घर बना हुआ है-सुख शान्ति का स्वर्ग दीखने लगेगा। अपनी आत्मीयता की प्रेम भावनाएं परिवार के आसपास के लोगों से टकराकर अपने पास वापिस लौट आती हैं और वे आनन्द की भीनी-भीनी सुगन्धित फुहार को छिड़क कर मुरझाये हुए अन्तःकरण को हरा कर देती है।

माली अपने ऊपर जिस बगीची की जिम्मेदारी लेता है उसे हर भरा बनाने सर सब्ज रखने का जी जान से प्रयत्न करता है। यही दृष्टिकोण एक सद्गृहस्थ का होना चाहिए। उसे अनुभव करना चाहिए कि परमात्मा ने इन थोड़े से पेड़ों को सींचने खाद देने, सँभालने और रखवाली करने का भार विशेष रूप से मुझे दिया है। यों तो समस्त समाज और समस्त जगत के प्रति हमारे बहुत से कर्त्तव्य हैं, परन्तु इस छोटी बगीची का भार तो विशेष रूप से अपने ऊपर रखा हुआ है। अपने परिवार के हर एक व्यक्ति को स्वस्थ रखने, शिक्षित बनाने, सद्गुणी सदाचारी और चतुर बनाने की पूरी-पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर समझते हुए, इसे ईश्वर की आज्ञा का पालन मानते हुए अपना उत्तरदायित्व पूरा करने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने परिवार के सदस्य भी ईश्वर की प्रतिमूर्तियाँ ही हैं, उनकी सेवा करना भी परमार्थ, पुण्य लोक सेवा, ईश्वर पूजा से किसी प्रकार कम नहीं है।

स्वार्थ और परमार्थ का मूल बीज अपने मनोभाव, दृष्टिकोण के ऊपर निर्भर है। यदि पत्नी के प्रति अपनी नौकरानी, दासी, सम्पत्ति, भोग सामग्री समझकर अपना मतलब गाँठने, सेवाएं लेने, शासन करने का भाव हो तो यह भाव ही स्वार्थ, नरक, कलह, भार, दुख की ओर ले जाने वाला है यदि उसे अपने उपवन का एक सुरम्य सरस वृक्ष समझ कर उसकी सात्विक त्यागमय सेवा का पुनीत उदारतामय प्रेम का भाव हो, अपने स्वार्थ की अपेक्षा उसके स्वार्थ को महत्व देने का भाव हो तो यह भाव ही दाम्पत्य जीवन को पत्नी सान्निध्य को परमार्थ, स्वर्ग, स्नेह और आनन्द का घर बना सकता है देना कम और लेना ज्यादा। यह नीति-झगड़े की, पाप की, कटुता की, नरक की जड़ है। देना ज्यादा और लेना कम से कम यह नीति-प्रेम, सहयोग, पुण्य और स्वर्ग की जननी है। बदला चाहने, लेने की, स्वार्थ साधने, सेवा कराने की स्वार्थ दृष्टि से यदि पत्नी, पुत्र, पिता, भाई, भतीजे, माता, बुआ, बहिन, को देखा जाय तो यह सभी बड़े स्वार्थी, खुदगर्ज, बुरे, रूखे, उपेक्षा करने वाले, उद्दंड दिखाई देंगे, उनमें एक से एक बड़ी बुराई दिखाई पड़ेंगी और ऐसा लगेगा मानो गृहस्थ ही सारे दुखों स्वार्थों और पापों का केन्द्र है। कई व्यक्ति गृहस्थी पर ऐसा ही दोष लगाते हुए कुढ़ते रहते हैं, खिन्न रहते हैं एवं घर छोड़कर भाग खड़े होते हैं। असल में यह दोष परिवार वालों का नहीं वरन् उनके अपने दृष्टिकोण का दोष है, पीला चश्मा पहनने वाले को हर एक वस्तु पीली ही दिखाई पड़ती है।

प्रत्येक मनुष्य अपूर्ण है वह अपूर्णता से पूर्णता की ओर यात्रा कर रहा है। ऐसी दशा में यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि हमारे परिवार के सब सदस्य स्वर्ग के देवता, हमारे पूर्ण आज्ञानुवर्ती होंगे। जीव अपने साथ जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों को साथ लाता है, यह संस्कार धीरे-धीरे, बड़े प्रयत्नपूर्वक बदले जाते हैं, एक दिन में उन सब का परिवर्तन नहीं हो सकता, इसलिए यह आशा रखना अनुचित है कि परिवार वाले पूर्णतया हमारे आज्ञानुवर्ती ही होंगे। उनकी त्रुटियों को सुधारने में उन्हें आगे बढ़ाने में, उन्हें सुखी बनाने में सन्तोष प्राप्त करने का अभ्यास डालना चाहिए। अपनी इच्छाओं की पूर्ति से सुखी होने को आशा करना इस संसार से एक असंभव माँग करना है। दूसरे लोग हमारे लिए यह करें परिवार वाले इस प्रकार का हमसे व्यवहार करें इस बात के ऊपर अपनी प्रसन्नता को केन्द्रित करना एक बड़ी भूल है इस भूल को जो लोग करते हैं उन्हें गृहस्थ के आनन्द से प्रायः पूर्णतया वंचित रहना पड़ता है।

स्मरण रखिए गृहस्थ का पालन करना एक प्रकार के योग की साधना करना है। इसमें परमार्थ, सेवा, प्रेम, सहायता, त्याग, उदारता और बदला पाने की इच्छा से विमुखता, यही दृष्टि कोण प्रधान है। जो इस दृष्टि को धारण किये हुए हैं वह ब्राह्मी स्थिति में हैं, वह घर में रहते हुए भी संन्यासी है।

सात्विक सहायताएं

इस मास ज्ञान यज्ञ के लिए निम्न सहायताएं प्राप्त हुई। अखण्ड ज्योति इन महानुभावों के प्रति अपनी आन्तरिक कृतज्ञता प्रकट करती है।

(5) श्री गोवर्धन दास जी, पोनी

(3) श्री फतेहराज चोरडिया, भोपालगढ़

(3) चौ विश्वंभरसिंह जी, सुरजनपुर

(3) श्री जीएम कोठारी, इन्दौर

(2) श्री बहादुरसिंह जी, छतरपुर

(2) पं. रामप्यारे शुक्ल, रीवा

(1) श्री जगतसिंह जैसिंह, हलद्वानी

(1) श्री ज्ञानसिंह दौलतसिंह, मंडलोई, सेन्धवा

(1) श्री देवराम गोविन्दराम, माँडोले, सेन्धवा

(1) श्री विनायकराव भगवन्तराव जोशी, सेन्धवा


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