तरो और तारो

November 1944

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जीवन को आनन्द, प्रफुल्लता, संतोष और सरसता के साथ जीने के लिए सब कोई इच्छा करता है, परन्तु देखा जाता है कि इसमें सफलता बहुत कम को मिलती है। अधिकाँश व्यक्ति कलह, दुर्व्यवहार अपमान, उपेक्षा, आक्रमण आदि साँसारिक आघातों से तथा अस्वस्थता, निर्धनता, अविधा, असमर्थता आदि निजी अभावों से पीड़ित रहा करते हैं। कहते हैं कि जिस वस्तु की जो इच्छा रखता है उसे वह प्राप्त होकर रहती है, किन्तु हम कहते हैं कि मनुष्य सुख की सबसे अधिक इच्छा करता है फिर भी वह उसे प्राप्त नहीं कर पाता। वह यह कि बिना कारण के कार्य नहीं होता उचित सुविधा और साधनों का समन्वय हो तो सफलता मिलती है अन्यथा वह इच्छा शेखचिल्ली की कल्पना की भाँति निष्फल रहती है।

हर एक लक्ष तक पहुँचने के लिए कुछ नियम एवं सिद्धान्त होते हैं हर एक उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए कुछ नियम होते हैं, हर एक ध्येय को प्राप्त करने के कुछ मार्ग होते हैं। इन सिद्धान्त नियम और मार्गों के अवलम्बन द्वारा ही इष्ट की सिद्धि होती है। अन्यथा अस्त-व्यस्त प्रयत्न का कुछ फल नहीं होता। आशा तृष्णा के बन्धनों में बँधे हुए असंख्य मनुष्य कराहते रहते हैं। आकाश कुसुम पाने के लिए प्रतीक्षा करते-करते उनकी आँख पथरा जाती हैं, प्यास-प्यास रहते गला सूख जाता है परन्तु जल की एक बून्द भी दृष्टिगोचर नहीं होती। अतृप्त आकाँक्षाओं की चिंता के साथ-साथ मनुष्य स्वयं भी जल जाता है आनन्दमय जीवन प्राप्त करने की आकाँक्षा का भी यही हाल होता है। इच्छा यह होती है कि सुखी रहें किन्तु परिस्थितियाँ दारुण दुख के दल-दल में घसीट ले जाती हैं। क्या इस अवांछनीय स्थिति से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। क्या आनन्दमय जीवन बिताने की आकाँक्षा को पूर्ण नहीं किया जा सकता है। किया जा सकता है जरूर किया जा सकता है। आइए, हम लोग विचार करें की आनन्दमय जीवन किन साधनों उपायों और सिद्धांतों का अवलम्बन करने से मिलेगा।

सुख क्या है। शक्ति का प्रतिफल ही सुख है। दुख क्या है। अशक्ति की प्रतिक्रिया ही दुख है। आनन्द इष्ट है - शक्ति उसका साधन है। शिव शक्ति से संयुक्त है। प्रकृति- पुरुष राधा-कृष्णा, सीता-राम, गौरी-शंकर, लक्ष्मी-नारायण, मायाजीव यह जोड़े बताते हैं कि रस अकेला नहीं है वरन् कला से बँधा हुआ है। प्राण का प्राकट्य देही के द्वारा होता है बिना देह का प्राण अदृश्य है उसकी सत्ता अनुभव में नहीं आती। माया से रहित ब्रह्म, अलख अगोचर होगा। भगवान का अनुभव हमें तभी हो सकता है जब वह साकार हो, माया मिश्रित हो। उपनिषदों ने स्पष्ट कर दिया है कि “नायमात्मा बलहीनने लभ्यः।” निर्बलों को आत्मलाभ- आनन्दलाभ- नहीं हो सकता श्रुति कहती है ‘बलमुपास्व्’ हे सुख की इच्छा करने वाले! बल की उपासना करो। निर्बलों को सुख प्राप्त होना तो दूर उनको तो किसी प्रकार जीवन धारण किया रहना भी कठिन है। बलवानों के अतिरिक्त और कोई इस दुनिया में सुखी नहीं रह सकता है।

बल केवल शारीरिक बल को ही नहीं कहते। वह एक महातत्व है जो जीवन के विभिन्न पहलुओं में विभिन्न प्रकार से दृष्टिगोचर होता है। बल सात भागों में बंटा हुआ है। सातों प्रकार के बल का समन्वय होने से एक पूर्ण बल बनता है। जैसे दस इंद्रियों के समूह को शरीर कहते हैं वैसे ही सप्त शक्यों का समूह बल है जैसे कुछ इन्द्रियाँ हों कुछ न हों तो उसे अंग भंग कहा जाता है इसी प्रकार सात बलों में जिसका जितना अभाव होगा उतना ही एक पूर्ण बल में त्रुटि रहेगी। सात बल यह है- (1) कला-शऊर, सभ्यता, सफाई, सजावट, उठने-बैठने, बोलने-चालने का ढंग, लोक व्यवहार, शिष्टाचार, (2) स्वास्थ्य- निरोगता, स्फूर्ति, उत्साह इन्द्रियों की सक्रियता, सहनशक्ति, परिश्रमशीलता, शुद्ध रक्त की उचित मात्रा (3) ज्ञान, पढ़ना-लिखना, जीवनोपयोगी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक राजनैतिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय, विषयों की अच्छी जानकारी तर्क, विवेचना, आदि की योग्यता। (4) धन- अपनी तथा अपने आश्रितजनों की जीवन यात्रा की आवश्यक वस्तुओं के जुटाने योग्य कमाई का साधन, रोजगार होना। (5) प्रतिष्ठा- घर तथा बाहर स्नेह आदर-सम्मान, विश्वास तथा श्रद्धा होना (6) सन्मित्र- गहरे, विश्वासी तथा सच्चे सहयोगी मित्रों की वास्तविक घनिष्ठता (7) मनोबल- साहस, वीरता, उदारता, त्याग, दया, सेवा, स्वाभिमान, कर्त्तव्य परायणता।

यह सात बल ऐसे हैं जो मनुष्य को सच्चा मनुष्य, जीवन को सच्चा जीवन बनाते हैं। इनके अभाव में मनुष्य न मनुष्य है और न जीवन-जीवन। अशक्त व्यक्ति एक प्रकार का कीड़ा है जो धरती माता का भार बढ़ाता है। दुख रूपी भवसागर में से अपनी जीवन नौका को वही पार ले जा सकता है जिसकी भुजाओं में पतवार चलाने लायक बल है। दुख की, पाप की, चिन्ता की, वैतरणी को तरने के लिए शक्ति रूपी गौ की पूँछ पकड़ने की आवश्यकता है। आनन्द, बल रूपी देवता का वरदान है। विजय श्री, उसके गले में विजय माल पहनाती है जो बलवान है तेजस्वी है, प्रतापी है, पुरुषार्थी है। जो ऐसे नहीं है वे प्रकृति के अत्यन्त कठोर नियम “श्रेष्ठतम की रक्षा” के सिद्धान्तानुसार पिस जाते हैं। दुर्बल का दैव भी घातक है।

अखण्ड ज्योति के पाठको। आनन्दमय स्वर्गीय जीवन बनाने का प्रयत्न करो। इसका एकमात्र उपाय यह है कि शक्ति का सम्पादन करो, बलवान बनो, तभी दुखों की वैतरणी को तर सकोगे। लेकिन स्मरण रखो यह तैरना एकाँकी नहीं होना चाहिए। आप समाज के अंग है, समाज की उन्नति में आपकी उन्नति है। अकेले आप बलवान हो गये और पड़ौसी लोग निर्बल बने रहें तो आप सच्चा आनन्द प्राप्त न कर सकोगे। भुखमरी से पीड़ित एक-एक दाने से बिलबिलाते हुए लोगों के बीच में बैठकर आप अकेले मधुर मिष्ठान्न खावें तो हर ग्रास के साथ उन क्षुधा पीड़ितों की ईर्ष्या और नाराजी आपके गले से नीचे उतरेगी और वह पेट में जाकर लाभ के स्थान पर हानिकारक सिद्ध होगी। सुस्वादु भोजन का मजा तब है जब समान मित्रों के बीच में बैठकर साथ साथ खाया जाय। हैजा, प्लेग, मलेरिया, तपेदिक और उपदंश के रोगियों के बीच रहकर स्वस्थ पुरुष का भी स्वस्थ रहना कठिन है, इसी प्रकार निर्बल पतित और दुखी लोगों के बीच बलवान व्यक्ति का बल भी उसे संतोष और शान्ति प्रदान नहीं कर सकता।

इसलिए हे आनन्द के इच्छुकों। तरो और तारो। खुद भी बलवान बनो और दूसरों को बलवान बनाओ। जिओ और जिलाओ-उठो और उठाओ - हंसो और हंसाओ। सेवा और शक्ति आपके जीवन के दो उद्देश्य होने चाहिए, दो कार्यक्रम होने चाहिए, योग, दो वस्तुओं के जोड़ को कहते हैं। हे योग साधकों! बल और सेवा को जोड़ो, स्वार्थ और परमार्थ को जोड़ो, सुख और संतोष को जोड़ो तभी हमारी योग साधना सफल होगी। शरीर को सुख चाहिए, आत्मा को सन्तोष चाहिए। शरीर के लिए बल की जरूरत है आत्मा को सेवा की जरूरत है। शरीर की आकाँक्षा स्वार्थ की रहती है आत्मा को परमार्थ की। इन दोनों को योग करो जोड़ो मिलाओ एकत्रित करो, तभी जीवनोद्देश्य प्राप्त होगा तभी सच्चे सुख की उपलब्धि होगी। गाड़ी में दो पहिये होते हैं शरीर की गाड़ी दो पैरों से चलती है ताली दो हाथों से बजती है स्त्री और पुरुष मिलकर एक पूर्ण मनुष्य बनता है, दिन और रात्रि के सम्मिश्रण से एक वार होता है जीवन का आनन्द रथ भी दो पहियों वाला है दो घोड़ों वाला- एक है “बल” दूसरा “सेवा।” बल इकठ्ठा करो और उसे सेवा में लगाओ। नेगेटिव और पॉजिटिव तारों को मिलाते ही बिजली की शक्तिशाली धारा बहने लगती है। शक्ति संचय और जन सेवा इन दोनों तार के मिलते ही जीवन में आनन्द की अमृत वर्षा होने लगती है। प्रसन्नता, प्रफुल्लता और सरसता से अन्तःकरण को स्वर्गीय तृप्ति अनुभव होने लगती है।

अपने को ईश्वर की तरण तारिणी सेना का सैनिक समझे। परमात्मा के आपके लिए दो आदेश हैं। तरो और तारो इन आदेशों को पालन - करना मानो ईश्वर की सच्ची भक्ति करना है। ऐसी भक्ति से ही प्रभु प्रसन्न होते हैं और ऐसे ही भक्तों के योग क्षेम को भगवान अपने कंधे पर उठाते हैं।


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