मैस्मरेजम का अभ्यास

January 1944

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अपने आत्मिक विद्युत प्रवाह में वृद्धि करना मैस्मरेजम के अभ्यासियों के लिए आवश्यक है। अपनी प्रभावशालिनी योग्यताओं को विकसित करने, बढ़ाने और दूसरों पर असर डालने योग्य बनाने के लिए कुछ अभ्यास करने पड़ते हैं। यही मैस्मरेजम की साधना है।

पिछले लेखों में बताया जा चुका है कि इच्छा, आदेश ओर मार्जन यह तीन क्रियाएं मैस्मरेजम में होती हैं। इन तीनों का संचालन करने के लिए शारीरिक और मानसिक विद्युत शक्ति की मात्रा बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके लिए दो साधन बताये जाते हैं (1) मानसिक विद्युत बढ़ाने के लिए-प्राणाकर्षण प्राणायाम (2) शारीरिक विद्युत बढ़ाने के लिए-त्राटक। दोनों अभ्यास नीचे बताये जाते हैं।

प्राणाकर्षण-प्राणायाम-कहीं एकान्त स्थान में जाओ। समतल भूमि पर नरम बिछौना बिछाकर पीठ के बल लेट जाओ। मुँह ऊपर को रहे। पैर, कमर, छाती, सिर सब एक सीध में रहें। दोनों हाथ सूर्य चक्र पर (आमाशय का वह स्थान जहाँ पसलियाँ और पेट मिलता है) रख लो। मुँह बन्द रखो। शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दो, मानों वह कोई निर्जीव वस्तु है और उससे तुम्हारा कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। कुछ देर शिथिलता की भावना करने पर शरीर बिलकुल ढीला पड़ जाएगा। अब धीरे-धीरे नाक द्वारा साँस खींचना आरम्भ करो और दृढ़ शक्ति के साथ भावना करो कि विश्वव्यापी महान् प्राण भण्डार में से मैं स्वच्छ प्राण, साँस के साथ खींच रहा हूँ और वह प्राण मेरे रक्त प्रवाह तथा समस्त नाड़ी तन्तुओं में प्रवाहित होता हुआ सूर्य चक्र में इकट्ठा हो रहा है। इस भावना को कल्पना लोक में इतनी दृढ़ता के साथ उतारो कि प्राणशक्ति की बिजली जैसी किरणें नासिका द्वारा देह में घुसती हुई चित्रवत् दीखने लगे और अपने रक्त का दौरा एवं नाड़ी समूह तस्वीर की तरह दीखें तथा उसमें प्राण बहता हुआ नजर आवे। भावना की जितनी अधिकता होगी उतनी ही अधिक मात्रा में तुम प्राण खींच सकोगे। फेफड़ों को वायु से अच्छी तरह भर लो और पाँच से दस सेकिण्ड तक उसे भीतर रोके रहो। आरम्भ में पाँच सेकिण्ड काफी हैं पश्चात् अभ्यास बढ़ने पर दस सेकिण्ड तक रोक सकते हैं। साँस रोके रहने के समय अपने अन्दर प्रचुर परिमाण में प्राण भरा हुआ अनुभव करना चाहिये। अब वायु को मुँह द्वारा धीरे धीरे बाहर निकालो। निकालते समय ऐसा अनुभव करो कि शरीर के सारे दोष, रोग और विष इसके द्वारा निकाल बाहर किये जा रहे है। दस सेकिण्ड तक बिना हवा के रहो और फिर पूर्ववत् प्राणाकर्षण प्राणायाम करना आरम्भ कर दो। स्मरण रखो कि प्राण आकर्षण का मूल तत्व साँस खींचने छोड़ने में नहीं वरन् आकर्षण की उस भावना में है जिसके अनुसार अपने शरीर में प्राण का प्रवेश होता हुआ चित्रवत् दिखाई देने लगता है।

इस प्रकार की श्वांस प्रश्वास क्रियाएं दस मिनट से लेकर धीरे धीरे आधे घण्टे तक बढ़ा लेनी चाहिए। श्वांस द्वारा खींचा हुआ प्राण सूर्य चक्र में जमा होता जा रहा है इसकी विशेष रूप से भावना करो। यदि मुँह द्वारा साँस छोड़ते समय आकर्षित प्राण को छोड़ने की भी कल्पना करने लगे तो यह सारी क्रिया व्यर्थ हो जायगी और कुछ भी लाभ न मिलेगा। ठीक तरह से प्राणाकर्षण करने पर सूर्यचक्र जागृत होने लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पसलियों के जोड़ का आमाशय के स्थान पर जो गड्ढा है, वहाँ सूर्य के समान एक छोटा सा प्रकाश बिन्दु मानस नेत्रों से दीखने लगा है। वह गोला आरंभ में छोटा, थोड़े प्रकाश का और धुँधला मालूम देता है किन्तु जैसे जैसे अभ्यास बढ़ने लगता है वैसे वैसे वह साफ, स्वच्छ, बड़ा और प्रकाशवान् होता जाता है। जिनका अभ्यास बढ़ा चढ़ा है उन्हें आँखें बन्द करते ही अपना सूर्य चक्र साक्षात् सूर्य की तरह तेज पूर्ण दिखाई देने लगता है। यह प्रकाशित तत्व सचमुच प्राणशक्ति है। इसकी शक्ति से कठिन कार्यों में अद्भुत सफलता प्राप्त होती है।

अभ्यास पूरा करके उठ बैठो। तुम्हें मालूम पड़ेगा कि रक्त का दौरा तेजी से हो रहा है और सारे शरीर में एक बिजली सा दौड़ रही है। अभ्यास के उपरान्त कुछ देर शान्ति-मय स्थान में बैठना चाहिये और हो सके तो किसी सात्विक वस्तु का जलपान कर लेना चाहिये। अभ्यास से उठकर एक दम किसी कठिन काम में जुट जाना, स्नान, भोजन या मैथुन करना निषिद्ध है। अभ्यास के लिये प्रातः काल का समय सर्वोत्तम है।

दृष्टिपात का अभ्यास (त्राटक)

पूर्व ही यह बताया जा चुका है कि शरीर की विद्युत शक्ति कई भागों में विभक्त होकर अलग-अलग दिशाओं में काम कर रही है। इस क्रिया में ऐसे साधन की जरूरत है, जिससे शरीर और मन की विद्युत शक्तियाँ अधिक से अधिक मात्रा में एकत्रित होकर एक स्थान पर लग जाए। त्राटक हठ योग का एक साधन है। इसके द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों में बहने वाली बिजली को सब ओर से खींच कर एक स्थान पर लाने का प्रयत्न किया जाता है। त्राटक का अभ्यास जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, वैसे ही वैसे नेत्रों की प्रभावकारिणी शक्ति बढ़ती जाती है।

एक हाथ लम्बा एक हाथ चौड़ा एक चौकोर कागज या पट्ठा लेकर उसके बीच में रुपये के बराबर एक काला गोल निशान बनाओ। स्याही एक सी, कहीं कम ज्यादा न हो। इसके बीच में सरसों के बराबर सफेद निशान छोड़ दो और उस सफेदी में पीला रंग भर दो। इस कागज को किसी दीवार पर टाँग दो और तुम उससे चार फीट दूरी पर इस प्रकार बैठो कि वह काला गोला तुम्हारी आँखों के बिलकुल सामने सीध में रहे। यह साधना का कमरा ऐसा होना चाहिये, जिसमें न अधिक प्रकाश रहे न अन्धेरा। न अधिक सर्दी हो न गर्मी। पाल्थी मार कर मेरुदण्ड को सीधा रखते हुये बैठो और काले गोले के बीच में जो पीला निशान है, उसपर दृष्टि जमाओ। चित्त की सारी भावनायें एकत्रित करके उस बिन्दु को इस प्रकार देखो मानो तुम अपनी सारी शक्ति नेत्रों द्वारा उसमें प्रवेश कर देना चाहते हो। ऐसा सोचते रहो कि मेरी तीक्ष्ण दृष्टि से इस बिन्दु में छेद हुआ जा रहा है। कुछ देर इस प्रकार देखने से आँखों में दर्द होने लगेगा और पानी बहने लगेगा, तब अभ्यास को बन्द कर दो।

अभ्यास के लिये प्रातःकाल का समय ठीक है। नित्यकर्म से निवृत्त होकर नियत स्थान पर बैठना चाहिये और चित्त एकाग्र करके साधन आरम्भ करना चाहिये। पहले दिन देखो कि कितनी देर में आंखें थक जाती हैं और पानी आ जाता है, पहले दिन जितनी देर अभ्यास किया है, प्रति दिन उसमें एक या आधी मिनट बढ़ाते जाओ। इस प्रकार दृष्टि को स्थिर करने पर तुम देखोगे कि उस काले गोले में तरह-तरह की आकृतियाँ पैदा होती हैं। कभी वह सफेद रंग का हो जायेगा, तो कभी सुनहरा। कभी छोटा मालूम पड़ेगा, तो कभी बड़ा। कभी चिनगारियाँ सी उड़ती दिखाई देंगी, तो कभी बादल से छाये हुए प्रतीत होंगे। इस प्रकार वह गोला अपनी आकृति बदलता रहेगा। किन्तु जैसे-जैसे दृष्टि स्थिर होना शुरू होगी, वैसे ही वैसे यह गोला भी स्थिर होता जाएगा और उसमें दीखने वाली विभिन्न आकृतियाँ बन्द हो जायेगी और बहुत देर देखते रहने पर भी गोला ज्यों का त्यों बना रहेगा।

त्राटक करने का चित्र और भी कई प्रकार से बनाया जाता है। एक एक फुट लम्बे चौड़े चौकोर दर्पण के बीचों बीच चाँदी की चवन्नी भर काले रंग के कागज का गोल टुकड़ा काट कर चिपका दिया जाता है। उस कागज के मध्य में सरसों के बराबर एक पीला बिन्दु बनाते हैं। इस अभ्यास को एक मिनट से शुरू करते हैं और प्रति दिन एक-एक मिनट बढ़ाते जाते हैं। जब इस तरह दृष्टि स्थिर हो जाती है, तब और भी आगे का अभ्यास शुरू किया जाता है। दर्पण पर चिपके हुए कागज को छुड़ा देते हैं और उसमें अपना मुँह देखते हुए अपनी बाँई आँख की पुतली पर दृष्टि जमा लेते हैं और उस पुतली में बड़े ध्यान पूर्वक अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं।

तीसरी विधि मोमबत्ती या दीपक की ज्योति पर दृष्टि जमाने की है। दीपक घृत का या शुद्ध सरसों के तेल का होना चाहिये। मोमबत्ती की रोशनी भी ठण्डी समझी जाती है।

चौथी विधि प्रातःकाल के सूर्य पर दृष्टि जमाने की है और पांचवीं चन्द्रमा पर त्राटक करने की है। इनमें से इच्छानुसार चाहे जिसे किया जा सकता है, पर हमें अनुभव से पहला साधन ही सुलभ और निरापद प्रतीत हुआ है।

अभ्यास पर से जब उठो, तो गुलाब जल से आंखें धो डालो। आँख धोने के लिये एक काँच की प्याली चार पाँच पैसे की बाजार में मिलती है, उसमें गुलाब जल भरकर आँखों से लगाना चाहिये और उस पानी में आँख खोलकर उन्हें स्नान कराना चाहिये, जिससे उनकी उष्णता शान्त हो जाए और शीतलता प्राप्त हो। अभ्यास से उठने के बाद कोई पौष्टिक शीतल वस्तु खा लेना भी आवश्यक है। दूध या दही की लस्सी, मक्खन, मिश्री, फल, शरबत आदि कुछ सेवन कर लेने से शरीर की बढ़ी हुई गर्मी शान्त हो जाती है।

अभ्यासी की आयु कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए। शरीर और मन से निरोग तथा दुर्व्यसनों से मुक्त होना चाहिए। उसे सदाचारी, आत्मविश्वासी, आशावादी, दृढ़ निश्चयी और धैर्यवान होना चाहिए। जब तक यह योग्यताएँ न हों तब तक साधना करने के लिए ठहर जाना चाहिए। अभ्यास के दिनों में सात्विक आहार विहार रखना, ब्रह्मचर्य पालन करना और उत्तम भावनाएं रखनी चाहिए।

पहले प्राणायाम फिर त्राटक यह क्रम रखना ठीक है। आरंभ में प्राणायाम के लिए पन्द्रह मिनट और त्राटक के लिए पाँच मिनट देने चाहिए। फिर इसी अनुपात में समय बढ़ाते हुए आधा घण्टा कर लेना चाहिए। देखा गया है कि 6 से 8 सप्ताह में साधारण श्रेणी के लोगों को मैस्मरेजम की योग्यता हो जाती है। किसी किसी को न्यूनाधिक समय भी लग जाता है। साधन सफल हो जाने के बाद अभ्यास को छोड़ न देना चाहिए वरन् आधा घण्टा प्रतिदिन अथवा कुछ कम प्रतिदिन अभ्यास करते रहना चाहिए जिससे अपनी साधना सुरक्षित बनी रहे।

प्रयोगकर्ता को अपने आचरण, चरित्र, विचार, रहन सहन, पहनाव उढ़ाव, बातचीत का ढंग मुख-मुद्रा आदि इस प्रकार के रखने चाहिए जिसका दूसरों पर प्रभाव पड़े। यदि प्रयोक्ता का रंग ढंग भद्दा और छिछोरा होगा तो दूसरे उससे प्रभावित न होंगे ऐसी दशा में अपनी विद्युत शक्ति पर्याप्त होते हुए भी प्रयोगों में सफलता न मिलेगी। इस बात को भले प्रकार समझ रखना चाहिए कि यदि कोई दूसरे का प्रभाव स्वयं ग्रहण न करे तो उस पर किसी भी प्रयोग का असर नहीं हो सकता, यदि पात्र का प्रयोक्ता पर अविश्वास हो, और उसकी योग्यता को स्वीकार न करे तो फिर सभी प्रयोग निष्फल रहेंगे। चतुर प्रयोक्ता इस मर्म को भली भाँति समझते हैं, इसलिए वे अपना रंग-ढंग ऐसा रखते हैं जिससे प्रभाव उत्पन्न हो। प्रयोग से पहले ही अपने पात्र को जो आधा प्रभावित कर लेता है वही सफल प्रयोक्ता है। मैस्मरेजम करने वाले की पोशाक मुखमुद्रा तथा वाणी की ओजस्विता अधिकाधिक प्रभावशालिनी होनी चाहिए।


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