अपने ऊपर मैस्मरेजम करना

January 1944

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मैस्मरेजम विधान के अनुसार दूसरों को निद्रित करना एवं उनकी मनोभूमि का संशोधन, परिमार्जन करना पिछले पाठ में बताया जा चुका है। अब यह बतावेंगे कि इस साधना से अपना क्या हित साधन किया जा सकता है।

जिस प्रकार विश्वास और संकल्प शक्ति के आधार पर दूसरों को निद्रित किया जा सकता है एवं कुसंस्कारों का परिमार्जन तथा शुभ संस्कारों का बीजारोपण किया जा सकता है उसी प्रकार का प्रयोग अपने ऊपर अपने आप भी किया जा सकता है। पीछे बताया जा चुका है कि विश्वास हो जाने पर झाड़ी का भूत दिखाई देने लगता है। यह अपने आप अपने पर अनजाने में मैस्मरेजम प्रयोग है। जैसे हिप्नोटाइज्ड व्यक्ति को कुछ का कुछ दिखाई पड़ने लगता है वैसे ही अपने निजी संकल्प से भी तन्द्रावस्था प्राप्त होती है और उसमें संकल्पों का ही मूर्त रूप दिखाई पड़ने लगता है।

कहते हैं कि एक ग्रामीण व्यक्ति किसी साधु के पास गया और कहने लगा मुझे योग साधन सिखा दीजिए। साधु ने सरल स्वभाव से उसे श्रीकृष्ण की मूर्ति का ध्यान करने को कहा, ग्रामीण ने प्रयत्न किया पर उससे वह ध्यान न हुआ। तब साधु ने उसे दूसरा ध्यान बताया। वह भी उससे नहीं हुआ, इस प्रकार हर बार वह विफल होता गया। अन्त में साधु ने उसे बताया कि जो वस्तु तुझे सबसे प्रिय हो उसी का ध्यान कर। ग्रामीण को अपनी भैंस सबसे प्रिय थी, वह भैंस का ध्यान एकान्त कुटी में बैठकर करने लगा। कुछ समय बाद साधु ने उससे पूछा कि-बच्चा क्या होता है, कुटी से बाहर निकल कर अपना हाल बताओ। ग्रामीण ने कहा-महाराज अब तो मैं भैंस ही हो गया हूँ, बड़े बड़े सींग उपज आये हैं, कुटी से बाहर नहीं निकला जाता। साधु उसकी सफलता देखकर प्रसन्न हुआ और उसे बाहर निकाल कर सच्चे ध्यान में लगा दिया। यह स्वयं सम्मोहन क्रिया है। दूसरे को हिप्नोटिज्म करके उसे यह अनुभव कराया जा सकता है कि वह मनुष्य नहीं हाथी है, इसी प्रकार अपने आप अपने ऊपर हिप्नोटिज्म करके भी लोग कुछ का कुछ अनुभव कर सकते हैं। सच पूछा जाए तो दुनिया के अधिकाँश लोग स्वसम्मोहन किया द्वारा अर्धमूर्च्छा में डूबे रहते हैं और कुछ का कुछ अनुभव करते रहते है। मनुष्य जीवन का वास्तविक उद्देश्य और कर्तव्य क्या है? इसे करीब-करीब सभी लोग जानते हैं पर साँसारिक चकाचौंध से अपने आपको अर्ध निद्रित करके भ्रम पूर्ण विश्वास और विचारों को अपने अन्दर भरे रहते हैं और अधपगलों जैसा आचरण करते हुए निरर्थक एवं हानिकर कार्यों में अपनी जीवन सम्पत्ति को नष्ट कर डालते हैं।

‘मन’ ही मनुष्य तत्व का सार है। यह जिधर चल पड़ता है, जीवन की धारा उसी ओर प्रवाहित होने लगती है। इसलिए हम अपने को जिधर ले लाना चाहते हैं वैसे ही संस्कार मन के ऊपर जमाने की आवश्यकता है। यह कार्य मैस्मरेजम के ‘स्वसम्मोहन’ सिद्धान्त द्वारा हो सकता है। आत्मोन्नति की योगिक साधनाओं को मैस्मरेजम विज्ञान की भाषा में ‘स्वसम्मोहन’ कहा जायगा। साधक लोग मंत्रों का जप करके, पुस्तकों का पाठ करके, ध्यान करके, अमुक अनुष्ठान कर्म काण्ड करके अपने ऊपर अमुक प्रकार के संस्कार जमाते हैं। यह संस्कार जितने मजबूत होते जाते हैं, बाह्य जीवन में वैसी ही परिस्थितियाँ इकट्ठी होती जाती है।

अपनी जिस दिशा में उन्नति करनी हो तदनुकूल संस्कारों को मनोभूमि पर जमाने का अभ्यास करना चाहिए। वास्तविक संपत्ति यह संस्कार ही है। एक बार एक बड़े व्यापारी की कोठी में आग लग गई, कर्मचारी भागे हुए आये और उन्होंने व्यापारी को सब हाल सुनाया कि करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हो गई, अब कारोबार करने के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं बची है। व्यापारी के चेहरे पर इस समाचार से जरा भी उदासी नहीं आई उसने कहा-तुम समझते हो कि कोठी या ‘सम्पत्ति के कारण मैं अमीर था, यह तुम्हारी भूल है। मैं धन के कारण नहीं अपनी आदतों और मानसिक संपदाओं के कारण अमीर हूँ, तुम लोग देखोगे कि कुछ ही दिनों में फिर वैसी ही कोठियाँ खड़ी हो जायेंगी। व्यापारी का कहना सत्य हुआ, सब कुछ नष्ट हो जाने पर भी उसने प्रयत्न किया और थोड़े ही दिनों में फिर पहले जैसा अमीर हो गया। लोग बड़ी भूल करते हैं जब यह कहते है कि हम परिस्थितियों के गुलाम हैं। वास्तव में हर मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करता है। जिसकी जैसी मनोदशा है उसे तदनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त होकर रहती हैं।

नीचे कुछ ऐसे अभ्यास बताये जाते हैं जिनको करते रहने से स्वसम्मोहन सिद्धान्त के अनुसार अपने मन के ऊपर स्वयं प्रभाव डाल कर उसे नियत दिशा में चलने के लिए प्रेरित किया जा सकता है, और तदनुसार इच्छित परिस्थितियाँ तथा वस्तुएं प्राप्त हो सकती हैं।

(1) आरोग्य प्राप्ति के लिए।

एकान्त कमरे में पद्मासन से बैठो या आराम कुर्सी पर पड़े रहो, चित्त की चंचलता छोड़ दो और सारी माँसपेशियाँ तथा नाड़ियों को ढीली करके शरीर को शिथिल हो जाने दो। शिथिल हो जाने पर धीरे धीरे एक लम्बी साँस खींचो और फिर उसी प्रकार धीरे धीरे छोड़ते हुए साँस बिलकुल निकाल दो, साँस खीचते समय भावना करो कि आरोग्यतावर्द्धक तत्वों को साँस द्वारा खींच कर अपने अन्दर भर रहा हूँ। जब साँस छोड़ो तो ध्यान करो कि मेरी बीमारियाँ तथा दुर्बलताएं साँस के साथ निकल कर बाहर जा रही हैं, दस पन्द्रह मिनट तक इसी प्रकार श्वास प्रश्वांस क्रिया करते रहो। इससे बड़ी शान्ति मिलेगी, और शरीर में हलकापन फुर्ती तथा चैतन्यता नजर आवेगी। अब मन ही मन इस मन्त्र का जप करो- “ॐ” मैं अपने शरीर का स्वामी हूँ। मैं बलवान हूँ। निरोग हूँ। मेरे सारे अंग ठीक ठीक काम करते हैं। सबलता स्वस्थता और सुन्दरता निरंतर मुझ में बढ़ती जा रही है। धमनियों में शुद्ध रक्त प्रवाहित हो रहा है। बहुत तेजी से मैं स्वस्थता प्राप्त कर रहा हूँ।” इस मंत्र को मन ही मन अनेक बार जपो और कल्पना शक्ति द्वारा वैसा ही अपने को अनुभव करो। इस अभ्यास को प्रति दिन प्रातःकाल करने से आश्चर्यजनक तीव्रता से आरोग्य की प्राप्ति होती है।

(2) ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए।

एकान्त स्थान में चित्त को शान्त और शरीर को शिथिल करके, आराम से बैठ जाओ। नेत्रों को बन्द कर लो। ध्यान द्वारा सर्वत्र हरा रंग देखो। आकाश, भूमि, सूर्य, नक्षत्र, मकान, पेड़, पहाड़, नदी, जीव-जन्तु सब को हरे रंग का देखो। चारों ओर हरा ही हरा अनुभव करो। यह हरे रंग की भावना जितनी अधिक देर तक जितनी दृढ़ता पूर्वक जमाये रहोगे उतना ही अच्छा है। मनोविज्ञान शास्त्रियों का मत है कि हरा रंग धन, वैभव और सफलता का प्रतिनिधि है। शुभ कर्मों में हरे रंग को प्रधानता दी जाती है। हरे रंग के बंदनवार और तोरण विवाह शादियों में बाँधे जाते हैं। चूने में हरा रंग डाल कर कमरे पुतवाये जाते हैं, इसमें वैभव वृद्धि का रहस्य छिपा हुआ है।

हरे रंग का ध्यान करते हुए शिथिल मन और मस्तिष्क से इस मंत्र का भावनापूर्वक मन ही मन जप किया कीजिए “मेरी सत्ता में अमित ऋद्धि सिद्धियाँ समाई हुई हैं। अब मैं अपनी प्रबल इच्छा शक्ति द्वारा वैभव की कामना करता हूँ, और विश्वास करता हूँ कि अत्यंत शीघ्र मेरे ऐश्वर्य की वृद्धि होगी, मुझे इच्छित वस्तुएं तथा परिस्थितियां प्राप्त करने में सफलता प्राप्त होगी। मैं अपनी सम्पूर्ण शक्तियों के साथ वैभव प्राप्त करने में लगा हूँ इसी लिए यह निर्विवाद निश्चित है कि मेरी मनोकामना पूर्ण होकर रहेगी। इस मन्त्र को श्रद्धापूर्वक प्रतिदिन जपना चाहिए।

(3) मानसिक शक्तियों की उन्नति के लिए

उपरोक्त रीति से एकान्त स्थान में बैठ कर दोनों भृकुटियों के मध्य में त्रिकुटी स्थान में नेत्र बन्द करके ध्यान जमाना चाहिए और चन्द्रमा के समान सुनहरी तथा शीतल प्रकाश ज्योति का ध्यान करना चाहिए और मन ही मन इस मन्त्र का जप करना चाहिए मेरा मस्तिष्क स्वस्थ तथा सबल है, मेरी बुद्धि तीव्र होती जा रही है, विचार शक्ति, निर्णय शक्ति, परीक्षण शक्ति, कल्पना शक्ति आदि अनेक मानसिक शक्तियाँ बढ़ रही हैं, विकसित हो रही हैं। मैं धीरे धीरे बुद्धिमान बनता जा रहा हूँ बहुत शीघ्रता से मेरा मानसिक विकास हो रहा है।” इस ध्यान और जप से मानसिक शक्तियों का बड़ी तीव्र गति से विकास होता देखा गया है।

(4) आत्मिक बल बढ़ाने के लिए-

उपरोक्त रीति से एकान्त स्थान में शिथिल होकर बैठिए। दोनों पसलियों के जोड़ पर आमाशय के स्थान पर-सूर्य चक्र में सूर्य के समान तेजस्वी ज्योति का ध्यान कीजिए, साथ ही निम्न मंत्र जपते जाइए-मैं आत्मबल से परिपूर्ण हूँ, मेरे अन्दर अपार आत्म शक्ति है, इस सोई हुई महान् शक्ति को अब मैं प्रयत्नपूर्वक जागृत कर रहा हूँ। सारे दुर्गुण एवं कुसंस्कारों को मैं ठोकर मार मार कर भगाये दे रहा हूँ और उनके स्थान पर सात्विक सद्गुणों को प्रतिष्ठित कर रहा हूँ। मैं दृढ़ हूँ, निर्भय हूँ, पुरुषार्थी हूँ, सदाचारी हूँ और सत्यनिष्ठ हूँ। मैं आत्मा हूँ और अपनी महान आत्मिक शक्तियों को दृढ़तापूर्वक धारण किये हुए हूँ।

(5) किसी साँसारिक वस्तु को प्राप्त करने के लिए-

पूर्वोक्त प्रकार से शान्तिपूर्वक बैठकर पीले रंग का ध्यान करना चाहिए और इस प्रकार का मानसिक जप करना चाहिए कि-”अमुक वस्तु को मैं चाहता हूँ, उसे प्राप्त करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करता हूँ। सम्पूर्ण शक्ति के साथ उसे प्राप्त करने के लिए जी जान से कोशिश करूंगा, यह निश्चित सिद्धान्त है कि ‘जो चाहता है उसे मिलता है। मैं सच्चे दिल से अमुक वस्तु को चाहता हूँ, इसलिए उसे प्राप्त करके रहूँगा।” इस संकल्प के अतिरिक्त इस चौपाई को बार बार गुनगुनाते रहना चाहिए। “जेहि कर जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलत न कछु संदेहू।”

(6) प्रार्थना द्वारा इच्छा पूर्ति।

ईश्वर से, या किसी देवता से, अमुक वस्तु के लिए प्रार्थना करने की पद्धति भारत में अत्यंत प्राचीनकाल से चली आ रही है। वेदों का आधे से अधिक भाग ऐसे मंत्रों से भरा हुआ है जिसमें धन, वैभव, पुत्र, यश, आरोग्य, बुद्धि, सुख आदि के लिए ईश्वर से प्रार्थना है। ऐसी प्रार्थनाएं करना मैस्मरेजम सिद्धान्त के सर्वथा अनुकूल है। प्रार्थना से दो बातें होती हैं (1) अपनी आवश्यकता का बार बार स्मरण आता है जिससे उधर रुचि तथा लगन बढ़ती हैं (2) ईश्वर या देवता द्वारा सहायता मिलने की संभावना से आशा की किरणें दिखाई पड़ती हैं तथा उत्साह उत्पन्न होता है। यह दोनों ही बातें इच्छा पूर्ति में बहुत सहायक होती हैं। अनेक बार तो प्रार्थना बहुत अंशों में तथा कभी कभी पूर्ण रूपेण सफल हो जाती है। प्रार्थना के साथ साथ यदि पौरुष और प्रयत्न भी हो तो वह बहुत ही फलवती होती है। अकर्मण्यों की प्रार्थना ईश्वर के दरबार में सुनी नहीं जाती, मैस्मरेजम सिद्धान्त के अनुसार भी वह निष्फल ही ठहरती है।


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