डॉ. फ्रेडरिक एन्टोन मेस्मेर

January 1944

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(ले. विद्याभूषण पं. मोहन शर्मा, विशारद, पूर्व सम्पादक “मोहिनी”)

मैस्मरेजम का गये 150 वर्ष में जितना प्रचार हुआ है उससे जन साधारण में इसकी चर्चा जोरों से हो रही है पर इसके जानकार और अभ्यासी कम ही दिखाई पड़ते हैं। इसका कदाचित् यह कारण है कि मैस्मरेजम का अभ्यास कठिनाई से होता है और प्रत्येक व्यक्ति स्वभावतः उलझन और कठिनाई में गिरना नहीं चाहता। फलतः हमारे देश में लाखों करोड़ों मनुष्यों के लिये मैस्मरेजम आज भी कौतूहल और आश्चर्य की वस्तु बनी हुई है। मनुष्य समाज में इसके चमत्कार देखने की रुचि, लालसा और आग्रह ने जैसी वृद्धि प्राप्त की यदि अभ्यास क्रम के पक्ष में भी यही होता तो आज दिन मैस्मरेजम के अनन्त उपकारों से हमारे जीवन की समुन्नति में युगान्तर उपस्थित हो जाता। मैस्मरेजम हमारी योग विद्या की ही धारणा है जो मेस्मेर नामक जर्मन विद्वान को खोज और प्रयन्त से प्राप्त हुई और उन्होंने इसे मैस्मरेजम का रूप देकर पश्चिमी देशों में प्रचारित किया। मैस्मरेजम आँग्ल भाषा का शब्द है और मेस्मेर के नाम पर से इस शब्द की सृष्टि हुई है। इसको हिन्दी में ‘प्राण विनिमय’ और उर्दू में ‘इल्म सवज्जह’ कहते हैं। पर हिन्दी, उर्दू के यह दोनों नाम ठीक कार्य सूचक होने पर भी मैस्मरेजम शब्द के मुकाबले में आज तक प्रचारित नहीं हो सके। मैस्मरेज्म के सम्बन्ध में कुछ जानने के पूर्व इसके आध संशोधक मेस्मेर का जीवन परिचय जानना कहीं अधिक आवश्यक है। अतः इसकी जो भी सामग्री उपलब्ध है, उसे हम इस विद्या के प्रेमियों के ज्ञान लाभार्थ ज्यों की त्यों नीचे देने का प्रयत्न कर रहें है।

फ्रेडरिक एन्टोन मेस्मेर का जन्म सन् 1737 ईस्वी के लगभग जर्मनी में रायन नदी के किनारे किसी एक गाँव में हुआ था। वयस्क होने पर इन्होंने वीयना नगर में वेदों का अभ्यास किया और वहाँ से डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की। उपाधि मिलने पर सन् 1766 के लगभग इन्होंने “मानव शरीर पर ग्रहों का प्रभाव” विषय में खोज बीन और कठिन अभ्यास का आरम्भ कर दिया। बाद में यह सिद्ध करने का भी जिम्मा लिया कि ‘सूर्य, चन्द्र और दूसरे-दूसरे ग्रह अपने चंचल प्रवाह से जीवित मनुष्यों को प्रतिक्षण प्रभावित कर रहे हैं।” इस चंचल प्रवाह की क्रिया को मेस्मेर ने ‘एनीमल मैग्नेटिज्म’ अर्थात् प्राणियों को आकर्षित करने की शक्ति कहकर प्रसिद्ध किया। पश्चिमी जगत में मेस्मेर की इस अपूर्व शोध से खलबली मच गई। इसके कुछ कालोपरान्त मैस्मेर प्रसिद्ध खगोलवेत्ता जेस्वीट फादर हेल से जाकर मिला जो सन् 1974 में वीयना नगर में आकर बसा था। जेस्वीट फादर हेल लोह चुम्बक के प्रयोग द्वारा कठिन रोगों के रोगियों को आरोग्य प्रदान करता था। इन प्रयोगों को देखकर मेस्मेर ने अपने ग्रहों के सिद्धान्त और लौह चुम्बक के सिद्धान्त में बहुत कुछ समानता पायी। उसने जेस्वीट फादर को बताया कि वह बिना लोह चुम्बक की सहायता के भयंकर मानवीय रोगों को निरन्तर प्रयोग द्वारा अच्छा कर सकता है। अपने इस विश्वास में उसे एक दिन नीचे की घटना पर से और भी अधिक दृढ़ता प्राप्त हुई- एक बार मेस्मेर ने एक घाव के रोगी के उपचारार्थ ज्यों−ही लोह चुम्बक हाथ में लाने का उपक्रम किया कि उसका हाथ एकाएक रोगी के खून से बहते हुए घाव पर फिसल पड़ा जिसका तत्काल ही घाव पर अपूर्व प्रभाव देखा गया। फलतः अपने प्रयोग की विचित्रता अनुभव कर मेस्मेर ने लोह चुम्बक के उपयोग को सदैव के लिये बन्द कर दिया और उस दिन से अपनी चिकित्सा का क्कड्डह्यह्यद्गह्य को ही मुख्य आधार बनाया। उसने तर्क और प्रयोग द्वारा सर्व साधारण में यह प्रसिद्ध किया कि “अखिल संसार में एक खास प्रकार की आकर्षण शक्ति काम कर रही है और वह मनुष्यों की छोटी बड़ी हर एक नस में विशेष रूप से गतिशील होकर विद्यमान है।”

देखते-2 पश्चिमी जगत में मेस्मेर के इन विचित्र प्रयोगों की धूम मच गयी। वीयना के प्रसिद्ध-2 समाचार पत्रों ने मेस्मेर की सफलता के हर्ष सूचक संवाद प्रकाशित किये। कई नामांकित व्यक्तियों ने मेस्मेर को प्रमाण पत्र देकर उसके नवाविष्कृत सिद्धान्त का सम्मान किया। इसी तरह म्युनिच विज्ञान मन्दिर के मुख्य अध्यापक ओस्टर वाल्ड और गणित के अध्यापक बेनरे ने भी मेस्मेर की आश्चर्यजनक चिकित्सा पद्धति की सराहना की। ओस्टर वाल्ड को लकवा हो गया था और बेरने की आँखों की शक्ति क्षीण हो गई थी पर मेस्मेर की चिकित्सा का आश्रय लेने से दोनों ने खोई हुई आरोग्यता पुनः प्राप्त कर ली।

सन् 1775 में मेस्मेर ने यूरोप के प्रमुख विद्यालयों को मैस्मरेजम विषय शिक्षा क्रम में रखे जाने के लिये कई पत्र लिखे पर दुर्भाग्य से किसी भी पाठशाला ने उसके इस सुझाव को मान्य नहीं दिया। जर्मनी के हम वतन पण्डितों और विद्वानों ने भी उसकी पद्धति को प्रमाण भूत मानने में आगा पीछा किया। अतः सन् 1778 में मेस्मेर, वियना नगर छोड़कर पेरिस चला आया। उसके वियना छोड़ने का ठीक-ठीक कारण बताना कठिन है। यह जान पड़ता है कि जुदी-जुदी चिकित्सा पद्धतियों के प्रचारकों की प्रतियोगिता ही उसके मार्ग में बाधक हुई। महानगरी पेरिस में पहिले वह गरीबों के मुहल्ले में जाकर रहा। सन् 1779 में उसने आकर्षण शक्ति की शोध पर एक निबन्ध प्रकाशित कराया जिसमें उसने अपने 27 सिद्धान्तों का खुलासा किया था। कहना नहीं होगा कि इससे उसे अपने इच्छित प्रयास में सफलता प्राप्त हुई। आरम्भ में ही वहाँ के एक सुप्रसिद्ध डॉक्टर ने मेस्मेर के सिद्धान्त के प्रति अपने अटल विश्वास की घोषणा द्वारा उसके प्रचार मार्ग को निष्कण्टक बना दिया। धीरे-धीरे रोगी और विद्यार्थी अधिक संख्या में उपस्थित होने लगे। उनमें से बहुतों को मोह निद्रा में पड़ने की आदत पड़ गई और काम काज इतना बढ़ गया कि मेस्मेर को एक चतुर सहायक की अनिवार्य आवश्यकता जान पड़ने लगी। एक साथ कई रोगियों को मुग्ध करने के उद्देश्य से उसने ‘बेके’ नाम का एक यन्त्र विशेष तैयार किया-इस यन्त्र के द्वारा 30 से भी अधिक मनुष्यों को एक साथ मुग्ध किया जा सकता था। इस यंत्र का वर्णन एक अंग्रेजी पुस्तक में नीचे लिखे अनुसार आया है-

“एक विशाल कमरे के बीचों बीच लकड़ी का एक डब्बा रखा जाता था, जिसके आस पास कपड़े का पर्दा लटकाया जाता; जिसमें होकर प्रकाश की क्षीण रेखाएं आ जा सकती थी। डब्बे की तली में काँच और लोहे के बुरादे पर कई शीशियां इस प्रकार बैठाई जाती कि उनका ऊपरी भाग मध्य बिन्दु की ओर रहता था। इन शीशियों को पानी में डुबाकर रखा जाता। डब्बे के ढक्कन में छोटे मोटे कई छिद्र रहते थे। जिनमें बलखाती हुई लोहे की छड़ें फँसायी जाती थीं रोगीजन इन्हीं छड़ों को पकड़ कर एक दूसरे का हाथ अपने हाथ में ले चारों और चक्राकार बैठाये जाते थे। इसके बाद ही पियानो या हारमोनियम की ध्वनि से कमरा गूँज उठता-कभी-कभी वादन क्रिया के साथ गायन भी होता था जिसमें आस पास बैठे हुये रोगियों की चित्तवृत्ति गायन वादन में केन्द्रित हो जाती थी।

मेस्मेर अपना रेशमी लम्बा कोट पहिने रोगियों के चारों तरफ फिरता था। साथ ही लोहे की लम्बी छड़ को हाथ में रखकर उसे प्रत्येक रोगी के उस अंग से स्पर्श कराता जो रोग की पीड़ा का मुख्य स्थान माना जाता था बीच में कभी-कभी वह अपनी इस ‘जादू की लकड़ी’ को एक ओर रखकर रोगियों पर दृष्टि जमाता था हर एक रोगी पर बारी-बारी से हाथ फेरता रहता था। अनेक अवसरों पर यह पासेज की क्रिया घण्टों तक जारी रहती थी। इस प्रकार की क्रिया से युवती स्त्रियों पर इतना अधिक प्रभाव हुआ कि वे बारम्बार मोह निद्रा में जाना पसन्द करने लगीं। इस प्रकार मेस्मेर की इस विचित्र पद्धति ने अत्यल्प समय में ही अधिक से अधिक मनुष्यों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया। रोगियों की संख्या वृद्धि होने से चिकित्सालय का स्थान संकीर्ण जंचने पर मेस्मेर ने ‘बुलियन होटल’ नामक तथा मकान भाड़े पर रखा, जहाँ उसने चार बेके यन्त्र एक साथ बैठाये जिनमें एक को गरीब और अपाहिजों के लिये मुफ्त चिकित्सा के नाम पर खोल दिया। पर इतना व्यवस्थित उपाय करने पर भी रोगियों की संख्या और भीड़ में कोई कमी नहीं हुई। तब उसने सबोंडी नाम के राजमार्ग पर एक विशाल वृक्ष द्वारा अपना प्रयोग आजमाने की ठानी। हजारों रोगी मनुष्य उस वृक्ष के समीप जाकर उसकी शाखाओं से लटकी हुई रस्सियों को पकड़ कर अपने-अपने योग की निवृत्ति के लिये घण्टों प्रयोग में सम्मिलित रहने लगे। इसके फलस्वरूप कितने ही रोगियों को स्वास्थ्य लाभ हुआ पर मेस्मेर ने अपने पहली चिकित्सा पद्धति के मुकाबले में इस क्रिया को अधिक लाभकारी नहीं पाया। इसलिये पहले पद्धति ही चिकित्सा के लिये ठीक समझी गई।

मेस्मेर की इस उपचार विधि का सिलसिला अधिक समय पर्यन्त स्थायी नहीं रह सका। उसके इस मार्ग में भाँति-भाँति की कठिनाईयाँ उत्पन्न होने लगी। जब वह पेरिस गया था तो उसने वहाँ के विज्ञान मन्दिर के अध्यक्ष और सरकारी औषधालयों के अधिकारियों से अपने प्रयोगों के विषय में अनुसंधान करने की अपील की थी। परन्तु अनुसन्धान कार्य के लिये मेस्मेर ने जो शर्तें रखी थीं वह अन्वेषकों को स्वीकार नहीं हुईं-इससे वह क्रुद्ध होकर वहाँ से चला गया। इसके कुछ दिनों बाद मोश्योर डीवोजेम्स की अध्यक्षता में एक दूसरी समिति ने अनुसन्धान कार्य आरम्भ किया जिसके अधिकाँश सभासद मेस्मेर के निपट विरोधी थे। अतः समिति ने बिना कोई संगीन जाँच पड़ताल के अपना कार्य समाप्त कर दिया और मेस्मेर को यह धमकी दी कि वह अपनी प्रणालियों में शीघ्रता से सुधार करे अन्यथा उसका सरकारी प्रमाण पत्र उससे छीन लिया जायेगा। इन कारणों से अन्त में मेस्मेर को फ्रांस की भूमि त्याग करने के लिये बाध्य होना पड़ा। उसने फ्रांस सरकार के सामने यह शर्त रखी कि वह उसे 20000 फ्रेंक की पेन्शन देना स्वीकार करे तो वह फ्रांस में रह सकता है।

मेस्मेर कुछ दिनों तक ही फ्रांस के बाहर रहा होगा कि उसके अनुयायियों ने उसकी लोभी मनोवृत्ति का अनुभव कर उसके एक भाषण के लिये 10000 लुई का चन्दा एकत्रित कर उसे पुनः फ्राँस बुला लिया। इस अवसर पर मेस्मेर ने अपने भाषणों में गुप्त शोध पर कोई विशेष प्रकाश न डालते हुये जो विवरण पेश किया उससे उसके अनुयायियों में फूट पड़ गई। अन्त में फ्राँस सरकार ने मध्यस्थता स्वीकार की और सन् 1784 में मैस्मरेजम के सम्बन्ध में सरकारी तौर पर जाँच करने के लिये एक कमीशन बैठा। जिसने अपनी खोज के बाद निर्णय किया कि “(मैग्नेटिज्म) आकर्षण शक्ति, अनुकरण, कल्पना और संसर्ग के परिणाम से उत्पन्न होती है और यह अभ्यास साध्य है।” कमीशन का यह निर्णय प्रकाशित होने पर मेस्मेर फ्रांस छोड़कर जर्मनी चला आया। यहाँ उसने अपना शेष जीवन किस प्रकार व्यतीत किया इसका वृत्तांत आज तक अप्राप्य है। अन्त में सन् 1815 के लगभग मैस्मरेजम के जनक मेस्मेर का 81 वर्ष की उतरती अवस्था में निज जन्म भूमि जर्मनी में देहावसान हुआ। इस तरह मेस्मेर की जीवन लीला सम्बन्धी ऐतिहासिक धुँधली स्मृतियाँ यहाँ समाप्त होती हैं। पर मैस्मरेजम के भूतल व्यापी प्रचार को देखते हुये सिद्धान्त रूप से ये आज भी जीवित हैं और इस विद्या के अनुरागियों का पथप्रदर्शन करा रहे हैं।


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