मैस्मरेजम की सिद्धियाँ

January 1944

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मैस्मरेजम का अभ्यासी त्राटक और प्राणायाम द्वारा अपनी आत्मिक शक्तियों को विकसित करके कुछ और भी दिव्य लाभ प्राप्त कर सकता है। उनका संक्षिप्त उल्लेख नीचे किया जाता है।

(1) दूरस्थ व्यक्ति पर प्रभाव-प्रेरणा।

किसी को सामने बिठा कर उस पर मैस्मरेजम प्रयोग करने की विधि पीछे बताई जा चुकी है। यह प्रयोग दूर रहने वाले व्यक्ति पर भी हो सकता है। सूक्ष्म शक्ति के लिए दूरी का कोई प्रश्न नहीं है। प्रकाश एक सैकिण्ड में जितने मील चलता है किन्तु विचारों की गति तो उससे भी अनेक गुनी तीव्र है। इसलिए दो व्यक्तियों के दूर होते हुए भी आत्म शक्ति का प्रयोग संभव है।

जिस व्यक्ति पर प्रभाव प्रेरणा करनी हो उसकी कोई ऐसी वस्तु लेनी चाहिए जो उसके शरीर से बहुत काल तक संबन्धित रही हो। योरोपीय प्रयोक्ता इस कार्य के लिए रुमाल मंगाया करते हैं क्योंकि वह छोटा वस्त्र होते हुए भी शरीर के स्पर्श में बार बार आता है। भारतीय तान्त्रिक नख या बालों को अधिक काम की वस्तु मानते हैं। फोटो, वस्त्र, आभूषण, उसी के हाथ का लिखा हुआ कागज आदि भी काम दे सकते हैं जिन वस्तुओं का मनुष्य के शरीर से बार बार स्पर्श होता है उनमें उसके कुछ शारीरिक विद्युत कण चिपके रह जाते हैं, यह कण पूर्ण रूप से सम्बन्ध विच्छिन्न नहीं होते। माता के शरीर का कुछ भाग पुत्र में होता है, दूरस्थ पुत्र पर विपत्ति आने पर माता का दिल धड़कने लगता है कारण यह है कि पुत्र शरीर में जो विक्षोभ उत्पन्न होता है उसकी अनुभूत पूर्व सम्बन्धित माता के शरीर तक पहुँचती है। इस प्रकार नख, देश, वस्त्र, आदि में चिपके हुए कणों पर जो प्रयोग किया जाता है उसका प्रभाव पूर्व सम्बन्धित शरीर पर उस व्यक्ति पर भी होता है।

एकान्त स्थान में प्राणाकर्षण क्रिया करके अपने आत्मबल को सतेज कर लीजिए। जिस व्यक्ति के ऊपर प्रभाव प्रेरणा करनी है उसके नख, केश, वस्त्र, या लिखा हुआ पत्र आदि सामने रखिए और उस पर ऐसी दृष्टि जमाइए मानो त्राटक का अभ्यास कर रहे हों। मन में भावना कीजिए कि यह वस्तु जो रखी हुई है मानो साक्षात यह मनुष्य ही बैठा हुआ है। जिस प्रकार सामने बैठे हुए मनुष्य के ऊपर दृष्टिपात, आदेश एवं मार्जन द्वारा प्रयोग किया जाता है वैसे ही उस वस्तु पर कीजिए। स्मरण रखिए यह प्रयोग कल्याण के लिए उचित ढंग का होना चाहिए हानिकारक या अनुचित मार्ग पर ले जाना वाला प्रयोग करने के लिए हम अपने पाठकों को कड़ी मनाही करते हैं।

इस प्रकार किये हुए प्रयोग दूर रहने वाले व्यक्ति पर असाधारण प्रभाव डालते हैं और उसे इच्छानुकूल कार्य करने के लिए विवश करते हैं। प्रतिदिन एक बार प्रातःकाल प्रयोग करना चाहिये अधिक से अधिक दो बार संध्या को भी किया जा सकता है। कुछ दिनों लगातार जारी रखने से इच्छित फल प्राप्त होता है।

(2) दूसरों के कुप्रयोग से बचाव

ऐसा भी होता है कि कोई दुष्टात्मा जीवित या मृत व्यक्ति दूसरों को हानि पहुँचाने के अदृश्य प्रयत्न करते हैं। इससे बीमारी, पीड़ा, कलह, मतिभ्रम, चित्त उचटना, भय आदि उत्पन्न होकर मनुष्य की कार्य शक्ति, बुद्धिमत्ता को नष्ट कर डालते हैं।

इस प्रकार के कुप्रभाव को दूर करने के लिये अपने चारों ओर एक प्रकार का घेरा डालने की आवश्यकता होती है। रामचन्द्रजी जब वन में सीता को अकेली छोड़ कर जाया करते थे तो कुटी के चारों ओर एक रेखा खींच कर घेरा बना जाते थे, इस घेरे के अन्दर ऐसा आत्मिक प्रभाव रहता था कि अन्दर किसी हानिकर तत्व का प्रवेश नहीं हो सकता है। रावण जब सीता को चुराने गया तो वह घेरे के अन्दर न घुस सका, किसी प्रकार बहका कर उसने सीता को रेखा से बाहर बुलाया तब उन्हें हरण कर सका।

योग शास्त्र की भाषा में इस घेरे को ‘कवच’ कहते हैं। कवच एक ऐसा धातु मिश्रित कपड़ा होता है जिसे पहन कर योद्धा लोग लड़ने जाते हैं, उस कपड़े पर शत्रु के हथियारों का प्रभाव नहीं होता। आत्म शक्ति युक्त कवच का भी ऐसा ही प्रभाव है। जब संभावना हो कि कोई अनिष्ट, प्रभाव अपने ऊपर किया जा रहा है तो निम्न उपाय करके कवच धारण कर लेना चाहिए।

(1) एकान्त स्थान में स्वस्थ चित्त होकर मेरुदंड को सीधा रखते हुए पद्मासन से पूर्व को मुँह करके बैठिए। फेफड़ों में भरी हुई साँस को धीरे धीरे बाहर निकालिए और भावना करते जाइए कि दूसरे के अनिष्ट कर प्रभाव साँस के साथ बाहर निकल रहे हैं। जब साँस पूरी तरह बाहर निकल जाए तो साँस खींचना आरंभ कीजिए और भावना कीजिए कि पवन देवता अपने पुत्र हनुमान जी के साथ शरीर में प्रवेश कर रहे हैं। साँस को पूरी तरह खींच लेने पर कुछ देर उसे भीतर ही रोकिये और भावना कीजिए कि बजरंगी पवन पुत्र मेरे शरीर में भरे हुए हैं उनके प्रभाव से सारे कुप्रभाव भागे जा रहे हैं। इस भावना से कई बार प्राणायाम कीजिए।

(2) प्राणायाम के बाद नेत्र बन्द कर लीजिए और अपने तेजोबलम (ह्रह्वह्ड्ड) का ध्यान कीजिए। शरीर के चारों ओर कुछ दूर तक एक प्रकाश फैला रहता है इसे तेजो बलम कहते हैं। भावना कीजिए कि “आप सूर्य के समान तेजस्वी हैं और आपकी किरणें दूर दूर तक घेरे के रूप में फैली हुई हैं। इस घेरे में बहुत तेज है, कोई भी बाह्य कुप्रभाव इसके अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता।” इस ध्यान को श्रद्धापूर्वक अधिक समय तक कीजिए।

(3) जब ऐसी आशंका हो और कर्म करा डालिए, तेल लगाकर गरम पानी से स्नान कीजिए यज्ञोपवीत बदलिए सारे कपड़े उतार कर धो डालिए ओर धुले हुए कपड़े पहन लीजिए, उपवास रखिए और एक हजार गायत्री मंत्र जप कीजिए। देव दर्शन कीजिए और यथा शक्ति कुछ दान कीजिए।

(4) किसी आध्यात्मिक पुरुष से अभिमंत्रित जल ग्रहण करिए, विभूति, रक्षा सूत्र, एवं कवच (ताबीज) धारण करिए।

(5) यदि किसी दूसरे को कुप्रभाव से बचाना हो तो उसे उपरोक्त तीन उपाय करने का आदेश करना चाहिए और इच्छा शक्तिपूर्वक गायत्री मंत्र से जल या भस्म मंत्रित करके उसे देना चाहिए। बीसा यंत्र या ॐ का अक्षर रक्षा भावना से पवित्रता पूर्वक लिखकर उसे धारण करा देना चाहिए।

इन उपायों से दूसरों द्वारा अपने ऊपर किये हुए कुप्रयोगों का शमन होता है, और वे कुकर्म लौट कर प्रयोग करने वाले के उपर ही पड़ते हैं।

(3) दूर दर्शन

कौरव पाण्डव युद्ध का सारा दृश्य राज महल में बैठे हुए संजय देखा करते थे, और उसे धृतराष्ट्र, को सुनाया करते थे। ऐसी पूर्णावस्था तो विशेष प्रयत्न साध्य है परन्तु इस दिशा में थोड़ी बहुत सफलता मैस्मरेजम के अभ्यासी भी कर सकते हैं। दूर स्थानों पर होने वाली हलचलों का बहुत हद तक आभास प्राप्त कर सकते हैं।

(1) बिलकुल शान्त, कोलाहल रहित एकान्त स्नान में नेत्र बन्द करके बैठिए। मन में से एकोंएक संकल्पों रहित कर दीजिए, सारी चंचलता हटाइए और अपनी निज की बातों को बिलकुल भुला दीजिए। मानों हमें कुछ विचार या कार्य है ही नहीं। इस संकल्प रहित अवस्था को प्राप्त करने में इस पन्द्रह मिनट लगाइए।

(2) जब चित्त शान्त हो जाए तो उस स्थान का ध्यान कीजिए जहाँ के दृश्य आप देखना चाहते हैं। उस स्थान का ठीक ठीक कीजिए, हर वस्तु को गौर से देखिए। उस समय वहाँ जो कुछ कार्य हो रहे होंगे दृष्टिगोचर होंगे। आरम्भ में कुछ त्रुटि रहती है परन्तु धीरे धीरे जब एकाग्रता बढ़ती है और मन इधर उधर नहीं उछलता तो यह त्रुटियाँ घटने लगती हैं और ‘दूर दर्शन’ की सिद्धि प्राप्त होती जाती है।

(4) भविष्य-ज्ञान

(1) अपने आपको पूर्णतया शिथिल कर दीजिए। शरीर में से अपने को पृथक अनुभव कीजिए। अंगूठे के बराबर आत्मा की ज्योति का ध्यान कीजिए। निर्विकार, निर्लिप्त, शुद्ध बुद्ध, मुक्त, गुणों से युक्त आत्मा अपने को अनुभव कीजिए।

(2) इस तेज स्वरूप आत्मा को ऊँचा, ऊपर आकाश में अवस्थित कीजिए। वहाँ से अमुक व्यक्ति, देश या कार्य के ऊपर दृष्टिपात कीजिए दिखाई देगा कि उसके आगे पीछे एक विशेष वर्ण का धुआँ सा उड़ता चलता है। यह धुआँ किस रंग का है इसे बारीकी के साथ पहचानिए।

(3) जिसके आस पास काला, घना, भयानक कुहरा सा उड़ता दिखाई दे उसका भविष्य अन्धकारमय अनिष्ट सूचक समझना चाहिए, जिसके चारों ओर श्वेत, स्वच्छ, हलका, कुहरा सा छाया हो इसका भविष्य उज्ज्वल समझना चाहिए।

(4) अधिक दिनों के अभ्यास से ध्यान करने पर भविष्य में होने वाली घटनाओं के दृश्य भी दृष्टिगोचर होते हैं जिनसे जाना जा सकता है कि इस व्यक्ति या कार्य का भविष्य कैसा होगा।

(5) व्यक्तित्व की पहचान।

कौन व्यक्ति कैसे आचरण और विचार का है इसकी जानकारी भी आत्मिक अभ्यास द्वारा प्राप्त की जा सकती है। वह इस प्रकार है।

(1) जिस मनुष्य का व्यक्तित्व जानना है दस सेकेंड तक उसकी बाँई आँख की पुतली पर त्राटक कीजिए। इस पश्चात् दस सेकेंड के लिए आंखें बंद कर लीजिए।

(2) आंखें बन्द करके सामने वाले व्यक्ति के चेहरे का ध्यान कीजिए। आपको किन्हीं खास रंग की धज्जियाँ सी उसके चेहरे के आस पास उड़ती हुई दृष्टिगोचर होंगी।

(3) इन रंगों के द्वारा इस प्रकार का परिणाम निकाला जा सकता है। सफेद रंग-सच्चा ईमानदार। मटीला-चालाक। खाकी-वचन का पालन करने वाला। गुलाबी-पेट का साफ । लाल-क्रोधी। हरा-शान्त स्थिर। पीला-पुरुषार्थी, बहादुर। नारंगी-अभिमानी। लीला-अस्थिर। बैंगनी-स्वार्थी। काला-निर्दय, धोखेबाज। सुनहरी-दिव्य स्वभाव। मिश्रित रंग-कूट नीतिज्ञ। यदि एक साथ कई रंग मिश्रित हों तो मिश्रित गुण समझने चाहिए।

(4) सामने वाले व्यक्ति के चेहरे पर गम्भीरतापूर्वक नजर जमाइए और देखिए कि इससे आपके मन पर किस प्रकार की छाप पड़ती है। स्वच्छ मन में जैसी श्रद्धा या आशंका उत्पन्न होती है प्रायः वैसा ही सामने वाले का चरित्र तथा स्वभाव निकलता है।

(6) संदेश पहुँचाना।

बिना टेलीफोन या रेडियो के भी एक मनुष्य दूसरे तक अपने विचार पहुँचा सकता है। इस विद्या को यूरोपीय योगी ‘टेलीपैथी’ कहते हैं। इस विद्या का अभ्यास इस प्रकार करना चाहिए।

(1) एक समान विचार के मनुष्य एक ही समय नियत करके अपने अपने स्थान पर एकान्त स्थान में शान्त चित्त से बैठा करें।

(2) आरम्भ में पाँच मिनट पहला व्यक्ति अपना संदेश भेजेगा और दूसरा सुनेगा। बात में दूसरा व्यक्ति पाँच मिनट संदेश देगा और पहला सुनेगा। पहला कौन, दूसरा कौन यह क्रम पहले ही स्नाश्वेत कर लेना चाहिए।

(3) संदेश देने वाला नेत्र बन्द करके दूसरे मनुष्य का ध्यान करे और उसे सामने बैठा हुआ अनुभव करते हुए मन ही मन अपनी बात कहे। जो बात कही जाए उसका एक एक शब्द स्पष्टता और गम्भीरता युक्त होना चाहिये। शब्दों को मुख से उच्चारण करने की आवश्यकता नहीं है। मौनभाव से ही यह सब होना चाहिए।

(4) दूसरा व्यक्ति आरम्भ के नियत समय में पहले व्यक्ति का नेत्र बन्द करके ध्यान करे और मुख की तरफ गम्भीरतापूर्वक देखे कि वह क्या भाव प्रकट कर रहा है। जो भाव उसकी मुख मुद्रा से समझ में आवे उन्हें हृदयंगम कर ले।

(5) इसी प्रकार पाँच मिनट बाद दूसरा व्यक्ति संदेश भेजे और पहला उसे ग्रहण करे।

यह अभ्यास ब्राह्ममुहूर्त में अच्छा होता है। दोनों अभ्यासी, अपने अभ्यासों से निवृत्त होकर आपस में मिला करें और विचार किया करें कि कितने अंशों में सफलता मिली। आरम्भ में दस प्रतिशत सफलता मिलती है। फिर धीरे धीरे उन्नति होने लगती है। आधी बातें ठीक निकलें तो इसे अच्छी सफलता समझना चाहिये। फिर बिना समय नियत किये भी संदेश भेजे जा सकते हैं और सतत् प्रयत्न से पूर्ण सिद्धि भी प्राप्त हो सकती है।

(7) दूसरों के मन की बात जानना

(1) ध्यानस्थ होकर अपनी मनोभूमि को बिलकुल खाली, नीले आकाश की तरह शून्य देखो। जिस व्यक्ति के मन की बात जाननी है उसकी अकेली मूर्ति उस अखिल नीले आकाश में स्थित देखो अर्थात् ऐसा अनुभव करो कि सारा विश्व नीला आकाश मात्र है और उस आकाश में अमुक व्यक्ति के अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है।

(2) एकटक होकर उस व्यक्ति की प्रतिमा की ओर ध्यान लगाकर देखो। कुछ क्षण में वह व्यक्ति अपने भाव और विचार संकेतों द्वारा तथा मुँह खोलकर बताता हुआ दृष्टिगोचर होगा।

(3) इस प्राप्त हुए संदेश द्वारा दूसरों के मन की बात जानी जा सकती है।

(8) पीड़ा दूर करना।

दाँत, सिर, पसली, जोड़ आदि के दर्द, बिच्छू, ततैया, साँप आदि जहरीले जानवरों के काट लेने का दर्द, उन्माद, आवेश, भूतबाधा, भय, आदि की मानसिक पीड़ा के लिए दुःख निवारण की दृढ़ इच्छा करते हुए, गायत्री मन्त्र कर से जल अभिमन्त्रित करके पिलाना चाहिए। शुद्ध भस्म को मंत्रित कर के उस स्थान से लगा देना चाहिए और पीड़ित स्थान पर हाथ फेरना तथा मार्जन करना चाहिए। ऐसा करने से पीड़ा को बहुत शीघ्र आराम होता है।

(9) शक्ति-पात।

आध्यात्म विद्या के ऊंचे अभ्यासी अपनी शक्ति को सामने वाले व्यक्ति पर असाधारण रूप से एक दम गिरा सकते हैं। इससे उसका भीतरी जीवन बिलकुल उलट पुलट हो जाता है, स्वभाव, विचार और संस्कार दूसरे ही ढांचे में ढल जाते हैं। यह मैस्मरेजम का ऊँचे दर्जे का प्रयोग है। साधारण प्रयोग का विशेष असर तो सिर्फ उतनी ही देर रहता है जब तक कि तन्द्रा रहती है। जागृत होने पर प्रभाव कम हो जाता है, किन्तु शक्तिपात का प्रभाव स्थायी पड़ता है और एक ही बार में प्रयोग से मनुष्य की मानसिक स्थिति बदल जाती है। इस प्रयोग को ग्रहण करते समय कँपकँपी आ जाती है, झटके से लगते हैं और अवर्णनीय विचित्र मनोदशा हो जाती है। सच्चे, सदाचारी, तपस्वी और खरे साधक ही शक्तिपात कर सकते हैं।

उपरोक्त पंक्तियों में जिन 9 सिद्धियों का वर्णन किया है वे आरम्भ में ही किसी को पूर्ण रीति से प्राप्त नहीं हो जाती। बहुत समय तक निरंतर अभ्यास करते रहने से सफलता की मात्रा धीरे धीरे बढ़ती जाती है और एक दिन साधक आशातीत सिद्धि प्राप्त कर लेता है।


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