कर्त्तव्य की पुकार

January 1940

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कर्त्तव्य की पुकार

(ले. महात्मा गाँधी)

इस प्रकार के विचार मनुष्य को हिला डालते हैं और आश्चर्य में डाल देते हैं कि ‘‘मैं जवाबदार हूँ ’’ ‘‘यह मेरा कर्त्तव्य है’’ हमारे कामों में इस प्रकार की गुप्त आवाज सदा आती रहती है कि ‘‘हे मानव, यह कार्य तेरा है, तुझे स्वयं जय अथवा पराजय प्राप्त करना है, तेरे जैसा तू ही है, क्योंकि प्रकृति ने एक सरीखी दो वस्तुऐं कही नहीं बनाई। तेरा जो कर्तव्य है उसे तू ही नहीं करेगा तो संसार के हिसाब के आँकड़े में यह भूल सदा ही होती रहेगी।’’

आप सवाल करेंगे कि कौन सा कार्य मेरे करने के लिये है? कोई यह कह कर निश्चिन्त बैठा रहेगा कि मैं परमात्मा की ज्योति हूँ। दूसरा कहेगा, अपने पड़ोसी के साथ सहानुभूति रखनी चाहिए और उसके साथ भाई जैसा व्यवहार करना चाहिए। तीसरा कहेगा माता- पिता की सेवा करनी चाहिए, स्त्री, बाल- बच्चों की सँभाल रखनी चाहिए और भाई- बहिन तथा मित्रों के साथ बराबर का व्यवहार करना चाहिए, परन्तु इन सब गुणों में मेरे संपूर्ण गुणों का श्रेष्ठ भाग यह है कि मुझे स्वयं अपने लिए इसी प्रकार का आचरण करना चाहिए। जब तक मैं स्वयं अपने को न पहचान लूं, तब तक दूसरा कैसे पहचाना जा सकता है? और जिसे मैं पहचानता ही नहीं उसके लिए सम्मान कैसे व्यक्त किया जा सकता है? कुछ लोग यह कहते है कि मनुष्य को दूसरों के साथ व्यवहार करते समय ठीक तरह बर्ताव करना चाहिए। परन्तु जब तक हमें किसी के साथ काम नहीं पड़ता, तब तक हम अपनी इच्छा के अनुसार जैसा हमें अच्छा लगे वैसा बर्ताव कर सकते हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं, उनका यह कहना बिना समझे बुझे है। क्योंकि दुनियाँ में रह कर कोई भी मनुष्य दूसरे को हानि पहुँचाये बिना स्वच्छन्दता के साथ बर्ताव नहीं कर सकता।

अब हमें देखना चाहिए कि हमारा अपने आपके प्रति क्या कर्तव्य है? बात यह है कि हमारे एकान्त के बर्ताव की हमारे सिवा किसी दूसरे को खबर नहीं होती। उस बर्ताव का असर हम पर होता है, और इसलिए हम उसके जवाबदार हैं। इतना ही नहीं किन्तु उससे दूसरों के ऊपर भी असर होता है, उसके लिए भी हमीं जवाबदार हैं। अतएव प्रत्येक मनुष्य को अपने जोश के ऊपर दबाव रखना चाहिए और सदा अपने शरीर और मन को स्वच्छ रखना चाहिए। एक महापुरुष कहता है कि ‘प्रत्येक मनुष्य की निजी चाल ढाल मुझे बतलाई जाय, तो मैं देखकर तुरंत ही कह दूँगा कि वह मनुष्य कैसा है, और कैसा होगा।’ ऐसी ही और भी कई बातें हैं जिसके कारण हमें अपनी इच्छाओं पर अंकुश रखने की आवश्यकता है। हमें शराब न पीनी चाहिए, जुआ न खेलना चाहिए, व्यभिचार न करना चाहिए आदि। अन्यथा इन बातों का परिणाम यह होगा कि हम शक्ति हीन होकर अपनी इज्जत व आबरू खो बैठेंगे। जो मनुष्य विषयों से दूर रहकर अपने शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की रखवाली, देख- रेख नहीं करता वह बाहर के दूसरे कामों में शोभा नहीं पा सकता। सफलता लाभ नहीं कर सकता।

इस प्रकार विचार करता हुआ मनुष्य अपनी अन्तरंग की वृत्तियों को साफ, निर्मल, पवित्र रखकर विशेष विचार करता है कि इन वृत्तियों का उपयोग किस रूप में करना चाहिए? जीवन का कुछ ध्येय अवश्य होना चाहिए। यदि जीवन के कर्तव्य की शोध करके उस ओर हम प्रयत्न न करें तो बिना पतवार के जहाज की तरह हम अथाह समुद्र में गोते ही खाते रहेंगे। सबसे श्रेष्ठ कर्तव्य यह है कि हम मनुष्य जाति की सेवा करें और उसकी स्थिति को सुधारने में भाग लें। इसमें ईश्वर की सच्ची भक्ति भी आ जाती है। जो मनुष्य ईश्वर के कामों को करता है वही सच्चा ईश्वरीय मनुष्य है। वैसे ईश्वर का नाम लेने वाले ढोंगी, धूर्त तो हजारों फिरा करते हैं। तोता ईश्वर का नाम लेना सीख लेता है, परन्तु इससे उसे कोई ईश्वरीय नहीं कहता। मनुष्य जाति को अच्छी स्थिति में लाने का नियम सब लोग पाल सकते हैं। व्यापारी लोग इस पद्धति पर व्यापार कर सकते हैं। वकील लोग ऐसी पद्धति रखकर अपनी वकालतें कर सकते हैं। इस प्रकार के नियम कायम करने वाला मनुष्य कभी नीति धर्म से च्युत नहीं होता, क्योंकि उससे च्युत होकर चलने पर मानव जाति को उन्नति के सोपान पर चढ़ने की धारणा पूरी नहीं पड़ सकती।

इन बातों का सार यह है कि जो मनुष्य स्वयं शुद्ध है, किसी से द्वेष नहीं करता, किसी के साथ खोटा लाभ नहीं उठाता और सदा मन को पवित्र रखकर आचरण करता है वही मनुष्य धर्मात्मा है, वही धनवान है। ऐसे ही लोगों से मनुष्य जाति की सेवा हो सकती है। जिस दिया सलाई में आग न हो, वह दूसरी लकड़ियों को कैसे सुलगा सकती है? जो मनुष्य स्वयं नीति का पालन नहीं करता, वह दूसरों को क्या सिखा सकता है? जो स्वयं डूब रहा है, वह दूसरे को कैसे निकाल सकता है? नीति का आचरण करने वाला मनुष्य यह सवाल कभी नहीं उठाता कि दुनियाँ की सेवा किस तरह करनी चाहिए? क्योंकि यह सवाल उसे पैदा ही नहीं होता। मेथ्यु आरनल्ड कहते है ‘‘एक समय था जब मैं अपने मित्र के लिए आरोग्य, विजय और कीर्ति की इच्छा करता था, परन्तु अब वैसी इच्छा नहीं करता। कारण यह है कि इन बातों के होने या न होने पर मेरे मित्र के सुख दुख का आधार नहीं है। इसलिए अब मैं सदा यह इच्छा करता रहता हूँ कि उसकी नीति हमेशा अचल रहे, वह अपने नीति पथ से कभी विचलित न हो’’ एमरसन कहते है ‘‘अच्छे मनुष्यों का दुख भी उनके लिए सुख है और बुरे मनुष्यों का धन और उनकी कीर्ति भी उनके लिए तथा संसार के लिए दुःख रूप है।’’


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