चिता पर से (kavita)

January 1940

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चिता पर से (कविता)

ले. श्री दरबारीलाल जी सत्यभक्त

ज्वालाओं का जाल बिछा है, है पर शान्ति निकेतन।
जलती हैं चिन्तायें सारी, शान्त यहाँ है तन, मन।।

अब न मित्र का मोह यहाँ है, है न शत्रु का भी भय।
हूँ न किसी पर सदय हृदय, अब हूँ न किसी पर निर्दय।।

जीवन में क्षण भर भी ऐसी, नींद नहीं ले पाया।
सोता था मैं नचता था मन, माया में भर पाया।।

इसका लेना उसका देना, यह मेरा वह तेरा।
करता था पर रहा न कुछ अब, लगा चिता पर डेरा।।

फूलों की शय्या पर साया, धन जाड़ा दिल तोड़ा।
भूला रहा काठ की शय्या, चार जनां का घोड़ा।।

इस हराया, उस हराया, बना रहा अभिमानी।
पर यह जीवन हार रहा था, साधी बात न जानी।।

इसका लूटा, उसका खाया, अति लालच के मार।
लेकिन हाथ न कुछ भी आया, जाता हाथ पसार।।

मानव का कर्त्तव्य भुलाया यों ही दिवस बिताये।
बहती थी गंगा पर मैन, हाथ नहीं धो पाये।।

खला भद्द खेल, खेलका, मजा न कुछ भी आया।
सूत्रधार यमराज अचानक, आया खल मिटाया।।

चला साथ पर चला न कुछ भी, साथ न था कुछ लाया।
उस मिट्टी में ही जाता हूँ, जिस मिट्टी से आया।।

सत्य सन्देश से


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