जहाँ चाह, वहाँ राह

January 1940

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(ले.-श्री दयासिन्धु जी पाण्डेय शास्त्री)

जिस प्रकार राजा के हाथ में सत्ता होती है जिस प्रकार इंजन की ताकत से अन्य यंत्र चलते हैं। उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क की शक्ति-मनोबल-से सारे शरीर का कार्य संचालन होता। मस्तिष्क के पिछले भाग में रहने वाले अंतर्मन के बल से हृदय, फुफ्फुस, आमाशय, आँतें आदि अवयव दिन−रात अपने काम में लगे रहते हैं और उस गति विधि का हमें प्रत्यक्षतः भान भी नहीं हो पाता। आगे का मस्तिष्क-बाह्ममन-सोच विचार करने का काम करता है। शरीर के सब अंग उसका कहना भी मानते हैं। ज्यों ही मन में आया कि सामने पड़ी हुई पुस्तक को उठावें त्यों ही हाथ आगे बढ़ जाता है और पुस्तक को पकड़ कर उठा लेता है। मन में जैसे विचार होते हैं शरीर में उसके लक्षण साफ प्रकट होने लगते हैं। एक मनोविज्ञान शास्त्री का कहना है कि किसी आदमी की निजी चाल ढाल और रूप रेखा मुझे बताओ मैं तुम्हें बता दूँगा कि वह क्या सोचता रहता है।

निस्सन्देह हमारी आकृति मन की छाया मात्र है। विचारों का प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से चेहरे पर झलकता है। भयभीत होने पर मुँह पीला पड़ जाता है, क्रोध आने पर आँखें लाल हो जाती हैं, स्वप्न से कामेच्छा होने पर स्वप्न दोष हो जाता है, स्वप्न में डर लगने या झगड़ा होने पर मुँह से शब्द निकल पड़ते हैं और हाथ पाँव पटकते हैं, कोई उत्साह होने पर शक्ति से अधिक काम करने पर भी थकान नहीं व्यापती, ब्याह शादी में बिना थके चौगुना काम कर लेते हैं, कोई उत्तेजनात्मक बात सुनकर रोग शैया पर से भी उठ खड़े होते हैं। यह मन की शक्ति है। स्वस्थ आदमी दुख का धक्का लगते ही बीमारों जैसा अशक्त हो जाता है। अपने को बीमार समझने वाले लोग सचमुच बीमार पड़ जाते हैं। एक बार एक स्कूल के विद्यार्थियों ने सोचा कि कोई ऐसा उपाय करें जिससे दो−चार दिन की छुट्टी मिले। उन्होंने इसके लिए एक उपाय सोच कर निश्चित कर लिया। अध्यापक ज्यों ही स्कूल में आये त्यों ही एक लड़के ने कहा ‘मास्टर साहब, आपका चेहरा बहुत उतरा हुआ है। क्या कुछ बीमार हैं, मास्टर साहब को आश्चर्य हुआ कि मैं घर से अच्छा खासा आया हूँ यहाँ क्या बात हुई। इतने में दूसरे लड़के ने कहा बुखार चढ़ने की तरह आपकी साँस तेज चल रही है। तीसरे ने उनका शरीर छूकर बहुत गरम बतलाया। चौथे ने दर्पण लाकर सामने रख दिया कि देखिये आपके चेहरे का कैसा हाल हो गया है। अन्य लड़कों ने भी उनके बीमार होने का समर्थन किया अब तो मास्टर साहब के मन में पक्का विश्वास हो गया कि मैं अवश्य बीमार हूँ। कुछ ही देर में सचमुच उन्हें बुखार चढ़ आया और वे स्कूल की छुट्टी करके घर चले गये।

गाँवों की कहावत है कि ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ जो जैसा होना चाहता है वैसा बन जाता हैं। महा पुरुषों के जीवन चरित्रों पर नजर डालिये। क्या परिस्थितियों ने ही उन्हें ऊंचा उठा दिया था? नहीं, जिसने अपने को जैसा बनाना चाहा वह वैसा बन गया। अर्जुन, रावण, राम, कृष्ण, हनुमान, अभिमन्यु, प्रताप, शिवाजी, प्रभृति महापुरुषों में यदि दृढ़ मनोबल न होता तो क्या वे इतने बड़े कार्य कर पाते? आज के महान तानाशाह जिनके डर से दुनिया में खलबली मच रही है, ‘हिटलर’ और ‘मुसोलिनी’ उस दिन अपने बहुत ही गरीब पिताओं के घरों में पैदा हुए थे और अपनी आधी उम्र तक इतना पैसा नहीं कमा पाये थे कि अच्छी तरह अपना खर्च चला लें। नैपोलियन बोनापार्ट एक गरीब के घर में पैदा हुआ था पर उसने वह कर दिखाया जिसे अरबों खरबों की गिनती रखने वाले और उसकी अपेक्षा चौगुना शारीरिक बल रखने वाले नहीं कर सकते महा प्रभु ईशा ने अपने मार्ग में आये हुए पहाड़ से कहा ‘हट जाओ’ वह सचमुच हट गया।

जो कुछ आश्चर्य जनक चीजें हमें दुनिया में दिखाई देती हैं वह मनोबल के ही चमत्कार हैं। मनोबल ही सब प्रकार की सफलता और उन्नति का राज मार्ग है। यह पहले बताया जा चुका हैं कि शरीर शीशे की तरह हैं जो नम के सांचे में तुरन्त ढल जाता है। इच्छा करने पर बाहर की चीजें भी अनुकूल हो जाती हैं। जब आपके मन में उपन्यास पढ़ने की इच्छा होती है तो उपन्यास प्राप्त होते हैं और जब धर्म ग्रन्थों के पढ़ने की लगन लग जाती है तब कहीं न कहीं से धर्म ग्रन्थ भी मिल जाते हैं। कहते हैं कि साँप मारने वाले को साँप अधिक मिलते हैं। चोर को कुतिया मिल रहती है। साधुओं के पास साधुओं और चोरों के पास चोरों का जमघट रहता है। सोने चाँदी आदि धातुओं की बड़ी बड़ी खानें किस प्रकार बनती हैं इसके संबंध में अन्वेषकों का कहना है कि धातुओं के परमाणु सर्वत्र व्याप्त हैं। एक जगह कुछ अधिक परमाणु हुए तो वे अपनी प्रकृति दत्त आकर्षण शक्ति से अपनी जाति के अन्य परमाणुओं को अपनी ओर खींचते हैं। वे जितने अधिक होते जाते हैं उतनी ही उनकी आकर्षण शक्ति बढ़ती जाती है और खान की परमाणु वृद्धि तीव्र जाति से होने लगती है। यही बात हमारी परिस्थितियों के संबंध में है। जिस चीज की हम इच्छा करते हैं उसे प्राप्त करने के अनुकूल सुविधाएं अपने आप हमारी तरफ खिंच आती हैं। चाह होते ही राह दिखाई पड़ने लगती है।

आप पूछेंगे कि कौन आदमी ऐसा है जो धन आरोग्य ऐश्वर्य और यश न चाहता हो फिर सब को वह चीजें प्राप्त क्यों नहीं होतीं? उत्तर यह है कि उनकी चाह ढ़ुल-मुल, कच्ची, संशय युक्त और स्वप्न समान होती है अभी मकान प्राप्त होने का स्वप्न देख रहे हैं तो अभी स्त्री सुख का, अभी राजा बना चाहते हैं तो अभी योगी। ऐसे आदमी को न तो मकान मिलता है न स्त्री। वे न राजा बन पाते हैं न योगी। यह इच्छाशक्ति नहीं यह तो शेखचिल्ली पन है जो अभी मुर्गियाँ खरीद रहा था और अभी शादी करने लगा।

मनोबल या इच्छाशक्ति वह हैं जब एक ही बात पर सारे विचार केन्द्री भूत हो जाएं उसी को प्राप्त करने की सच्ची लगन लग जाय। सन्देह कच्चापन या संकल्प विकल्प इसमें न होने चाहिए। गीता कहती है कि ‘संशयात्मा विनश्यति’ अर्थात् संशय करने वाला नष्ट हो जाता है। पहले किसी काम के हानि लाभ को खूब सोच समझ लिया जाय जब कार्य उचित प्रतीत हो तब उसमें हाथ डालना चाहिये किन्तु किसी काम को करते समय ऐसे संकल्प विकल्प न करते रहना चाहिए कि ‘जाने यह कार्य पूरा होगा या नहीं मुझे सफलता मिलेगी या नहीं, सफलता देने वाला कि निश्चय वह है। जिसकी शक्ति को पहिचान कर नेपोलियन ने कहा था कि ‘असंभव शब्द मूर्खों के कोष में हैं।’ दृढ़ मनोबल और निश्चयात्मक इच्छा शक्ति ही सच्ची चाह है ऐसी चाह के पीछे राह छाया की भाँति दौड़ी फिरती है।


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