एक सरल प्राणायाम

January 1940

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एक सरल प्राणायाम

ले. डॉ. गोविन्द प्रसाद जी कौशिक एच. एम. डी.

योग के आठ अंगों में प्राणायाम का प्रमुख स्थान है। योगाचार्य जानते थे कि बिना शरीर को स्वस्थ रखे कोई भी साधना ठीक प्रकार नहीं हो सकती। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए स्वच्छ वायु, स्वच्छ भोजन और स्वच्छ जल का विधान है। वायु का स्थान सर्वोपरि है, क्योंकि बिना भोजन और जल के कुछ समय तक जीवन टिक सकता है किन्तु वायु के अभाव में क्षण भर भी जीवित रहना कठिन है। अशुद्ध अन्न जल से जितनी हानि होती है अशुद्ध वायु से उससे कहीं अधिक हानि होती है। रोगी आँतों वाला जितने दिन जी सकता है उतने दिन रोगी फेफड़े वाला व्यक्ति नहीं जी सकता। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए फेफड़े को स्वस्थ रखना आवश्यक समझा गया है और उसके लिए प्राणायाम नामक व्यायाम क्रियाओं का आविष्कार किया गया है।

अनेक प्रकार के प्राणायामों पर समयानुसार अगले अंकों में प्रकाश डालने का प्रयत्न करूँगा। इस अंक में तो प्राणायाम की अत्यंत ही सुगम क्रियाओं का उल्लेख करना है जिन्हें बहुधन्धी और कामकाजी आदमी भी बिना किसी कठिनाई के आसानी के साथ हर दशा में कर सके।

हमारे फेफड़े छाती के दोनों ओर मधु मक्खियों के छत्ते के समान फैले हुए हैं। यह अनेक कोष्ठ प्रकोष्ठों में विभाजित हैं और वायु को ग्रहण करना व छोड़ना इनका प्रमुख कार्य है। जिस प्रकार धोंकनी की खाल के चलाने से उसके छेद में हो कर हवा निकलती है, उसी प्रकार फेफड़े की क्रिया द्वारा नाक से साँस आती जाती है। रक्त की शुद्धि वायु द्वारा होती है, इसलिए फेफड़ों की अशुद्धता रक्त की अशुद्धता का कारण बन जाती है।

साधारण तौर से साँस लेते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि वायु शुद्ध और स्वच्छ हो। सील से भरी हुई, सड़ी हुई, बदबूदार, धूलि मिश्रित, धुआँ भरी हुई, गन्दी वायु में साँस लेना बीमारी को निमंत्रण देना है। इसलिए हमारे रहने के घर और काम करने के स्थान ऐसे होने चाहिए जहाँ शुद्ध वायु मिल सके। पौधों की हरियाली के पास रहने का यही तात्पर्य है कि उनके द्वारा छोड़ी हुई प्राणप्रद वायु को ग्रहण करें। यह बात निर्विवाद हो चुकी है कि पौधे गंदी हवा को खींचते और शुद्ध वायु को छोड़ते हैं।

धूम्रपान फेफड़ों के लिए विष का काम करता है। सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू, सुलफा, गाँजा, अफीम आदि का धुआँ फेफड़ों में जाकर विष उत्पन्न करता है, जिससे वे कमजोर होकर निकम्मे हो जाते हैं और रोगों के प्रवेश करने का मार्ग आसान हो जाता है।

गहरी साँस लेना फेफड़ों का अच्छा व्यायाम है। दिन भर कठोर काम करने वाले जिनकी साँस कुछ तेज चलती है, अपने फेफड़ों को स्वस्थ और सबल बनाये रहते हैं। किन्तु जिनका कार्यक्रम कुर्सी, मेज या गद्दी तकियों पर काम करने का है उनकी साँस उथली चलती है। शरीर को कष्ट न देने वाले ऐसे लोग जिन्हें आराम से पड़े रहना पसंद है, उनकी साँस गहरी कैसे हो सकती है? हलकी साँस लेने से फेफड़े का थोड़ा सा भाग ही काम में आता है शेष भाग निकम्मा और बेकार पड़ा रहता है। उस निकम्मे भाग में पानी बढ़ जाना, सूजन हो जाना, गाठें पड़ जाना, फैल जाना, जख्म हो जाना, अकड़ जाना आदि कई प्रकार के रोग हो जाते हैं। क्षय और दमा के कीटाणु इन बेकार जगहों में ही घुस बैठते है और धीरे- धीरे पनप कर अपना कब्जा जमा देते हैं। अधूरे फेफड़ों में होकर छनी हुई हवा पूरी तरह शुद्ध नहीं हो पाती और यह सब जानते हैं कि अशुद्ध वायु के संसर्ग से रक्त भी अशुद्ध हो जाता है। गहरी सांस लेना इन सब रोगों की जड़ को न जमने देना और फेफड़ों को बलवान बनाना है।

गहरी सांस लेने का अभ्यास डालना बहुत हितकर है। प्रातः काल स्वच्छ और हरियाली युक्त स्थानों में वायु सेवन के लिए जाना फेफड़ों का अच्छा व्यायाम है। सूर्योदय से पूर्व टहलने के लिए चल पड़ना चाहिए और कम से कम दो मील जाकर लौटना चाहिए। कमर झुकाकर मुर्दे की तरह पांव रखते हुए किसी प्रकार इस बेगार को भुगते देने से कुछ लाभ नहीं होगा। कमर को सीधी करके, छाती को सीधी तनी हुई रखकर घंटे में कम से कम चार, पाँच मील की चाल से चलना चाहिए। दोनों हाथों को चलाने के साथ आगे पीछे खूब झुलाते जाना चाहिए जिससे छाती, फेफड़े और स्नायु जाल की कसरत होती चले। चलने की गति एक सी रखना उचित है। दो फर्लांग तेज चले, दो फर्लांग बिलकुल धीमें पड़् गये यह ठीक नहीं। समय या स्थानाभाव के कारण अधिक दूर टहलना न हो सके, तो कुछ अधिक तेज चाल से सरपट चलना चाहिए। इसे दौड़ना कह सकते हैं पर बेतहाशा इस प्रकार दौड़ना जिससे दम फूल जाय लाभप्रद न होगा। आठ मिनट प्रति मील की गति से तेज सरपट चाल का दौड़ना ही पर्याप्त है। जब साँस तेज चलने लगे और शरीर पर पसीना आ जाय तो दौड़ना बन्द कर देना चाहिए। दौड़ते समय मुट्ठी बाँधकर हाथों को छाती के सामने रखा जाता है।

हमेशा साँस नाक से लेनी चाहिये ।। नाक के बाल द्वारा हवा छनती है और गर्द गुबार नाक के बालों में लग जाता है जब वह आगे चलती है। श्वासनली में होकर फेफड़ों तक जाते- जाते हवा का तापमान ठीक हो जाता है, किन्तु मुँह से साँस लेने पर वह सीधी और बिना छनी हुई फेफड़ों में पहुँचती है और जैसी भी वह सर्द गर्म होती है वैसी ही जा घुसती है। इस सदी गर्मी के असर से फेफड़ों को हानि पहुँचती हैं। टहलने या दौड़ने के समय तो मुँह से साँस लेना और भी बुरा है, क्योंकि साँस की तेजी के कारण वायु फेफड़े में बहुत जल्द आती जाती है, ऐसी दशा में तो तापमान ठीक रखने के लिये बिलकुल ही थोड़ा समय मिलता है। मुँह से साँस लेने वालों को अक्सर जुकाम, छाती का दर्द, खाँसी आदि रोग आ घेरते हैं। जल्दी- जल्दी टहलते समय बातचीत करना भी वर्जित है।

अब एक साधारण प्राणायाम बताते हैं। प्रातःकाल समतल भूमि पर कुछ बिछाकर पालती मारकर बैठ जाइये, हाथों को गोद में रख लीजिये और कमर, छाती, गर्दन तथा शिर को लाठी की तरह एक सीध में कर लीजिये, कोई भाग आगे पीछे की ओर झुका हुआ न रहे। अब नाक द्वारा जोर- जोर से और जल्दी- जल्दी साँस लेना आरम्भ कीजिए। यह श्वाँस- क्रिया उथली न हो, वरन् इतनी गहरी हो कि सारे फेफड़े में पहुँच जाय। इस बात को ध्यान में रख कर तब जल्दी करने का अभ्यास बढ़ाना चाहिए। आरम्भ में अधिक जल्दी न कर सके तो कोई हर्ज नहीं, पर साँस पूरी लेनी चाहिये। अधिक जल्दी की धुन में उथली साँसें लेना ठीक नहीं। यह श्वाँस क्रिया तब तक करनी चाहिये, जब तक साँस की गति खुद तेज न हो जाय। पहले दिन गिन लेना चाहिये कि कितनी साँसों में दम फूलता है। इसके बाद प्रतिदिन पाँच- पाँच साँसें बढ़ाते जाना चाहिये। साधारणतः एक सौ साँसें लेना काफी है। अभ्यास बढ़ने पर अधिक भी बढ़ा सकते हैं। बैठने की ठीक- ठीक सुविधा न हो तो सीधे खड़े होकर भी इस क्रिया को कर सकते हैं। कर चुकने के बाद कुछ मिनट धीरे- धीरे टहलना चाहिये। किसी दूसरे कार्य को तब आरम्भ किया जाय जब साँस की गति स्वाभाविक हो जाय। अनुभव करने पर फेफड़ों के लिये यह सरल प्राणायाम बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ है।


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