मनुष्य का मनोबल

January 1940

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(लेखक-स्वर्गीय श्री स्वामी विवेकानंद जी)

(इंग्लैण्ड में दिए हुए एक भाषण का साराँश)

संसार के इतिहास का निरीक्षण करने से उसमें सब देश और जातियों में प्राप्त होने वाली आश्चर्य कारक बातें मिलेंगी। उन आश्चर्य कारक बातों पर सब देशों के श्रद्धालुओं का विश्वास रहा है। यहाँ सुनी हुई बातों की अपेक्षा मैं अपनी आँखों देखी हुई बातों का ही उल्लेख करूंगा!

एक बार मैंने सुना कि भारत के अमुक शहर में एक महात्मा आये हुए हैं जो मन की बात और भविष्य बताते हैं। मैं कुछ मित्रों सहित उनके पास गया। हम लोगों ने अपने प्रश्न अपनी डायरी में लिख रखे थे। वहाँ पहुँचते ही उन महात्मा ने सारे प्रश्नों को बता दिया और उनके संबन्ध में भविष्य वाणी भी की। इसके बाद उन्होंने कागज के छोटे छोटे टुकड़ों पर कुछ लिख कर हम लोगों को दिया और उन्हें जेबों में रख लेने का आदेश दिया। इधर उधर की बातें होने के कुछ देर बाद उन्होंने कहा आप लोग चाहे जिस भाषा का वाक्य मन में चिन्तन करें मैं उसको बतला दूँगा। हमें मालूम था कि वे संस्कृत अरबी जर्मन आदि भाषाएं नहीं जानते। इसलिए हम लोगों ने प्रथम संस्कृत अरबी और जर्मन भाषा के वाक्य मन में लिये। कुछ देर इधर उधर की बातें होने के बाद उन्होंने कहा कि घंटे भर पहले जो कागज के टुकड़े मैंने आप लोगों को दिये थे उन्हें जेबों से निकाल कर पढ़िये। हमने निकाल कर पढ़ा तो अक्षरशः वही वाक्य लिखे मिले जो हमने मन में सोचे थे। इस पर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। हमें संदेह हुआ कि शायद इनने कोई चालाकी की हो, इस पर हमने फिर जाँच की पर उनके चमत्कार सच्चे ही साबित हुए।

इसी प्रकार के एक चमत्कार करने वाले महात्मा से मिलने मैं हैदराबाद गया। भेंट के बाद एक दिन वे आकर हमारी कोठरी में बैठ गये। वे केवल एक धोती पहने हुए थे जिससे यह संदेह भी व्यर्थ था कि कोई चीज कहीं छिपी होगी। उन्होंने कहा कहिये कौन सी वस्तु ला दूँ? हम लोगों ने विभिन्न देशों में पैदा होने वाले फल माँगे। देखते ही देखते उसी तरह के फलों का उन्होंने ढेर लगा दिया। तोले जाते तो वे फल उन सज्जन के शरीर से चौगुने होते। इन सुस्वादु फलों को सबने खाया। अन्त में उन्होंने ओस की बूँदें पड़े हुए बहुत से गुलाब के फूल हमें दिये।

ऐसी चमत्कारिक बातें हमारे देश की तरह आपके यहाँ भी होती होंगी कुछ बातें नकली भी की जाती हैं पर नकल भी असल की ही होती हैं। यह बातें अविश्वसनीय नहीं होतीं केवल हम उन बातों के असली रहस्य से अनभिज्ञ होते हैं। प्राचीन काल में भारत में ऐसे चमत्कार हजारों होते थे पर अब उतने दिखाई नहीं देते। यह एक मानी हुई बात है कि जिस देश की जन संख्या बढ़ जाती है वहाँ का आध्यात्मिक बल घट जाता है। प्राचीन काल में जब भारत की जनसंख्या कम थी तब वहाँ के निवासियों ने आध्यात्मिक तत्त्व की महत्वपूर्ण खोज करके इस विषय का सर्वांग पूर्ण शास्त्र बनाया था। भारतीय जानते थे कि यह सब चमत्कार प्रकृति के नियमों के अनुकूल ही होते हैं। जो बात हमेशा नहीं दिखाई पड़ती उसे ही चमत्कार कहते हैं। आज जो बातें हमारे दैनिक जीवन में होती हैं एक समय वह भी चमत्कार ही मालूम पड़ती थीं। कुछ लोगों में जन्म से ही आत्म शक्ति विशेष रूप से होती है। अब भी भारत में असंख्य लोग इस शास्त्र का अभ्यास करते हैं।

प्रत्येक मनुष्य का मन, विश्वव्यापी एक ही महामन का अंश है। इसलिए एक मनुष्य के मन का दूसरे के मन से नित्य संबंध है। इसी कारण कहीं एक कोने पर बैठा हुआ आदमी सारे संसार के मनों से संबंध स्थापित कर सकता है। विभिन्न लोगों के मन, विश्वव्यापी महा मन समुद्र की तरंगें हैं उनका आपस में एक दूसरे से सम्बन्धित होना स्वाभाविक ही है।

एक समय एक स्थान पर बैठा हुआ मनुष्य जब विचार करता है, दूसरे समय दूसरे स्थान का दूसरा मनुष्य भी वही विचार करता पाया जाता है। इसका क्या कारण हैं? यह विचार संक्रमण का चमत्कार है। दूसरों के पास अपने विचारों को पहुँचाने और दूसरे के भेजे हुए विचार ग्रहण करने की क्रिया का अन्यास करने से यह सुलभ हो जाती है। जब साधक का अभ्यास बढ़ जाता है तब वह चाहे जितनी दूर अपने विचार पहुँचा सकता है क्योंकि मन की गति अत्यन्त सूक्ष्म है। उसके मार्ग में कोई रुकावट नहीं डाल सकता। मन का संयम योग क्रिया की जड़ है उसके द्वारा हर काम हो सकता है।

मैं व्याख्यान दे रहा हूँ आप सुन रहे हैं, यह भी विचार संक्रमण ही हो रहा है। मैं अपने जड़ विचारों को शब्द के रूप से प्रकट करता हूँ। शब्द आकाश में मिलकर कम्पनों के साथ ध्वनि के रूप में आपके कानों में घुस जाते हैं आप उन्हें कान के भीतरी पर्दे में ग्रहण करके अपने मस्तिष्क में भेजते हैं मस्तिष्क में पहुँच कर वे पुनः अपना पुराना रूप धारण करते हैं तब जाकर आपको उन शब्दों के अर्थ का ज्ञान होता है। मैं अपने विचारों को आप के पास पहुँचा रहा हूँ। इस कार्य में स्वयमेव दो क्रियाएं हो रही हैं। मेरे विचार सूक्ष्म कम्पन का रूप धारण करके फैल रहे हैं और आप लोगों के मस्तिष्कों में प्रवेश करके वे पुनः अपने असली रूप में प्रकट हो रहे हैं। यदि योग शास्त्र के अभ्यास से अपने विचारों को आपके पास पहुँचाना चाहूँ तो कोई बाहरी क्रिया करने की जरूरत न पड़ेगी। मैं अनायास ही अपने सब विचार आपके पास पहुँचा सकूँगा।

संसार का हर पदार्थ हमारे ऊपर अपना अधिकार जमाने का प्रयत्न करता है। हम अपनी चालाक शक्ति के आधे भाग से अपनी रक्षा करते हैं और आधे से संसार के अन्य पदार्थों पर अधिकार करने की कोशिश करते हैं। हमारे स्वभाव, मन, शरीर, भावनाएं बाह्य जगत पर अधिकार जमा रहे हैं। मान लीजिए कोई विद्वान व्यक्ति आप से मिलने आता हैं वह घन्टे दो घन्टे आपसे बात करता हैं। उसकी वाणी मीठी और विचारावली सुन्दर है तो भी आप उसकी बातों से प्रभावित नहीं होते और उसके चले जाने के बाद पहली दशा में आ जाते हैं। फिर कोई व्यक्ति आता है जिसकी वाणी अशुद्ध है और बात चीत भी थोड़ी देर होती है पर आप पर उस विद्वान की अपेक्षा इस व्यक्ति का बहुत असर पड़ता है। इस प्रकार के अनुभव आपको प्रतिदिन होते हैं। इसका क्या कारण है? कारण यह है कि जिस व्यक्ति का अधिक प्रभाव पड़ता है उसमें कुछ विशेष तेज या चुम्बकत्व होता है जिसका प्रभाव दूसरों पर पड़े बिना नहीं रहता। भाषा और विचार तो साधारण उपकरण मात्र हैं। इनसे व्यक्ति की आकर्षणशक्ति को कुछ सहायता मिल जाती है। आदमी को यश अपयश प्राप्त होना भी इसी तेज पर निर्भर है। एक ही प्रकार के उद्योग में एक व्यक्ति को लाभ होता है और दूसरे को हानि। इसका कारण भी व्यक्ति का विशेष तेज है। योगशास्त्र कहता है कि इस आध्यात्म शक्ति के विशेष तेज को हर एक व्यक्ति सम्पादन कर सकता है।

प्राचीन महापुरुषों के चरित्रों पर विचार कीजिए उनको इतना यश अपनी कृतियों के कारण नहीं वरन् व्यक्तिगत तेज के कारण प्राप्त हुआ है। अनेक त्यागी और धुरंधर विद्वान जिनकी योग्यता के सामने आज हमें सिर झुकाना पड़ता है उनके जीवन काल में उन्हें बहुत कम आदर प्राप्त हुआ था। सर्व साधारण पर प्रभाव डालने में बुद्धि एक तिहाई और प्रतिभा दो तिहाई काम करती है। प्रतिभा मुख्य और कृति गौण होती हैं क्योंकि जहाँ प्रतिभा है वहाँ कार्य तो अपने आप होता रहेगा। अन्ततः संसार में कृति का महत्व नहीं किंतु व्यक्ति का है। प्रतिभावान् व्यक्तियों को जादूगर और चलते फिरते विद्युतोत्पादक यंत्र समझना चाहिए वे जहाँ जाएंगे विजय प्राप्त करेंगे। जिस कार्य में हाथ डालेंगे उसी में सफलता पायेंगे। क्यों कि अपनी विद्युत शक्ति से सब जगह चेतना उत्पन्न कर देना उनके लिये कुछ भी कठिन नहीं है।

अभी तक कही हुई बातें अमुक नियम से होती हैं यद्यपि मैं यह नहीं बता सकता, तो भी यह बातें कपोल कल्पित नहीं हैं। क्योंकि व्यवहार में उनका अस्तित्व हम सदैव देखते रहते हैं। जड़ शास्त्रों के नियमों की भाँति इसका कोई नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता। मनुष्य में दिखाई देने वाला आत्म तेज, देहान्त होने के बाद भी जीवित रहता है। कृतियों को देख कर उनके तेज की हम एक धुँधली कल्पना कर सकते हैं बड़े बड़े ग्रंथ निर्माता और महात्माओं की तुलना करके देखिये। विद्वतापूर्ण ग्रन्थों से कोई गहरा असर नहीं पड़ता पर महात्माओं की कृति देख कर आप विह्वल हो जाते हैं। महात्माओं के जितना विद्वानों से हमें प्रेम नहीं होता। बुद्धि एक इन्द्रिय और मानवी हृदय की एक बनावट चीज हैं वह अनुकूल परिस्थिति में प्रकाश देती और प्रतिकूल परिस्थिति में नष्ट हो जाती है। महात्माओं का तो हृदय प्रकाशवान होता है एक जलती हुई मशाल से जैसे हजारों दीपक जलाये जा सकते हैं उसी प्रकार महात्माओं के प्रकाश-मय हृदय से सम्बन्ध करने पर करोड़ों लोगों का उद्धार हो जाता है। मनुष्य में विशेषता उत्पन्न करने वाले नियम योग शास्त्र ने ढूँढ़ निकाले हैं वे सब समय देश तथा पात्रों के अनुकूल हैं। धनी, दरिद्र, ग्रही, संन्यासी, परिश्रमी, आराम तलब, सब कोई अपनी विशेषता, अपने स्वरूप और अपने मनोबल को दृढ़ कर सकते हैं!

आत्म तेज बढ़ाने के लिए मन का संयम करना जरूरी है। अक्सर लोगों को यह शिकायत रहती है कि अपने विचार और कार्यों पर हमारा अधिकार नहीं चलता। यदि विचारों के उठते ही हम उनका नियमन कर सकें, स्थूल कार्यों की सूक्ष्म शक्ति को अपने आधीन बनाये रहें तो यह सम्भव नहीं कि मन काबू में न रहे। जब हम अपने मन पर पूरा अधिकार कर लेंगे तो दूसरों के मनों पर अधिकार जमाना भी कठिन न रह जायगा क्योंकि सब मन एक ही विश्व व्यापी मन के अंश हैं। मन का संयम सब से बड़ी विद्या है। संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं जो इसके द्वारा सिद्ध न हो। मनोनिग्रह से शरीर सम्बन्धी बड़े बड़े दुःख तिनके जैसे प्रतीत होंगे। मानसिक दुखों को मनोनिग्रही व्यक्ति के पास आने का साहस न होगा अपयश तो उसका नाम सुनकर भागता फिरेगा। सब धर्मों ने भीतरी बाहरी पवित्रता तथा नीति का उपदेश इसलिये दिया है कि पवित्रता और नीतिमत्ता से मनुष्य अपने मन को वश में कर सकता है और मनोनिग्रह ही सब सुखों का मूल है। यह बात निश्चित हो चुकी है कि संसार की हर एक वस्तु एक ही लक्ष की ओर जा रही है और वह लक्ष है-पूर्णता। सारा संसार एक दिन पूर्णता को प्राप्त होगा परन्तु उसे यदि कोई सहायक मिल जाय तो वह अपना रास्ता जल्द तय करेगा। साधु महात्मा और सद्गुरु हमें अपने लक्ष की ओर शीघ्र पहुँचाने वाले सहायक हैं। मन का अभ्यास कर उसमें गोचर होने वाली शक्ति का विचार करने से पूर्णता प्राप्त होती है, इस बात को त्रिकालदर्शी लोगों ने सिद्ध कर दिया है। उनका कथन है कि जो काम तुम स्वयं कर सकते हो उसे प्रकृति के भरोसे छोड़ कर लोगों के हाथ के खिलौने क्यों बन रहे हो? उठो अपना रास्ता सुधारो और एक ही छलाँग में संसार को पार कर दो।

निस्सन्देह मनुष्य जाति के सुख, ज्ञान और बल की वृद्धि हो रही है पर यह वृद्धि कितनी हुई है इसका अन्दाज लगाने का कोई पैमाना हमारे पास नहीं है। हमें अपनी आँखों के आस पास की वस्तुओं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दीख पड़ता। परन्तु मैंने एक ऐसा मनुष्य देखा है जो एक कोठरी में बैठकर दूसरी कोठरी का सब हाल बताता हैं। आप इस बात पर शायद विश्वास न करेंगे परन्तु वह मनुष्य केवल तीन सप्ताह में आप लोगों में से जो सीखना चाहें उन्हें उक्त विद्या सिखा सकता है। दूसरों के मन की बात जानने की कला पाँच मिनट में आ सकती है परन्तु दृढ़ चित्त से अभ्यास करना चाहिये। जो मनुष्य अपने मन पर अधिकार कर चुका है उसके लिये दूसरों के मन की बात जानना असम्भव नहीं है वह घर बैठे संसार भर की बातें जान सकता है। यदि आप इस विद्या को नहीं जानते तो इसे मिथ्या कहने का भी आपको अधिकार नहीं है सब शास्त्रों के आविष्कर्ता यदि आप जैसे मिथ्यावादी होते तो आज किसी शास्त्र का अस्तित्व सिद्ध न होता। हर रोज जिन बातों का अनुभव होता है उन्हें एकत्रित कर, उनका विभाग कर, उनमें से सत्य सिद्धान्त ढूँढ़ निकालना ही किसी खास शास्त्र का आविष्कार करना है, इसी तरह से आज तक सब शास्त्र बने हैं। अज्ञात वस्तु को झूठ कहने से उसका सत्य स्वरूप आपसे सदा ही छिपा रहेगा। हिन्दू लोग किसी वस्तु की झूठी नहीं कहते। हर वस्तु का सूक्ष्म निरीक्षण करने की उन्हें आदत है।

भारत का इतिहास देखने से आपको ज्ञात होगा कि भौतिक शास्त्रों का पता लगाने के पश्चात् आर्य लोग मानवी मनोबल का पता लगाने में इतने गढ़ गये थे कि उन्हें भौतिक शास्त्रों की आधुनिक रीति से उन्नति करने का ध्यान भी न रहा। उनको विश्वास हो गया था कि मानस शास्त्र सिद्ध हो जाने पर हमारी सब आकांक्षाएं पूर्ण होंगी। मनोबल से हम जो चाहेंगे कर सकेंगे। मंत्र, तंत्र, जादू, टोना आदि के भी सिद्धान्त बाँध कर उन्होंने एक शास्त्र बना डाला और भौतिक शास्त्रों की तरह मानस शास्त्र के नियम बना कर उसका वे अभ्यास करने लगे। योगी लोगों के अनेक पंथ निर्माण हुए। कोई खास रंग के कपड़े पहन उसी रंग से पुते हुए घर में रहकर ओर खास रंगों के पदार्थों को भक्षण कर भिन्न-भिन्न प्रकाश किरणों का अभ्यास करने लगे। कोई कानों को बन्द कर ध्वनि सुनने और पुनः कान खोलकर पहले सुनी हुई ध्वनि का अभ्यास करने लगे। कोई भिन्न-भिन्न गन्धों का अभ्यास करने लगे। इसी तरह नाना पंथों से ज्ञानेन्द्रियों द्वारा मानस शास्त्र का अभ्यास कर अन्त में उन्होंने उस शास्त्र को सर्वांगपूर्ण बना डाला। संसार की सब वस्तुओं के मूल रूप का पता लग जाने से उन्हें विलक्षण सामर्थ्य प्राप्त हुई। किसी ने मृत्यु को जीत लिया, कोई आकाश में उड़ने लगा और कोई मुर्दे जिलाने लगा। उस समय के हिन्दुओं ने जान लिया था कि सब प्रकार के सामर्थ्यों का अधिष्ठान जीवात्मा में है। अभी भी हिन्दुओं का आध्यात्म बल बिलकुल नष्ट नहीं हुआ है। कुछ कदन पूर्व एक पाश्चात्य विद्वान ने अपने मित्र की एक आँखों देखी घटना मुझसे कही थी। वे कुछ वर्ष पूर्व लंका के गवर्नर थे, वही उन्होंने यह घटना देखी। घटना यह थी कि कुछ हिन्दुओं ने बहुत सी लकड़ियों का एक टीला बना कर उस पर बारह वर्ष की एक कन्या को बिठाया। और लड़की के नीचे से एक- एक करके सब लकड़ियाँ निकाल ली। लड़की ऊपर टंगी रही। गवर्नर महोदय को सन्देह हुआ कि शायद कोई अदृश्य वस्तु लड़की को उठाए हुए है इसलिए उन्होंने अपनी तलवार लड़की के नीचे से घुमाई, पर कहीं कुछ न था। इस प्रकार की शक्ति बहुत से हिन्दुओं को प्राप्त हैं और इसी अभ्यास में सैकड़ों वर्ष बिता देने के कारण वहाँ भौतिक शास्त्रों का लोप हो गया। तब वे निकम्मे ठहराये गये। आज हिन्दुओं के पास बाहरी चमक न होने पर भी उनके हृदय सूर्य किरणों के समान चमक रहे हैं।

मुझे कुछ लोगों ने कहा कि आप मानस शास्त्र की केवल उत्पत्ति बताते हैं, पर अभ्यास के मार्ग की चर्चा नहीं करते। मेरा कथन हैं कि यह शस्त्र दाल रोटी का कौर तो है नहीं, जो उठाया मुँह में रख लिया। आप जड़ शास्त्रों का अभ्यास करते हैं, वह कठिन नहीं है क्योंकि जिन वस्तुओं की छानबीन करते हैं वे जड़ हैं। उदाहरणार्थ इस कुरसी को आपको चूर करना हो तो कुरसी आप से लड़ने नहीं आवेगी। यह बात मन की नहीं है मन पर अधिकार करना सहज नहीं हैं। उसका आकलन करने के लिए दिन रात परिश्रम करने होंगे। मैं बड़ा भारी योगी नहीं हूँ परन्तु उसकी रूपरेखा जानने में ही मुझे तीस वर्ष बिताने पड़े हैं।

(स्वामी विवेकानन्द की जीवनी और व्याख्यान से)


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