धर्म का सच्चा स्वरूप

January 1940

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(ले. डा. रवीन्द्रनाथ टैगोर)

मैं कोई नवीन बात कहने, किसी गूढ़ तथ्य पर प्रकाश डालने के लिए आपके सामने नहीं उपस्थित हुआ हूँ। मैं कवि हूँ, मुझे जगत और जीवन से अपार प्रेम है। प्रेम एक ऐसी चीज है जो मनुष्य को न केवल अंतर्दृष्टि प्रदान करती है बल्कि मानव समाज की मूक भावनाओं के प्रति हमारे हृदय में अनुराग भी उत्पन्न करती हैं। सौभाग्य से मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो नाना प्रकार के आमोद प्रमोदों में फंसकर जीवन की स्वच्छन्दता और अनेक रूपता को बिल्कुल भूल जाते हैं। हमारी आध्यात्मिक उन्नति का अनुमान इसी बात से लग जाता है कि हमारी आन्तरिक भावनाएं कितनी उच्च अथवा उदार हैं। जीवन के सुखमय बनाने वाले उपादानों से घिरे रहने पर भी, शान्ति नहीं मिलती, हमें स्वातंत्र्य भावना के, मुक्ति के, दर्शन नहीं होते। आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने की अपरिमित भूख अत्यन्त प्राचीन काल से मानव-मन की एक विशेषता रही है। अत्यन्त प्राचीन काल से मानव मन की जिज्ञासा शक्ति अज्ञात के प्रति, लीन रही हैं। इसी चिरन्तन सत्य की खोज में मनुष्य समाज युग-युगान्तरों से संलग्न है फिर भी उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई।

समस्त प्रकृति अनन्त की ओर तेजी से दौड़ रही है। पशु-पक्षियों तक में अनन्त के प्रति यही अनुराग की भावना व्याप्त है। चर जगत के प्राणी मात्र अपने विकसित रूप में, सन्तान के रूप में अनन्त काल तक संसार में अपनी सत्ता बनाए रखने के इच्छुक होते हैं। किंतु चूँकि मनुष्य विचार शक्ति सम्पन्न प्राणी है अतः वह येन केन प्रकारेण जीवन यापन से ही सन्तोष नहीं कर सकता, जीवन को अधिक से अधिक शान्त और विवेकपूर्ण बनाने में ही उसकी आकाँक्षाएं निहित हैं। इन्हीं आकाँक्षाओं को क्रियात्मक रूप प्रदान करने में कितने ही महात्माओं ने अपनी आहुतियाँ दे दी हैं। उन्होंने सत्य सिद्धान्तों की खोज की, जीवन का एक आदर्श बनाया और अपने अनुगामियों को बताया कि अमुक मार्ग का अनुकरण करने से ही हमें आन्तरिक शान्ति प्राप्त हो सकती है। विभिन्न महात्माओं के विभिन्न मार्ग ही संसार में विभिन्न धर्मों के नाम से प्रख्यात हैं। संसार के सभी सभ्य देशों में महात्माओं ने शान्ति, सौंदर्य और मानव चरित्रगत नैतिकता के महत्व को घोषित किया और इन्हीं तथ्यों की सम्यक् उपलब्धि में जीवन की सार्थकता सिद्ध की।

प्रत्येक धर्म अपनी प्रारम्भिक दशा में पूज्यतम भावनाओं से मण्डित होता है किन्तु आगे चलकर उसकी प्रगतिशील स्फूर्ति वैसी नहीं रह जाती, उसमें धर्मान्धता का समावेश होने लगता है। उस समय उसके आध्यात्मिक विवेक पर परदा पड़ जाता है, उसके सिद्धान्त खोखले हो जाते हैं और मनुष्य के बीच के ऐक्य सूत्र को खंडित करने में ही सहायता करते हैं। धार्मिक कट्टरता हमारी सर्वतोमुखी उन्नति को बिल्कुल रोक देती है और हम जीवन की होड़ में बिल्कुल पिछड़ जाते हैं। ऐसी दशा उपस्थित होने पर सभ्य जगत की उन्नति शील संस्थाएं देश और समाज को धर्म के इस गोरखधन्धे से बड़ी मुश्किल में मुक्ति कर पाती हैं।

किसी सम्प्रदाय में जन्म लेकर अथवा उसके अनुयायी होकर हम समझ लेते हैं कि हमने ईश्वर को प्राप्त कर लिया। हम यह सोचकर अपने मन को साँत्वना दे लेते हैं कि हमारे ईश्वर की निजी विशेषताएं हैं, हमें अब उसके विषय में विशेष चिन्तन की जरूरत ही क्या? ईश्वर के विषय में उक्त धारणाएं रख कर हम समय समय पर विरोधियों के सिर तोड़ने को तैयार हो जाते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि वही धर्म जिसकी उद्भावना बड़े ही उदात्त विचारों के बीच हुई थी और जो मानव जाति की आध्यात्मिक मुक्ति के उच्च सिद्धान्त को लेकर अग्रसर हुआ था, मानव समाज की स्वातंत्र्य-मूलक भावनाओं के लिए कितना घातक सिद्ध होता है, उन्हें कैसे कड़े बन्धनों में जकड़ देता है। पण्डित, पाधाओं, मुल्लाओं और पादरियों के कठोर शासन के अंतर्गत धर्म की ऐसी छीछालेदर होती हैं, उसका स्वरूप इतना विकृत हो जाता है कि देश और समाज को स्वच्छन्द वायु का स्पर्श तक नहीं होने पाता, उसमें मंगलमयी और उदार भावनाओं का उदय हो भी तो कैसे?

यदि सचमुच आप सत्य के पुजारी हैं तो मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि आप पूर्ण-सत्य को खोजने की चेष्टा करिये, रूढ़ियों के मजबूत जालों में फँसे हुए गोल मोल किन्तु छूँछे धार्मिक प्रतीकों के फेर में पड़ कर अपनी बुद्धि के दिवालियेपन का परिचय आपको न देना चाहिये।

मेरा उद्देश्य समस्त मानव समाज के लिए पूजा के एक सामान्य आदर्श की प्रतिष्ठापना का नहीं है। अक्सर साम्प्रदायिकता के नाम पर मानव समाज के बीच छोटी छोटी बातों को लेकर जो बड़े बड़े उपद्रव उठ खड़े होते हैं उन्हें देख कर यही कहना पड़ता है कि जन समाज धर्म के स्वरूप को अब तक पहचान नहीं सका। “धर्म”, काव्य की तरह कोई भावना मात्र नहीं है, वह अभिव्यक्ति है।

जब कोई धर्म काफी उन्नतावस्था को प्राप्त हो जाता है और उसकी आकाँक्षाएं इतनी व्यापक हो जाती हैं कि समस्त मानव समाज पर अपनी धाक जमाना चाहता है, उस समय वह अपने उच्च आसन से गिर जाता है। उसमें अत्याचार की भावनाएं व्याप्त हो जाती हैं और उसका स्वरूप साम्राज्यवाद से मिलता जुलता हो जाता हैं।

मानव समाज की मूल वृत्तियों में ही धर्म का सत्य-स्वरूप निहित है। मेरा मतलब इसी उपेक्षित सत्य की ओर आपका ध्यान आकर्षित करने का है।

मैं श्री रामकृष्ण परमहंस को बड़ी श्रद्धा को दृष्टि से देखता हूँ क्योंकि उन्होंने एक ऐसे युग में सत्य के स्वरूप को पहचान कर हमारी आध्यात्मिक परम्परा पर प्रकाश डाला था जब देश में घोर अज्ञानान्धकार का एकान्त राज्य था। उनके विस्तृत विवेक ने साधना के विरोधी मार्गों का सम्मिलन कराया, और उनके सरल व्यक्तित्व ने पण्डित पाधाओं की अहंमन्यता पर सदा के लिए एक स्थायी प्रभाव डाला था।

विवेक बुद्धि से काम लेने पर आपको ज्ञात होगा कि समस्त चराचर प्रकृति ईश्वर की ही व्यक्त सत्ता का प्रकाश है। जगत के नाना दृश्यों और व्यापारों में हम उसी एक चिरंतित शक्ति के विभिन्न स्वरूपों के दर्शन करते हैं।

अपने निजी धर्म को आवश्यकता से अधिक महत्व देने के उसे सर्व श्रेष्ठ धर्म समझने के हम आदी हो गये है। इसके मानी होते हैं कि परमात्मा की सर्व जन हितकारिता पर हमें विश्वास नहीं, दूसरे शब्दों में हम ईश्वर की न्यायशीलता पर अभियोग लगाते हैं और उसे पक्षपाती ठहराते है।


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