नर से नारायण बनने का परम पुरुषार्थ

June 1995

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ईश्वर प्राप्ति को जीवन का परम पुरुषार्थ कहा गया है। महान् के साथ तुच्छ की घनिष्ठता स्थापित होने पर लाभ ही लाभ है। इस प्रक्रिया के आधार पर नगण्य को भी महान् बनने का अवसर मिलता है। नाला, गंगा में मिलकर उसी का नाम धारण कर लेता है। बूँद का विसर्जन उसे विराट सागर बना देता है। उपेक्षणीय ईंधन देखते-देखते प्रचण्ड अग्नि का रूप धारण कर लेता है। पाणिग्रहण करने के उपरान्त पत्नी तत्काल अपने पति की समस्त सम्पदा पर सहज अधिकार प्राप्त कर लेती है। वृक्ष से लिपट कर दुबली कमर वाली बेल भी उतनी ही ऊँची उठ जाती है। वादक के होठों से सटने पर पोले बाँस की नली को मनमोहक बंशी के रूप में श्रेय सम्मान मिलता है। कठपुतली का नाच वस्तुतः उन लकड़ी के टुकड़ों का कलाकार की उँगलियों के साथ समर्पित भाव से बँध जाने के अतिरिक्त और कुछ है नहीं।

ऊँचे तालाब और नीचे तालाब के बीच एक सम्बन्ध स्थापित करने वाली नाली बना दी जाय तो दोनों की सतह एक होने तक ऊँचे प्रवाह नीचे की ओर बहता रहेगा। जनरेटर के साथ सम्बन्ध सूत्र स्थापित होते ही बल्ब, पंखे आदि उपकरण तत्काल गतिशील होते हैं। ये उदाहरण बताते हैं कि परमात्मसत्ता के साथ घनिष्ठता स्थापित करने वाले भगवत् भक्त क्यों कर देवात्मा माने गये? किस कारण अपना और समस्त संसार का कल्याण कर सकने में समर्थ हुए? प्रगति का उच्चतम सोपान यही है कि आत्मा-परमात्मा के स्तर तक जा पहुँचे और सर्वोत्कृष्ट शिखर पर अवस्थित होकर दूसरों के व अपने बीच का आकाश-पाताल जैसा अन्तर देखे।

प्रगति यदि किसी को सचमुच ही अभीष्ट है तो उसे बहिरंग के वैभव में नहीं, अंतरंग के वर्चस् में तलाशा जाना चाहिए। एक ही उपाय का अवलम्बन लिया जाना चाहिए-महानता के साथ अपनी क्षुद्रता को जोड़ देना। कामना का भावना में, संकीर्णता का व्यापकता में, नर का नारायण में विलय-विसर्जन उसी परम पुरुषार्थ का सुनिश्चित स्वरूप है, जिसे ईश्वर प्राप्ति कहते हैं व जिसे पा लेने के बाद फिर और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता।


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