वाणी का तप है मौन

June 1995

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मौन वाणी का शक्ति का संशोधन और संवर्धन करने की साधना का नाम है। वाणी के दुरुपयोग से हमारी शक्ति का बहुत बड़ा अंश नष्ट हो जाता है। इसलिये जिस तरह इन्द्रिय संयम के लिये ब्रह्मचर्य आदि का विधान है उसी तरह वाणी के संयम के लिये मौन की साधना बताई गई है। महात्मा गाँधी ने कहा है “मौन सर्वोत्तम भाषण है अगर बोलना ही हो तो कम से कम बोलो। एक शब्द से भी काम चल जाय तो दो न बोलो।” की साधना बताई गई है। महात्मा गाँधी ने कहा है “मौन सर्वोत्तम भाषण है अगर बोलना ही हो तो कम से कम बोलो। एक शब्द से भी काम चल जाय तो दो न बोलो।” फ्रेंकलिन के शब्दों में चींटी से अच्छा कोई उपदेश नहीं देता और वह मौन रहती हे।” कोर्लाइल ने कहा है-मौन में शब्दों की अपेक्षा अधिक वाक्षक्ति होती है।”

मौन प्रकृति का शाश्वत नियम है। चाँद, सूरज, तारे सब बिना कुछ कहे-सुने चल रहे है। संसार का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य मौन के साथ ही पूर्ण होता है। इसी तरह मनुष्य भी जीवन में कोई महान् कार्य करना चाहे तो उसे एक लम्बे समय तक मौन का अवलम्बन लेना पड़ेगा। क्योंकि मौन से ही शक्ति का संग्रह और उद्रेक होता है।

आध्यात्मिक जीवन के विकास के लिये तो मौन बहुत आवश्यक है। योगीराज श्री अरविन्द ने कहा है-आध्यात्मिक जीवन अपने भीतर ईश्वरीय चेतना को प्रतिष्ठित करने और उसे सहज रूप में व्यक्त होने देने की साधना है। और इस साधना बड़ी हमारी वाचालता ही है जो विश्वात्मा की सूक्ष्म वाणी और उसे आदेशों को सुनने देती। मौन की अवस्था में ही हम आत्मा की वाणी सुन सकते हैं। कितनी उत्तम भाषा बोली क्यों न हो, वाणी से आत्मा को नहीं समझा जा सकता, मौन ही आत्मा की भाषा है।”

शास्त्रकार ने कहा-” मौन उस अवस्था को कहते हैं जो वाक्य और विचार से परे है। यह एक शून्य ध्यानावस्था है जहाँ अनन्त वाणी की ध्वनि सुनी जा सकती है।” अध्यात्म जगत का साधक तो मौन के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकता। आत्मा से और विश्वव्यापी सूक्ष्म शक्ति से मनुष्य तब तक सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकता, जब तक कि वह वाह्य कोलाहल में उलझा रहेगा, बहिर्मुखी बना रहेगा। अंतर्मुखी होने और अपनी संपूर्ण शक्तियों को एकाग्र और संगठित करने के लिये मौन का अवलम्बन श्रेयार्थी के लिये अत्यन्त आवश्यक है।

व्यावहारिक जीवन में भी मौन अनर्थों को पैदा होने से रोकता है। मौन कभी भी दूसरों को हानि नहीं पहुँचा सकता। समाज में विग्रह, लड़ाई, झगड़े, कलह, आदि की शुरुआत वाणी से ही होती हैं। एक दूसरे को भला-बुरा कहने पर ही लोग उत्तेजित होकर अनीति करते है। लेकिन जब मौन का अवलम्बन किया जाय तो बुरे शब्द मुख से नहीं निकलेंगे और न विग्रह की स्थिति ही पैदा होगी। इतनी ही नहीं कोई लड़ना चाहे, चलाकर छेड़छाड़ करे झगड़ने लगे, ऐसी स्थिति में दूसरा पक्ष यदि मौन का अवलम्बन ले-ले तो झगड़ा कभी हो ही नहीं सकता।

मौन की स्थिति में ही हम दूसरों को अधिक सुन सकते है और अपने ज्ञानकोष को बढ़ा सकते है लोगों को समझने, उनका अध्ययन करने के लिये भी मौन की आवश्यकता होती है। कहावत के अनुसार “मौन बुद्धिमानी रूपी सहयोगी है जो मनुष्य को अच्छे मित्र देता है।” सचमुच जो वाचाल होते है उनसे भले आदमी दूर रहने का ही प्रयत्न करते है। मौन की स्थिति में हम अपने अज्ञान, मूर्खता फूहड़पन को प्रकाशित होने से रोक सकते है। भर्तृहरि ने कहा है-विधाता ने मौन अर्थात् चुप रहना-अज्ञानता का ढक्कन बनाया है। ज्ञानियों की सभा में अज्ञानियों के लिये मौन ही सर्वोत्तम आभूषण और रक्षक कवच है। “अज्ञानी आदमी यदि वाचाल होगा तो जल्दी ही अपनी मूर्खता प्रकट कर देगा लेकिन मौन का अवलम्बन लेकर वह अज्ञान प्रदर्शन से अपने आपको रोक सकता है। जिस तरह गंदगी के दुष्प्रभाव और बदबू को दूर करने के लिये उसे ढक लेना आवश्यक है उसी तरह अज्ञान, मूर्खता, फूहड़पन को छिपाये रखने के लिये मौन अपेक्षित है।

शास्त्रों में तीन तरह के पाप बताये हैं। वाणी कर्म और मन से किये गये दुष्कृत्य ये तीनों ही त्रिपाप हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि मौन के अवलम्बन से हम वाणीकृत पापों से तो निश्चित रूप से बच ही सकते हैं। किसी को अप्रिय कठोर, वचन बोलना, गाली देना, झूठ बोलना, चुगलखोरी, आलोचना, आदि वाचिक पापों से मौन ही हमें बचा सकता है, इस तरह मौन की अवलम्बन लेने से हम जीवन में किये जाने वाले एक तिहाई पापों से बच जाते हैं।

हम जीवन में जितना अनर्थक प्रलाप करते हैं, निरर्थक शब्द बोलते हैं। यदि उतने समय में कुछ काम किया जाए तो उतने से एक नया हिमालय, उपवन बन जाय। शब्दों की इस अथाह शक्ति को व्यर्थ ही नष्टकर क्या हम दीन नहीं बन रहें? यदि इन शब्दों का उपयोग हम किसी को सान्त्वना देने में भगवद् भजन, प्रभु नाम स्मरण, संगीत-जप-कीर्तन आदि में करें तो हमारा और समाज का कितना भला हो? साथ ही हम वाचालता से उत्पन्न दोष, जिनसे लड़ाई, झगड़े क्लेश, ईर्ष्या, द्वेष आदि का उदय होता है, उनसे बच जायें

वाचालता, व्यर्थ प्रलाप चाहे वह किसी प्रेरणा से क्यों न हो, हानिकर है। इस सम्बन्ध में एक विद्वान् ने लिखा है “अण्डे देने के बाद जलमुर्गी यह मूर्खता करती है कि वह चहचहाने लगती है। उसकी चहचहाहट सुन कर डोम कौवा आ जाता है वह उसके अण्डे भी छीन लेता है तथा उन वस्तुओं को भी खा जाता है जो उसने अपनी भावी सन्तान के लिये रखी थीं।” कहावत है “ वह कुत्ता अच्छा नहीं होता, जो ज्यादा भौंकता हैं।” इसी तरह वाचाल व्यक्ति को भला नहीं कहा जा सकता। संत ईसा ने कहा था “ अपने द्वारा बोले गये प्रत्येक बुरे शब्द के लिये मनुष्य को फैसले के दिन सफाई देनी होगी।” और यह एक तथ्य है कि बुरे शब्दों से हम मौन के द्वारा ही बच सकते हैं।

स्मरण रहे समाज मौन हमारे ज्ञान की कसौटी है। ”जानने वाला बोलता नहीं और बोलने वाला जानता नहीं।” इस कहावत के अनुसार जब हम सूक्ष्म रहस्यों को जान लेते हैं तो हमारी वाणी बंद हो जाती है। ज्ञान की सर्वोच्च भूमिका में सहज मौन स्वयमेव पैदा हो जाता है। स्थिर जल बड़ा गहरा होता है। उसी तरह मौन मनुष्य के ज्ञान की गंभीरता का चिन्ह हैं। वाचालता पाण्डित्य की कसौटी नहीं है वरन् गहन गंभीर मौन ही मनुष्य के पंडित, ज्ञानी होने का प्रमाण है। मौन ही मनुष्य का विपत्ति में सच्चा साथी है जो अनेक कठिनाइयों से उसे बचा लेता है।

संत रहीम ने प्रतिकूलताओं के दिनों में चुप होकर बैठने की सलाह दी है- ताकि चिंतन-मनन के लिये शक्ति मिल सके।

रहिमन चुप है बैठिये, देखि दिनन कौ फेर

संत कबीर ने भी बाद विवाद को मिटाने का गुरुमंत्र मौन को बताते हुये कहा है-

वाद विवाद विष घना, बोले बहुत उपाधि मौन गहे सबकी सहे, सुमिरे नाम अगाध॥

आत्मा की वाणी सुनने के लिये, जीवन और जगत के रहस्यों को पाप के लिये, लड़ाई, झगड़े वाद–विवादों को नष्ट करने के लिये, वाचिक पाप से बचने के लिये वाणी के तप के लिये तथा अन्याय हितकर परिणाम के लिये हमें मौन का अवलम्बन लेना चाहिये। दैनिक जीवन में मित भाषण और हित भाषण की आदत डालकर हम लौकिक और आध्यात्मिक प्रगति का द्वार प्रशस्त करते है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है।


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