भगवान बुद्ध अब्बाली गाँव का लक्ष्य बनाकर पदयात्रा पर निकले। लक्ष्य एक दरिद्र किन्तु कर्मठ किसान को धर्मोपदेश करना था। उसकी पात्रता का आभास तथागत को मिल चुका था।
किसान ने भगवान के आगमन पर अपना सौभाग्य सराहा। तथागत का उपदेश उनके श्रीमुख से सुनने को उसने चिर आकांक्षा भी सँजो रखी था।
दुर्भाग्य ने काम किया। किसान का बैल खो गया। सोचने लगा, बैल ढूँढ़े या उपदेश सुने?
निश्चय बैल ढूँढ़ने का हुआ। सो वह सत्संग का मोह छोड़कर ढूँढ़ने निकल पड़ा। एक दिन रात भटकने के उपरान्त बैल मिला। लौटकर घर आने तक भगवान उसकी प्रतीक्षा ही करते रहे।
लौटा तो बेतरह थका-माँदा भूख प्यास से पैर लड़खड़ा रहे थे। सूखे मुँह से शब्द भी ठीक से नहीं निकल रहे थे।
तथागत ने मण्डली को निर्देश दिया इसके लिए तुरन्त भोजन का प्रबन्ध करो।
पेट भरने पर किसान शान्त चित्त से बैठा और ध्यान लगाकर उपदेश सुनता रहा।
लौटते समय मार्ग में शिष्यों ने भगवान से ऐसे आ श्रद्धालु के यहाँ जाने का कारण पूछा। वे गम्भीर रहे। बोले तीस योजन की कठिन यात्रा करके मैं जिस जिज्ञासु के यहाँ पहुँचा था वह लोक धर्म और उपदेश श्रवण में से किस की प्रधानता है इसे जानता था। ऐसी सूक्ष्मदर्शी विवेकशीलता ही मुझे उसके घर चलने के लिए घसीट लाई थी।
लौटते समय मार्ग में शिष्यों ने भगवान से ऐसे अश्रद्धालु के यहाँ जाने का कारण पूछा। वे गम्भीर रहे। बोले तीस योजन की कठिन यात्रा करके मैं जिस जिज्ञासु के यहाँ पहुँचा था वह लोक धर्म और उपदेश श्रवण में से किस की प्रधानता है इसे जानता था। ऐसी सूक्ष्मदर्शी विवेकशीलता ही मुझे उसके घर चलने के लिए घसीट लाई थी।