हम सबके जीवन का एक सुयोग-सौभाग्य कि जिन दिनों परमपूज्य गुरुदेव परम वंदनीय माता जी का अवतरण इस धरती पर हुआ, उन्हीं दिनों हम सब को भी उनके साथ लीला सहचर बनने का एक स्वर्णिम अवसर मिला। हम सबने उनके नूतन सृष्टि के सृजन के संकल्प को 1926 की बसंत पंचमी का प्रचलित अखण्ड दीपक के उजाले में साकार होते देखा। गायत्री जयन्ती 1990 (2 जून) को हमारी आराध्य गुरुसत्ता हम सबको प्रचण्ड संकल्प शक्ति से अभिप्रेरित कर अपने बाद शक्ति स्वरूपा परम वंदनीय माताजी एवं उनके बाद संघशक्ति की प्रतीक ‘लाल मशाल' को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर इक्कीसवीं सदी की सारी भवितव्यतायें बताकर महाप्रयाण कर गयीं।
गायत्री जयंती से श्रेष्ठ दिन और कौन-सा हो सकता था, माँ गायत्री के वरद पुत्र सिद्ध सन्त युगपुरुष पूज्यवर के स्थूल के बंधनों से मुक्त हो विराट में घनीभूत हो सूक्ष्म व कारण शरीर के रूप में संव्याप्त होने का। आज उसी बेला में हम सब पर दुलार व शक्ति दोनों लुटाने वाले-भव्य को जगाकर समय आने पर ‘सहोऽसि सहोमयि देहि” का संदेश देने वाले तथा उज्ज्वल भविष्य की झलक झाँकी दिखा कर हमारे चिन्तन को सतत् उल्लास भरा विधेयात्मक बनाने वाले अपने पिता को पुनः पाँच वर्ष बाद याद करके हम अपनी अंतः पर्यवेक्षण करने की प्रक्रिया को दुहरा रहे हैं। जब आज से प्रायः 9 माह पूर्व हम सबको संरक्षण देकर पीठ थपथपाकर आगे बढ़ने वाली, एक टीम बनाकर उसके द्वारा देवसंस्कृति दिग्विजय के अनेकानेक पराक्रम सम्पन्न करने वाली मातृ सत्ता के महाप्रयाण व उनके अंतिम संदेश को हम याद करते हैं तो पुनः आत्मचिन्तन की घड़ी आ जाती है। क्या हम वह सब कर पाये हैं जो ऋषियुग्म चाहते थे, क्या हम ‘क्वान्टिटी’ के साथ-साथ ‘क्वालिटी’ बढ़ाने की बात साकार कर पाए हैं? यह सब हम सब के लिए विचारणीय कुछ बिन्दु गायत्री जयंती (8 जून) की इस पावन वेला में।
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि शक्ति के द्वारा संचालित-प्रेरित दैवी आकांक्षा से विनिर्मित मिशन की गति कभी रुकती नहीं। ऐसा मिशन दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करता चला जाता है। पर यह दायित्व प्रहरियों का है, केन्द्र व क्षेत्र के सभी परिजनों का है जिनने ‘विनम्रता ही वरिष्ठता की कसौटी है’, इस तथ्य को हृदयंगम कर ब्राह्मणत्व का आदर्श क्रमशः अपने जीवन में समाहित किया है। आश्वमेधिक अनुष्ठानों की चकाचौंध में हम एक डेढ़ इंच ही सही, कहीं इधर-उधर भटक तो नहीं रहे। वरिष्ठों की आंतरिक गरिमा स्नेह संवेदना लुटाने की प्रक्रिया ही इस मिशन की धुरी है व वे ही व्यक्ति शक्ति के संवाहक बन सकेंगे। सभी जानते हैं कि इस समय असुरता जीवन-मरण व संघर्ष भरा अंतिम युद्ध लड़ रही है। कहीं वह हमारे चिन्तन में प्रविष्ट हो हमें आदर्शवाद की दृष्टि से तो नहीं, पर और किसी क्षेत्र में महत्त्वाकाँक्षी तो नहीं बना रही है, यह सतत् आत्म चिन्तन करते रहना हमारा आपका सबका कर्तव्य है।
शक्ति द्वारा संचालित मिशन एक आँधी आवेश की तरह होता है। रास्ते में आने वाले हर अवरोध को आँधी उखाड़ फेंकती है। उसके लिए आदर्श जिन पर गुरुसत्ता जीवन भर टिकी रही, वे ही महत्त्वपूर्ण हैं। 25 अश्वमेध हो चुके। सभी एक से एक बढ़कर। किसी एक की नहीं प्रत्येक को जन−जन की गाँव-गाँव में घूमकर पैदल ग्राम प्रदक्षिणा से लेकर यज्ञ संचालन करने वाले तक की सफाई करने वाले से लेकर यज्ञाहुति न कर पाने किन्तु लाखों के लिए भोजन आवास की व्यवस्था करने वाले हर परिजन की इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। अब अगला लक्ष्य हमारा आँवलखेड़ा की पूर्णाहुति है जो युग सन्धि महापुरश्चरण का प्रथम अनुष्ठान है। सत्ताईसवें आश्वमेधिक प्रयोग के रूप में गुरु जन्मभूमि 4, 5, 6, 7 नवम्बर 1995 की तारीखों में सम्पन्न होने जा रहा है। इसके प्रयास में नियोजित हो सारे हो चुके अश्वमेधों का अनुयाज आगामी चार माह में सम्पन्न करने के बाद लगातार एक वर्ष तक पुनर्गठन प्रक्रिया के अंतर्गत सारे भारत व विश्व को एक सुव्यवस्थित संगठन के, आचार संहिता के आधारभूत सिद्धान्तों से बँधे मिशन के रूप में विनिर्मित कर गायत्री व यज्ञमय बनाने का, भारतीय संस्कृति को विश्व संस्कृति बनाने का लक्ष्य हमें पूरा करना है। अट्ठाइसवें से लेकर एक सौ आठवें अश्वमेध की यात्रा अक्टूबर 1996 के बाद आरंभ होगी, यह सभी को बार-बार समझा दिया गया है।
आदर्श आचार संहिताएँ जो पूज्यवर विनिर्मित कर गए, अगले अंक से पुनः प्रकाशित की जाती रहेंगी। हर नैष्ठिक क्षेत्रीय परिजन, शक्तिपीठ के ट्रस्टीगणों से लेकर प्रज्ञामंडलों शाखाओं तथा केन्द्रीय कार्यकर्ताओं के लिए ये बनायी जा रही हैं। आशा की जानी चाहिए कि आदर्शों की कसौटी पर खरे उतरने वाले स्वयं को और सक्रिय बनाएँगे व औरों को न देखकर मात्र गुरुसत्ता के जीवन दर्शन को ध्यान में रखते हुए अपनी निष्ठा-साधन श्रद्धा का पुख्ता प्रमाण देंगे।
*समाप्त*