सम्भवामि युगे-युगे

June 1995

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वह कौन है, कहाँ का है, कैसे आया है और क्यों आया है इस दुर्गम प्रदेश में कोई नहीं जानता?सच तो यह है कि इन याक तथा भेड़े के झुण्ड चराते-इधर-उधर तंबू लगाकर दस-बीस दिन रुकते हुये घूमने वाले तिब्बती लोगों के पास भी उसका परिचय जानने का कोई साधन नहीं है। वह उनकी भाषा नहीं जानता और वे लोग उसकी गिटपिट समझ नहीं पाते। तीन-चार दिन के अन्तर से वह उनके पास आता हे। एक ही क्रम है उसका-चुपचाप सोने का एक सिक्का फेंक देगा तंबू वाले के सामने और अपना विचित्र बर्तन रख देगा। उसे ढेर-सा मक्खन, दूध और चाहिये और कुछ सत्तू भी। उसकी अभीष्ट वस्तुएँ सरलता से मिल जाती हैं। एक बार किसी तंबू वाले ने चमड़े, चंवर तथा माँस सामने लाकर रख दिया- कदाचित् इन वस्तुओं का भी वह ग्राहक बन जाय किन्तु उसने अपनी भाव-भंगिमा से प्रकट किया कि उसे यह सब नहीं चाहेंगे

तिब्बत की सर्दी में दूध, दही महीनों खराब नहीं करते। वह खरीदा गया मक्खन, दूध आदि उठा लेता है और चुपचाप चला जाता है दुर्गम पहाड़ों की ओर, उन पहाड़ों की ओर जिधर जाने में ये पर्वतीय लोग भी हिचकते है। सुना है वहाँ बहुत दूर किसी हिमाच्छादित गुफा में एक कोई पुराना भारतीय लामा रहता है। बड़ा सिद्ध लामा (योगी) है वह। अवश्य यह गोरा साहब उसी के पास रहता होगा।

तिब्बत के इन सुदृढ़काय श्रद्धालु जनों में इस गोरे साहब के लिये सम्मान का भाव उत्पन्न हो गया है। ऊनी पतलून उनके बीच-बीच सप्ताह में एक बार आने वाला यह साहब उसके सम्बन्ध में बहुत कुतूहल है इनके मन में। किन्तु कोई साधन नहीं साहब से कुछ जानने का।

हिम की शीतलता से उसका मुख, उसके हाथ, झुलसकर काले से पड़ गये है- यह तो स्वाभाविक बात है, किन्तु उसका एक कान नुचा-कटा है। आधी नासिका है ही नहीं। एक नेत्र उस प्रकार फटा है, जैसे किसी ने नोंच लिया हो। कपोल दोनों कटे-फटे है और मुख में सामने के दाँत है ही नहीं।

वह अवश्य कभी किसी रीछ से भिड़ गया होगा। इन पर्वतीय लोगों के जीवन की जो सामान्य घटना है, उसकी कल्पना की गोरे साहब की आकृति को देखकर इन्होंने। रीछ ने उसे नोंचा-खसोटा और लड़ाई में पहाड़ से वह लुढ़क गया वह नीचे दाँत पत्थर की चोट से उसके प्राण बच गये। अपनी कल्पना का उन्होंने घटना मान लिया है और गोरे साहब के इस साहस ने उन्हें उसके प्रति अधिक श्रद्धालु बनाया है। यह गोरा साहब अपनी एक है तीव्र इच्छा लेकर इस दुर्गम प्रदेश में आया था-कोई योगी-हिमालय का कोई योगी ही मेरी इच्छा पूरी कर सकता है। उसका निश्चय भ्रान्त था, यह कोई नहीं कह सकता। बस उसे एक ही धुन थी, वह जैसे भी खुश होगा, खुश करूँगा

वह कैसे पहुँचा तिब्बत के इन पर्वतों तक और कैसे उन हिमगुफा में स्थित योगी के दर्शन कर सका एक लम्बी कहानी है। उसे यहाँ रहने दीजिये। तिब्बती चरवाहों की जनश्रुति भारत के पर्वतीय जनों में प्रायः पहुँच जाती है और वहीं उसने भी दुर्गम पर्वत की गुफा के लामा की चर्चा सुनी थी। जिस कष्ट डिगा नहीं पाते और मृत्यु कम्पित नहीं कर पाती कौन-सा लक्ष्य है, जिसे वह प्राप्त नहीं कर सकता।

गुफा के भीतर योगी है। एक शिला पर स्थापित मूर्ति के समान निस्पन्द, निश्चेष्ट, स्थिर आसीन। वह नहीं कह सकता, वह योगी का शरीर है जीवित या निष्प्राण? उसने पढ़ रखा है कि भारतीय योगी प्राण को रोककर वर्षों निष्प्राण के समान रह सकते है और कोई निष्प्राण देह भी इस हिम प्रदेश में विकृत होने से तो रहा।

गुफा उसने स्वच्छ कर दी है। शिला पर मूर्ति के सामान जो योगी का निश्चल देह है डरते-डरते उसे उसने धीरे-धीरे साथ लाए स्टोव पर जल गरम करके तौलिये से प्रक्षालित किया। अब तो तेल समाप्त होने से स्टोव उपेक्षित पड़ा है। इससे अधिक कोई सेवा वह इन मूर्ति प्रायः महापुरुष की सोच नहीं पाता। प्रतीक्षा-प्रतीक्षा ही कर सकता था वह और अब संसार में लौटकर करना भी क्या था। उसकी प्रतीक्षा न भी सफल हो इस शिला पर आसीन योगी के पावों में अनन्तकाल तक अविकृत पड़ा रहेगा उसका निष्प्राण शरीर। यहाँ से वह लौटेगा नहीं। ऐसा कुछ नहीं होना था। सृष्टि का एक संचालक है और वह दया सिन्धु है। दृढ़व्रती को उसने कभी निराश नहीं किया है। उस दिन वह गुफा प्रकाश से भर उठी। शिला तल पर आसीन योगी का शरीर जैसे सूर्य के समान प्रकाश पुञ्ज बन गया। देखना सम्भव नहीं था उनकी ओर। गोरा साहब हाथों से अपनी आंखें ढक कर घुटनों के बल भूमि पर सिर रखकर प्रणत हो गया उस तेज पुञ्ज के सम्मुख।

वत्स! ओंकार के सुदीर्घ गम्भीर नाद के अनन्तर कानों में जैसे अमृतधारा पहुँची। एक क्षण केवल एक क्षण रुककर वे सर्वज्ञ उसी की भाषा में उसे सम्बोधित कर रहे थे। आँसुओं से भीग गया उसका मुख और वह बोलने में असमर्थ हो गया।

मैं यहूदी हूँ। अपने घर से देश से निर्वासित असहाय, अत्याचार का मारा एक अधम। कठिनाई से भरे गले वह बोला-आपकी शरण आया हूँ। आपके अतिरिक्त उन पिशाचों से कोई मेरा प्रतिशोध नहीं दिला सकता।

योगी सुनते रहे नीरव ओर वह कहता गया मैं जर्मन यहूदी द्वेष के प्रति कभी अकृतज्ञ नहीं रहा, किन्तु हिटलर की शक्ति से आज संसार संत्रस्त है। उसके अत्याचारों का किसी के पास प्रतिकार नहीं। नाजी पिशाचों ने मेरी पत्नी-मेरे बच्चे की जो दुर्गति की, वे उसकी हत्या कर देते तो मैं उन्हें क्षमा कर देता। किन्तु उन्होंने जिस प्रकार से उन्हें मारा मेरा यह शरीर आह.......वह पीड़ा से कराह उठा- मेरे जीवित शरीर को उन्होंने चिमटों से नोंचा, हंटरों से पीटा। मुझ पर हुये अत्याचारों की सीमा नहीं है। उन पर प्रलय की वर्षा हो उसके नेत्र अंगार हो रहे थे और थर थर काँप रहा था वह क्रोध से।

मैं यहाँ तब पहुँच नहीं पाता, किन्तु मुझ गृह हीन की जो सेवा, जो सहायता उदार पुरुषों ने की मैं उनका कोई प्रत्युपकार नहीं कर सका। उन्होंने मुझे सम्मान दिया सुविधा दी मेरी शुश्रूषा की। आपका आशीर्वाद उनकी उन्नति प्रगति में सहायक बनें। वह तनिक शांत हुआ फिर भी उसके चेहरे पर तनाव के लक्षण थे।

भोले बच्चे! स्निग्ध शान्त स्वर था उन महायोगी का अब तुम क्या चाहते हो?

हिटलर का सर्वनाश एक बारगी वह जैसे चीख पड़ा हिटलर या हिटलरी कुबुद्धि का? बड़ा अजीब सवाल था वह चौंक कर उनकी ओर देखने लगा। उसके मुख मण्डल पर आने वाले उतार -चढ़ावों से बेखबर महायोगी बोले जा रहे थे हिटलर के सारे आतंक की जननी उसकी दुर्बुद्धि ही तो है। एक हिटलर मर भी गया तो क्या?

संसार में फैला दुर्बुद्धि न जाने कितने हिटलर पैदा कर देगी। तो हिटलर मरेगा नहीं? गोरा यहूदी जैसे अपने सवाल पर अडिग था। महायोगी उसकी ओर वात्सल्य पूर्ण दृष्टि डालते हुये बोले हिटलर तो तुम्हारे यहाँ आने के साथ ही मर गया। उसने अपनी जिस दुर्बुद्धि के कारण अनगिनत लोगों को अकारण पीड़ित किया उसी कुबुद्धि के वशीभूत होकर स्वयं अपने को भी समाप्त कर लिया। पर एक हिटलर के मरने से भी क्या बनेगा हिटलरी कुबुद्धि का आतंक तो अभी भी मंडरा रहा है। तब क्या कोई उपाय नहीं? वह कहने लगा हमने तो सुना था हिमालय की सर्व समर्थ ऋषि सत्तायें सब कुछ करने में समर्थ है।

ठीक कहते है महायोगी समझाने लगे इन तपःपूत ऋषियों की प्रार्थना को स्वीकार करके ही भगवान स्वयं प्रज्ञावतार बनकर धरती पर आ चुके है। अभी वह अपनी योजनाओं की पृष्ठभूमि बनाने में गोपनीय ढंग से संलग्न है। समय आने पर वह अपने को प्रकट करेंगे इस बार वह अपने लला सहचरों के साथ कुबुद्धि के आतंक से लोहा लेंगे बोलते -बोलते वह शून्य की ओर ताकने लगे जैसे वह अपनी दिव्य दृष्टि से भविष्यतां के अक्षर पढ़ रहे हों हिमालय की तलहटी से उठने वाले विचार क्रान्ति के तूफान में समूचे विश्व की कुबुद्धि तिनकों की तरह उड़ जाएगी। मानवी बुद्धी परिष्कृत होकर प्रज्ञा का रूप लेगी और सृजनात्मक गतिविधियों में संलग्न होते है।

अहा गोरा साहब जैसे सोते से जगा कुछ पल रुककर उसने महायोगी से वहीं हिमालय की गुफा में रहकर जप की अनुमति माँगी।

नहीं वह समय गुफा में तप करने का नहीं है। तुम वापस जाओ और मुरझाई, कुम्हलाई मानवता के परमात्मा के अवतरण का संदेश देकर नये प्राण का संचार करो। मानव को यह बताओ कि यह समय निजी संकीर्णता की बेड़ियों में बँधे रहकर रोने चिल्लाने का नहीं परमात्मा के साथ भागीदारी निभाने का है। महायोगी के इस कथन को शिरोधार्य कर जर्मन यहूदी बुर्डेर्न्बग ने एक पुस्तक लिखी मिस्टिक हिमालय जिसमें मानव के स्वर्णिम भविष्य की आशा संजोयी है।


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