एक बार एक ब्रह्मबेला अपने पुत्र के साथ किसी धर्म सभा में प्रबन्धन सुनने गया। प्रवचनकर्ता वेदान्ती था। ब्रह्मा के संदर्भ में संसार की व्याख्या करते हुये उसने कहा कि यहाँ का प्रत्येक जीव ब्रह्म का रूप है। उनमें परस्पर कोई भेद नहीं।
पुत्र ने उस शिक्षा का भली−भाँति हृदयंगम कर लिया उसके एक दुकान थी उसमें कई कई अनाज की डेरिया थी। प्रवचन सुनने के पश्चात् वह दुकान खोल कर बैठा, तो सामने से एक गाय आकर अनाज खाने लगी।
पुत्र को वेदान्ती की शिक्षा याद आयी। उसने सोचा यह तो ब्रह्म का ही रूप है। हममें और इसमें बाहरी आकार के अतिरिक्त कोई भेद तो है नहीं। यह सोचकर वह निर्विकार बना रहा। गाय अनाज खाती रही।
इसी बीच पिता आ गये। अनाज खाती गाय को देख कर वह आगबबूला हो उठे। पुत्र को फटकारते हुए कहा। मूर्ख! इस तरह बैठा क्यों है? गाय को भगाता क्यों नहीं? पुत्र ने प्रबंधकर्ता की शिक्षा दुहरायी- ब्रह्म से घृणा कैसी!वह तो अपना ही रूप है।
पिता ने कर्तव्यबोध कराते हुये कहा -नादान सिद्धान्त और व्यवहार के बीच का अन्तर समझ! जीवन व्यावहारिकता पर टिका है। उसे उसी रूप में चलने दे! पुत्र का भ्रम दूर हो गया |