मानव जीवन, श्रेष्ठतम उपलब्धि मानी गयी है। मनुष्य को मनुष्य रूप में श्रेष्ठता पूर्वक ही जीवन यापन करना चाहिए। ऊँचा आचार-विचार ऊँची-भावनाएँ उन्नत आदर्श और उदार व्यवहार ही मनुष्य को शोभा देते है। जीवन को सार्थक और समृद्ध बनाने के लिये श्रेष्ठता की अवधारणा जीवन के हर मोड़ पर करते रहना ही आवश्यक है। मनुष्य होकर भी जो श्रेष्ठ जीवन का सुख न ले सका, उसको असफल ही माना जाएगा
जिसको सिद्धि वाँछित है उसे श्रेष्ठता का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है। श्रेष्ठता क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जायेगा कि शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक प्रसन्नता, बौद्धिक गरिमा और आत्मिक बोध का भाव मिलकर ही किसी मनुष्य को श्रेष्ठ बनाते है। पद-प्रतिष्ठा आदर-सम्मान वैभव-ऐश्वर्य शक्ति, बल और बहुत कुछ क्षमताएँ होने पर भी यदि मनुष्य में ऊपर बताए गये चार गणों का अभाव हो तो उसे पूर्ण श्रेष्ठ मनुष्य नहीं माना जा सकता। पूर्ण श्रेष्ठता की सिद्ध के लिये उपर्युक्त चार विशेषताओं का होना अनिवार्य माना जाएगा
शारीरिक स्वास्थ्य क्या है? मोटा-तगड़ा और भारी भरकम होना स्वास्थ्य का लक्षण नहीं है। स्वास्थ्य का लक्षण है शरीर की सुडौलता। अवयवों का गठन, पेशियों का संतुलन, दृढ़ता और आवश्यक माँसलता सुडौलता की शर्तें है। शरीर से सुडौल और संतुलन होने पर भी जिस में स्फूर्ति और कार्यक्षमता की कमी है। उसे पूर्ण स्वस्थ नहीं माना जा सकता। सब लोग हों चाहे न हों, किन्तु पहलवान वर्ग के प्रायः सभी लोग शरीर से सुडौल और सुन्दर होते है। कुश्ती और कसरत के अभ्यस्त काम को छोड़कर पहलवान कदाचित ही स्फूर्ति और कार्यक्षमता का प्रमाण दे पाते हैं। अपने उन दो कामों को छोड़ कर दिन भर अलसाने अथवा सोने के सिवाय और कोई काम उनके वश का नहीं होता।
जो मनुष्य शारीरिक सौष्ठव के साथ-साथ स्फूर्ति और कार्य क्षमता से भी संपन्न है, वही वास्तव में पूर्ण स्वस्थ माना जाएगा ऐसे लोगों के पास आलस्य, सुस्ती तथा थकान नहीं आती। जितनी देर उन्हें कार्य करना होता है एक भाव से अविचलित हुए करते रहते हैं। काम करने, दौड़ने, खेलने, बोलने आदि क्रियाओं तक में उनकी स्फूर्ति प्रकट होती रहती है। अवयवों, पेशियों और अंगों से पुष्ट स्फूर्ति और श्रम संपत्ति से सम्पन्न व्यक्ति के सम्बन्ध में व्याधियों की कल्पना नहीं की जा सकती और प्रकृति परिस्थिति अथवा संयोग से उसके सम्मुख ऐसी कोई परिस्थिति आ भी जाती है तो वह अपनी सुरक्षित क्षमता से जल्दी से जल्दी ही उस पर नियंत्रण पा लेता है।
मानसिक प्रसन्नता का लक्षण है दृढ़ मनोबल, चित्तवृत्तियों पर नियंत्रण, निरन्तर उत्साह, साहस, निर्भीकता, कर्मनिष्ठा, सद्भावना तथा खिलाड़ी की तरह की मनःस्थिति यही गुण मानव जीवन की सुख शान्ति और सफलता के विधायक तत्त्व होते है। जिसका मन निर्बल, चंचल, निरुत्साही, सदैव भयभीत तथा निष्ठाहीन होगा, निश्चित है कि उसका मन मलीन और विपरीत दिशा में निषेधात्मक चिंतन करने वाला होगा। निर्बल मन का शंकाओं, संदेहों, विक्षेपों आदि के असद् तत्त्वों से भरा रहना स्वाभाविक है। जिसके मन की दशा दयनीय होगी वह श्रेष्ठता की साधना में सफल हो सकेगा। ऐसा नहीं माना जा सकता। जिसका मन निरोग, निर्विकार और निर्मल होगा उसका मन न केवल प्रसन्न ही रहेगा बल्कि प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा आदि की सद्भावनाओं से भरा भी रहेगा। जिसे गुणों की यह सम्पत्ति प्राप्त हो जाये उसे श्रेष्ठता की ओर बढ़ने से कौन रोक सकता है।
बौद्धिक गरिमा के अंतर्गत बुद्धि की निर्णायक शक्ति, संतुलित चिंतन, उच्च विचार, शांति और सुव्यवस्था आदि ऐसे गुण आते हैं जो किसी विषम परिस्थिति में मनुष्य के सहायक होते है। जो अच्छाई-बुराई-कर्तव्य अकर्तव्य, सत्य-असत्य पथ और विपथ में निर्णय कर सकने वाली बुद्धि चंचल, अशान्त और असंतुलित होगी, जिनमें इंद्रियों और मन पर शासन करने की योग्यता न होगी, ऐसे व्यक्ति श्रेष्ठता की दिशा में आवश्यक प्रगति कर सकने की आशा नहीं कर सकते। जिनकी बुद्धि योग्यता पूर्वक निर्णय दे सकती है, ऊहापोह में समय नष्ट करने से बचाये रख सकती है, इंद्रियों तथा मानसिक वृत्तियों पर शासन रखकर उन्हें कर्तव्य पर चला और अकर्तव्य से रोक सकती है, इन्हें किसी भी स्तर की श्रेष्ठता को प्राप्त कर सकने के लिये योग्य माना जा सकता है।
श्रेष्ठता की सिद्धि के लिये सबसे महान् शक्तिशाली और महत्त्वपूर्ण तत्त्व है ‘आत्मबोध’। जिसमें आत्मबोध की कमी है, आत्मा की शक्तियों की प्रतीत नहीं है, आत्मविश्वास का अभाव है और जो यह अनुभव नहीं करता कि आत्मा परमात्मा का अंश है, जो मानव देह में जीव को वह दिव्य प्रकाश देने के लिए अवतरित हुई है, जिसको अपनाकर मनुष्य किसी भी उन्नत ही नहीं उच्चतम शिखर पर चढ़ सकता है, वह मनुष्य सर्व गुण संपन्न बलवान और साधनों से पूर्ण होने पर भी प्रगति के नाम पर एक कदम नहीं बढ़ सकता। जिसने जीवन के मूल तत्त्व को ही नहीं जाना, उसने अन्य सब बातें जान भी लीं तब भी अनजानी ही माना जायेगा। आत्मबोध सम्पन्न व्यक्ति निरन्तर अपने अंदर एक अलौकिक सम्बल एक अविच्छिन्न साथी और एक शक्तिशाली सहायक की अनुभूति करता रहा है। आत्मबोध से आत्मविश्वास और परमात्मनिष्ठा की पुष्टि होती है। इतने बल सम्बल के साथ श्रेष्ठता की ओर बढ़ने वाले का लक्ष्य पूरा न हो, यह संभव नहीं।
किन्तु ये चारों ही गुण किसी को स्वतः प्राप्त नहीं हो जाते। इन्हें उपाय, युक्ति और साधना द्वारा उपार्जित किया जाता है। इन गुणों की सिद्धि के लिये बहुत कुछ छोड़ना और बहुत ग्रहण करना पड़ता है। उन परिस्थितियों में रहना अथवा वैसी परिस्थितियाँ बनानी पड़ती है जो इनकी साधना में सहायक हो सकें।
इन गुणों को विकसित करने का उपाय है सरलता पूर्वक जीवन जीने की कला का अभ्यास करना जो लोग जीवन के विधि क्षेत्रों अथवा विषयों का अनावश्यक फैलाव कर लेते है वे श्रेष्ठता के गुणों का न तो विकास कर पाते है और न उनकी रक्षा। आवश्यकताओं, सम्पर्कों, साधनों सुविधाओं, सुखों, मनोरंजनों, सम्बन्धों तथा परिवार आदि बातों में आधिक्य तथा विस्तार का समावेश कर लेते है, वे प्रायः श्रेष्ठता की रक्षा में असफल ही रहते है। अधिक, और अधिक के पालन में अधिक हाथ-पाव ही फेंकते रहते है। ऐसी विवशता भरी व्यग्रता में श्रेष्ठता सम्बन्धी आदर्शों, नीतियों और मर्यादाओं का पालन कर सकना कठिन होता है। जब-तब और जहाँ-तहाँ क्षमताओं का स्खलन होता ही रहता है।
यदि कोई व्यक्ति जीवन में आवश्यकताओं का अत्यधिक विस्तार कर लेता है तो वह वाँछनीय श्रेष्ठता की रक्षा कर पाता। मनुष्य की मूल आवश्यकताएँ है भोजन, वस्त्र और आवास। यदि मनुष्य परिश्रमी है और उसने इन मूल आवश्यकताओं को सामान्य जीवन क्रम से आगे नहीं बढ़ाया है तो वह मान्य मर्यादाओं और आदर्शों के साथ जीवन-यापन कर सकता है। यदि वह अपने सामान्य आवश्यकताओं को असामान्य बना लेता है तो उसे उनकी पूर्ति के लिये अनुचित गतिविधि अपनाने के लिये मजबूर होना पड़ेगा अनौचित्य की पूर्ति अनौचित्य द्वारा ही करनी पड़ती है। महापुरुषों ने सही कहा है कि प्रसन्न रहने के दो ही उपाय है- अपनी आवश्यकताओं को कम करना तथा परिस्थितियों से तालमेल बिठा लेना यदि इतना बन पड़े तो जीवन जीने के कला व्यक्ति को आ जाती है तो श्रेष्ठता के राजमार्ग पर उसे आरूढ़ कर उसे सिद्ध पुरुष बना देती है। यह राजमार्ग सभी के लिए खुला पड़ा है।