परम पूज्य गुरुदेव की पाँच स्थापनाएँ - प्रथम शक्ति-केन्द्र आँवलखेड़ा

June 1995

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संसार में दो प्रचण्ड शक्तियाँ हैं-एक धर्म अध्यात्म, दूसरा शासन-सुरक्षा तंत्र। धर्म उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र एवं उदार व्यवहार की शिक्षा देता है। व्यक्ति को ऐसे ढाँचे में ढालता है, जिससे वह समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी से भरा-पूरा जीवन जी सके। एकता और समता की भावनाओं से भरा-पूरा रह सके। धर्म का तत्त्वज्ञान यही है। उसका तत्त्वदर्शन व्यक्ति की चेतना को मानवीय गरिमा के अनुरूप ढालता है। धर्म की तलवार न हो तो अनीति अराजकता ही चारों ओर छा जाय। आसिक्तता को ही नैतिक मूल्यों का मेरुदण्ड कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी और जन-जन के मनों में आस्तिकता के संस्कारों के बीजारोपण का कार्य धर्म तंत्र ही तो करता है।

दूसरी ओर शासन तंत्र का काम है समाज व्यवस्था बनाना, जनता की समृद्धि और सुविधा का सरंजाम बिठाना, अनाचारी पर नियंत्रण करना, देश की सुरक्षा का प्रबन्ध करना। शिक्षा, चिकित्सा, संचार, परिवहन, संसाधनों की उपलब्धि, उत्खनन जैसे अनेकों उपयोगी कार्य शान ही योजनाबद्ध रूप से करता है।

धर्मतंत्र और शासन तंत्र दोनों के बीच अन्योऽन्याश्रित जैसा सम्बन्ध रहना चाहिए। दोनों के कार्य क्षेत्र अलग-अलग होते हुए भी दोनों को मिला देने से ही समग्र प्रगतिशीलता बनती है। यह व्यवस्था होनी चाहिए कि व्यक्ति को मानवी गरिमा के अनुरूप धर्म ढाले और समाज को सुव्यवस्थित रखने का काम शासन करे। शासन तंत्र का मानवीय तत्त्वदर्शन पर कोई नियंत्रण नहीं। दूसरी ओर धर्म तंत्र में व्यवस्था बनाने हेतु अनिवार्य बहिरंग अनुशासन शक्ति वही है। इसलिए भूतकाल दोनों ही क्षेत्र मिल जुल कर ऐसे कार्यक्रम बनाते और बाँटते थे, जिससे समाज की समग्र प्रगति एवं सुख शान्ति में सहायता मिले।

आज दोनों ही क्षेत्रों में अवांछनीयताओं की घुसपैठ हो गयी है। धर्मतंत्र में, अध्यात्म परिकर में वे बुराइयाँ प्रतियोगिता इसलिए अधिक दीखती हैं कि उस क्षेत्र से आदर्शों के उद्भव की बड़ी-बड़ी आशाएँ की जाती हैं पर जब वहाँ भी ढोंग पाखण्ड, विलगाव, ठगी प्रतिगामिता का ही सम्मिश्रण दीखता है तो लोग खीजते और कटु समीक्षा करते हैं यह सही भी है। उस क्षेत्र को धर्म की मल आस्थाओं को प्रचलित करने में ही संलग्न रहना चाहिए। उसका ऐसा रूप न बनने देना चाहिए जिससे परस्पर कलह बढ़े कुरीतियों के प्रचलन में सहायता मिले अथवा राजनीति की घुसपैठ उसमें होने लगे। धर्म श्रद्धा क्षेत्र तक ही सीमित रहे, व्यक्ति को उत्कृष्ट बनाना ही उसका लक्ष्य हो, धर्मोन्माद में न बदल जाय, यह ध्यान रखा जाना भी जरूरी है। दूसरी ओर शासनतंत्र भी इन बुराइयों से सर्वथा मुक्त नहीं है, भ्रष्टाचार नीचे से ऊपर कि कूट-कूट कर भरा है। किसी को किसी का भय न होने से उच्छृंखलता ही सब पर हावी है। यदि आदर्शवादिता का अंकुश शासन व्यवस्था पर होता तो संभवतः यह निरङ्कुशता की, आपाधापी, पारस्परिक विग्रह व असुरक्षा की स्थिति न आती।

भारतवर्ष के साथ इन गई गुजरी परिस्थितियों में भी एक अच्छी बात यह जुड़ी हुई है कि धार्मिक आस्था का असाधारण प्रभाव जनता पर बना हुआ है। धर्म में पाखण्ड घुस पड़ने के बावजूद उसमें जितना समय, श्रम व धन लगा हुआ है, उसकी हिसाब लगाने पर लगता है कि अभी भी लोगों के मन में धर्म के प्रति गहरी आस्था है, भले ही उसके बहुसंख्य सूत्रधारों ने मात्र वेश ही धर्म का ओढ़ा हुआ है, चिंतन, चरित्र उनका भी आदर्शवादी नहीं है। धर्म–कलेवर के निमित्त जो कुछ भी अर्थ नियोजन किया जाता है, वह उससे थोड़ा ही कम हो सकता है जितना कि शासन को अपना ढाँचा खड़ा रखने में जुटाना पड़ता है।

ऊपर की पंक्तियों में यह हवाला विस्तार से इसलिए दिया गया कि आज की परिस्थितियों में सबसे बड़ी जिम्मेदारी धर्मतंत्र की है जिसे समाज परिकर को धर्म धारणा से अनुप्राणित करना चाहिए। यदि व्यक्ति और समाज को समुन्नत सुसंस्कृत बनाया जा सका तो धर्मतंत्र में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित कर राजतंत्र को सही दिशा दे सकता है जो समय की आवश्यकता है। इस स्थिति का भाँति-भाँति पर्यवेक्षण कर समय की माँग को पूरा करने हेतु संव्याप्त अनास्था रूपी संकट की विभीषिका को मिटाने के निमित्त एक महामानव ने अपना सारा जीवन इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु खपाते हुए एक ऐसा तंत्र खड़ा किया, जिसके स्वरूप व लक्ष्य को देखते हुए यह आशा बँधने लगी है कि यह प्रयोजन अवश्य पूरा होकर रहेगा। इन महापुरुष का नाम है- वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य इन्होंने अपनी 80 वर्ष की आयु में वह काम कर दिखाया है जो 800 वर्ष में भी पूरा नहीं हो पाता। एकाकी अपनी यात्रा आरम्भ करते हुए महात्मा गाँधी के सन् 1930 में दिए गए सूत्र-धर्मतंत्र से लोक मानस का परिष्कार, राजतंत्र का दिशा निर्देशन एवं नैतिक क्रान्ति का पूर्णतः परिपालन करते हुए उन्होंने अपनी जन्मस्थली आँवलखेड़ा जनपद आगरा से लेकर अंतिम कार्य स्थली व निर्वाण स्थली शान्तिकुञ्ज हरिद्वार (उ. प्र.) तक पाँच स्थान-शक्ति केन्द्र खड़े किये जो उनके उद्देश्यों को पूरा करने में आज भी निरत हैं।

एक ब्राह्मण जमींदार के परिवार में जन्मे आचार्य जी की जन्म स्थली एवं प्रथम बीस वर्ष तक रही कार्य स्थली ‘आँवलखेड़ा’ अब एक दर्शनीय तीर्थ सिद्ध पीठ का रूप ले चुकी है। वहीं पर देव संस्कृति दिग्विजय अभियान के अंतर्गत सत्ताईसवीं कड़ी के रूप में युगसन्धि महापुरश्चरण की प्रथम महापूर्णाहुति आगामी नवम्बर में सम्पन्न होने जा रही है।

दूसरा संस्थान है अखण्ड ज्योति संस्थान मथुरा (घीयामण्डी) जहाँ उनने लेखनी रूपी अस्त्र से सन् 1984 में ‘अखण्ड ज्योति पत्रिका आरंभ की एवं 200 से आरंभ होने वाले गायत्री परिवार को सतत् मार्ग दर्शन देते हुए मनीषी चिन्तन को घर-घर पहुँचाया एवं आज प्रातः साढ़े चार लाख व्यक्ति इस पत्रिका को हिन्दी में पढ़ते तथा दस लाख लोगों को पढ़ाते हैं। इसी के अनुवाद दस भाषाओं में छपकर दस लाख और व्यक्तियों तक पहुँचते हैं। इसी स्थान पर निवास करते हुए उन्होंने हजारों व्यक्तियों से व्यक्तिगत पत्र व्यवहार करते हुए उनको अपना अभिन्न अंग बनाया, उनकी समस्याएँ सुलझाई एवं एक विशाल गायत्री परिवार का सदस्य बना लिया। यही कारण है कि हर जाति, मत, सम्प्रदाय का व्यक्ति उनसे पिता की तरह स्नेह करता एवं उनकी धर्मपत्नी वंदनीय माता भगवती देवी को अपनी माता मानते हुए बदले में अनेक गुना स्नेह ढेरों अनुदान आशीर्वाद पाता रहा। यहीं पर उनने आर्षग्रन्थों का भाष्य कर उन्हें जन सुलभ बनाया, अपने वजन से भी कई गुना साहित्य रचा एवं नियमित अपनी लेखनी चलाते हुए अपनी साधना के शक्ति स्रोत अखण्ड दीपक के प्रकाश में ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका एकाकी लिखी, जो कि अपनी लम्बी यात्रा पूरी कर पाँच वर्ष पूर्व ही अपनी स्वर्ण जयन्ती मना चुकी है।

तीसरा संस्थान है ‘गायत्री तपोभूमि मथुरा’ जहाँ उन्होंने आगरा से प्रयाग कर मथुरा आकर धर्म तंत्र के परिष्कार का तुमुलनाद किया, चौबीस वर्ष तक चौबीस-चौबीस लक्ष के महापुरश्चरणों का उत्तरार्द्ध सम्पन्न किया, ऐतिहासिक सहस्र कुण्डीय यज्ञ के माध्यम से उसकी पूर्णाहुति की एवं देशव्यापी संगठन-विस्तार हेतु ‘युग निर्माण योजना’ को जन्म दिया।

मथुरा से सन् 1971 में पूज्य गुरुदेव ने हिमालय के लिए एवं वंदनीय माता जी ने शान्तिकुञ्ज हरिद्वार’ के लिए प्रयाण किया। जिस स्थान पर तीस वर्ष तक साधनारत रह उन्होंने उसे संस्कारित किया था, उसे एक भावनाशील समर्पित समुदाय को सौंपकर हमेशा के लिए उसे नमन कर वे उत्तराखण्ड हिमालय की ओर चल दिये। एक वर्ष की तपश्चर्या के बाद वे पुनः शान्तिकुञ्ज लौटकर वंदनीय माता भगवती देवी के साथ साधना में संलग्न हो गये। यहाँ नियमित शिक्षण सत्रों की शृंखला चलाई गई। साधन, वानप्रस्थी, लोकसेवी परिव्राजक एवं नारी जाग्रति हेतु संकल्पित कन्याओं एवं महिलाओं का शिक्षण चला, साथ ही भारत तथा विश्वव्यापी विशाल प्रज्ञा अभियान युग निर्माण परिवार का संगठन संचालन भी। 1979 में विज्ञान और आध्यात्म के समन्वय हेतु संकल्पित एक संस्थान की वैज्ञानिकों की टीम के संयोजन एवं युग ऋषि के मार्ग दर्शन में स्थापना हुई जिसका नाम रखा गया ‘ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान।’ यह संस्थान शान्तिकुञ्ज गायत्री तीर्थ से लगभग 1/2 मील दूरी पर गंगा तट के किनारे सप्त सरोवर क्षेत्र में सप्तर्षि मार्ग पर बना है एवं अपनी यज्ञ विज्ञान, शब्द विज्ञान तथा साधना विज्ञान पर बहुमूल्य यंत्र उपकरणों के माध्यम से की जा रही शोध तथा उपलब्धियों के लिए इस अल्प अवधि में ही ख्याति प्राप्त कर चुका है। वनौषधि अनुसंधान, आहार चिकित्सा, साधना से मानसोपचार जैसे विषय अपने हाथ में लेकर इस संस्थान द्वारा न केवल चिकित्सा की एक नई विधा का क्षेत्र जनमानस के लिए खोला गया है अपितु तर्क, तथ्य, प्रमाणों के द्वारा दार्शनिक अनुसंधान की प्रक्रिया से अध्यात्म को विज्ञान सम्मत प्रमाणित करने का प्रयास भी किया गया है, जो कि अपने आप में अद्वितीय है।

ये पाँचों संस्थानों में एक ही धुरी पर टिके हैं, एक ही गंगोत्री से निकले पाँच हिमनद हैं तथा पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी रूपी ऋषियुग्म के संरक्षण में कार्यरत है। प्रथम संस्थान आँवलखेड़ा जो अगले दिनों सक्रिय भूमि का युगपरिवर्तन के क्षेत्र में निभाएगा, संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-आगरा जलेसर मार्ग पर स्थित यह ग्राम जिसकी आबादी मात्रा चार हजार है, अब तक युग तीर्थ का, गुरुद्वारे का स्वरूप ले चुका है। यहीं पर आज से 84 वर्ष पूर्व ईसवी सन् 1911 (संवत् 1968 वि.) में आश्विन बदी 13 का पण्डित रूपराम जी शर्मा के यहाँ एक बालक जन्मा। नाम रखा गया ‘श्रीराम।’ कोई नहीं जानता था कि यही बालक आगे चलकर इस युग के अवतार की भूमिका निभाते हुए विश्वमानस को मथने एवं एक व्यापक परिवर्तन लाने वाला है। उनका बाल्यकाल अद्भुत रहा है। यद्यपि उनके साथ के उस समय के व्यक्ति अब इस दुनिया में नहीं पूज्य गुरुदेव ने स्वयं अपने विषय में अधिक बताया नहीं, पर जितना कुछ भी वहाँ जाकर देखा व समझा जा सकता है, रहने वाले बुजुर्गों से सुना - समझा जा सकता है, उससे उनके जीवन के कई पहलू उजागर होते हैं। लगता है सारे बीजांकुर बाल्यकाल में ही पुष्पित पल्लवित होना आरम्भ हो गये थे। ग्राम के ही विद्यालय में प्राइमरी पाठशाला तक पढ़ाई पूरी की। संस्कृत का अध्ययन अध्यापन स्वयं पिता श्री करते थे। वे ही महामना मालवीय जी से यज्ञोपवीत संस्कार कराने वाराणसी लेकर गए थे। मालवीय जी ने इस सात वर्ष के बालक को गायत्री मंत्र की विधिवत् दीक्षा देकर कहा था कि यह ब्राह्मण की कामधेनु है। समझाते हुए कहा कि जो गायत्री मंत्र जपता है, वह ब्राह्मण बन जाता है। जन्म से भले ही वह कुछ भी हो, पर जो सही माने में इस तत्त्वदर्शन को जीवन में उतारता है, उसका ब्राह्मणत्व प्रचण्ड प्रखर हो उठता है एवं गायत्री महाशक्ति उसे अगणित अनुदान कामधेनु की तरह देती है। यह बात गाँठ बाँधकर वे आए सीमा बंधन तो पाँच माला प्रतिदिन का था। पर अक्सर देखा जाता कि वे स्कूल से आने के बाद घर की छत पर, पेड़ की कोटर में, कुएँ के समीप वृक्ष की छाया में ध्यानस्थ बैठे हैं। बहुधा इस स्थिति में उन्हें झकझोरकर उठाया जाता एवं वे सामान्य स्थिति में लाये जाते।

समाज के प्रचलनों-चली आ रही परम्पराओं के प्रति असहयोग, उनके बचपन में ही उभर कर आ गया था। गाँव की एक बुढ़िया महतरानी घावों से पीड़ित थी। दस्त हो रहे थे। कोई हाथ लगाने को तैयार न था। बालक श्रीराम ने एक चिकित्सक से उपचार पूछकर दवाओं का प्रबन्ध किया, भोजन-व्यवस्था का सरंजाम जुटाया एवं नियमित रूप से परिचर्या हेतु एवं उसे भोजन देने हेतु जाना आरम्भ कर दिया। पण्डित जी का बेटा गाँव के इस कोने से उस कोने में मेहतरानी की बस्ती में जाकर उसे हाथ लगाए, दवा करे, यह किसी को गंवारा न था। आज से 65 वर्ष पूर्व यह काम पूरा गुनाह माना जाता था। घर वालों से प्रताड़ना मिली व जाति बहिष्कार कर दिया। घर वालों ने प्रवेश नहीं करने दिया। बाहर चबूतरे पर रहकर रात काटते रहे पर सेवा न छोड़ी। पन्द्रह दिन में वह अच्छी हो गयी। हमेशा उन्हें भगवान मानती रही व दुआएं देती रहीं। धीरे-धीरे समाज ने उन्हें पुनः अंगीकार कर लिया। करता कैसे नहीं, मानव धर्म भी तो कुछ है। यह एक छोटी-सी घटना बताती है कि आँवलखेड़ा वासी इस बालक के अन्दर, करुणा, सेवा-भाव आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना कूट-कूट कर भरी थी।

बालक श्रीराम पन्द्रह वर्ष के हो गए। इसी बीच एक घटना घटी जिसने उनके जीवन दिशा बदल दी। बसन्त पर्व के ब्रह्ममुहूर्त में उन्हें उनकी अशरीरधारी हिमालय वासी गुरुसत्ता जिनने उन्हें उनके जीवनोद्देश्य से परिचित कराया, भावी कार्यक्रमों की रूपरेखा समझाई व बताया कि विगत जन्मों में जो महान् कार्य उनसे पूरे हुए उन्हें किस तरह पूरा किया जाना है। चौबीस-चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण करने, अखण्ड दीपक के प्रकाश में स्वाध्याय जन्म चिन्तन को लिपिबद्ध कर अखण्ड-ज्योति रूपी पत्रिका प्रकाशित किये जाने तथा राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के सान्निध्य में जाने, स्वतंत्रता संग्राम के एक सेनानी के नाते सहयोग देने के निर्देश आँवलखेड़ा की इस बस्ती के उनके विशाल घर की छोटी-सी पूजा की कोठरी में ही मिले। यहीं पर उन्होंने बतलाया गया कि साधना स्वाध्याय व स्वतंत्रता संग्राम के एक सेनानी के रूप में मातृभूमि की सेवा के त्रिसूत्री कार्यक्रम के साथ-साथ उन्हें चार बार हिमालय यात्रा करनी पड़ेगी संभावित समय व स्थान के निर्देश भी मिले व जीवन यात्रा के आगामी कार्यक्रम का एक स्वरूप उन्हें समझा दिया गया। तब से बसंत पंचमी को ही उनके आध्यात्मिक जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है।

उनकी साधना व स्वाध्याय के चमत्कारी परिणाम तो मथुरा व हरिद्वार के वर्णन में अधिक देखने को मिलते हैं। यहाँ तो उनकी स्वतंत्रता संग्राम में सेनानी, स्वयंसेवक एक समाज सेवी के नाते जो भूमिका रही, उसका वर्णन करना ही समीचीन होगा। उन्हें साथियों में ‘श्रीराम मत्त’ नाम से जाना जाता था। 1928 से 1935 की अवधि में वे कई बार अल्पावधि के लिए जेल गए, अंग्रेजों से लाठी की मार सही, किसानों के हित के लिए लगान बन्दी के जुल्म के आँकड़े एकत्र कर काँग्रेस के बड़े नेताओं के पास भिजवाये, जिन्हें देखकर स्वयं वायसराय आश्चर्य चकित हो गये थे कि एक अकेला 18-19 वर्षीय किशोर यह काम कैसे कर सका? तथा मालवीय जी, पं. जवाहर लाल नेहरू की माता स्वरूपा रानी नेहरू, रफी, अहमद किदवई, श्री देवदास गाँधी जैसे स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूतों के साथ आसनसोल जेल में रहने का अवसर मिला। असहयोग आन्दोलन में व सक्रिय क्रान्तिकारी की तरह तोड़-फोड़ के क्षेत्र में भी भूमिका उनने निभाई। जेल प्रवास में उनने एक मंत्र सीखा, उन्हीं महामना मालवीय जी से जिनने उन्हें गायत्री मंत्र दीक्षा के साथ यज्ञोपवीत दिया था। वह मंत्र था हर व्यक्ति को अपने महान् प्रयोजन में सहचर सहयोगी बनाने के लिए मुट्ठी फण्ड चलाना। उनके समय, श्रम व अर्जित सम्पदा का एक न्यूनतम अंश लेकर जन आन्दोलन चलाना। युग निर्माण योजना की अंशदान, समय दान नीति आगे चलकर इसी मूल मंत्र की धुरी पर आधारित हुई।

आज उसी आँवलखेड़ा में 80 वर्ष पुराना वह विशाल घर तो समय के थपेड़ों से जराजीर्ण हो गया है। पर उसके कुछ अंश विद्यमान् हैं जो उनके विगत क्रिया–कलापों की झाँकी देते हैं उसी स्थान पर एक कीर्ति स्तम्भ व स्मारक बनाया गया है जिस पर उनकी जीवनयात्रा लिखी गयी है। यथा उनके हाथों से खोदा गया कुआँ जिसका मीठा पानी हर जाति वालों के लिए अभी भी सुगमता से उपलब्ध है, वह कक्ष जहाँ वे अपने साथियों के साथ बैठकर स्वतंत्रता संग्राम की भावी नीति सम्बन्धी विचार विमर्श करते थे तथा उस बुनता घर के ध्वंसावशेष जो उन्होंने गाँधी जी हथकरघा योजना के अंतर्गत स्वावलम्बन प्रधान शिक्षण हेतु विनिर्मित किया था। वे बूढ़े पेड़ जो अभी आँधी के थपेड़ों के शिकार नहीं बने हैं, गवाही देते हैं, उस महासाधक की, जिसने अपनी जीवन यात्रा को आरम्भ करते समय उन्हीं की छाया में बैठकर गायत्री साधना आरम्भ की थी।

अब आँवलखेड़ा का स्वरूप बदल चुका है। गाँव छोड़ते समय अपनी सैकड़ों बीघा जमीन उन्होंने अपनी माँ के नाम एक स्कूल हेतु दान दे दी। अब उस विशाल जमीन पर माता दानकुँवरि इण्टर कॉलेज स्थापित है। पहले विद्यालय, फिर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय व अब यह लड़कियों का महाविद्यालय बन चुका है। इसी के सामने उनने लड़कियों की पढ़ाई की आवश्यकता व विद्यालय न होने से हो रही कठिनाई को अनुभव करते हुए एक और स्थापना की आँवलखेड़ा गायत्री शक्ति पीठ। मन्दिर ज-जाग्रति के केन्द्र बने इस उक्ति को उन्होंने जीवन भर चरितार्थ किया। आँवलखेड़ा की उस भव्य स्थापना में एक लड़कियों का इण्टर कॉलेज विनिर्मित हुआ एवं वह एक डिग्री कॉलेज बनने जा रहा है। जिसमें आस-पास के गाँवों की व स्थानीय अढ़ाई सौ लड़कियाँ पढ़ती हैं तथा एक चिकित्सालय बना जो कि गाँव ही नहीं, आस-पास की एक बड़ी आवश्यकता थी। मध्य में स्थित भव्य शक्ति पीठ में गायत्री माता की मूर्ति स्थापित है, नित्य अग्निहोम होता है, तथा यहाँ से चारों ओर के गाँवों को लक्ष्य बनाकर एक मंडल शक्तिपीठ के रूप में दरिद्रनारायण की सेवा तथा दुष्प्रवृत्ति आंदोलन रूप में हरीतिमा संवर्धन, प्रौढ़ शिक्षा, नशानिषेध कुरीति निवारण जैसी सत्प्रवृत्तियों का संचालन होता है। उनकी जन्मस्थली पर अब एक संगमरमर का चबूतरा बना दिया गया है, जिस पर प्रतीक रूप में एक स्वस्तिक बना हुआ है। जो भी आँवलखेड़ा आता है इस युग तीर्थ के दर्शन करता, शक्ति पीठ व जन्मस्थली जाकर स्वयं को धन्य मानता है। यहीं पर एक स्वास्थ्य केन्द्र भी है तथा एक विराट प्रदर्शनी गुरुसत्ता के जीवन दर्शन पर लगायी जा रही है।

आने वाले पाँच माहों में जब प्रयाग गतिशील होगा एवं नवम्बर माह की 4 से 7 तारीखों में युग संधि महापुरश्चरण की प्रथम अर्धपूर्णाहुति के रूप में एक 1251 कुण्डीय विराट यज्ञशाला में आश्वमेधिक प्रयोगों की शृंखला में सत्ताईसवाँ उपक्रम संपन्न होगा तो एक नूतन संदेश राष्ट्र की इस आध्यात्मिक राजधानी से मानव मात्र के उत्थान का राष्ट्र के नव जागरण का यहाँ से निस्सृत होगा। प्रज्ञा प्रवाह के पाँच शक्ति केन्द्रों में प्रथम आँवलखेड़ा को गुरु जन्मभूमि होने के कारण ही एक सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि प्रायः पचास लाख सृजन सेनानी एक साथ उन दिनों कत संकल्प होकर धर्म तंत्र के परिष्कृत स्वरूप का दिग्दर्शन सारे समाज को करायेंगे तथा यह महाविस्फोट जन-जन के मन में विचार क्रान्ति के बीजों को आरोपित कर प्रज्ञा अभियान के प्रवाह को तीव्रगति देगा, इसमें समयदान, साधना दान, साधन दान के रूप में भागीदारी हो, यह अभी से सुनिश्चित कर लिया जाना चाहिए।


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