अब यह समन्वय अपरिहार्य है

June 1995

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फिलॉसफी एण्ड दि न्यू फिजिक्स” नामक ग्रन्थ में जोनाथन पॉवर्स एक स्थान पर लिखते हैं कि दर्शन और विज्ञान दो भिन्न विधाएँ लगते हुए भी अभिन्न और एक हैं; पृथकता मात्र बाहरी है। तनिक गहराई में उतरने पर इसकी यथार्थता स्पष्ट हो जाती है और यह विदित हो जाता है कि दोनों का ही सम्बन्ध विचार तंत्र से है। दर्शन सोचने की एक प्रणाली है, जबकि विज्ञान चिन्तन को सत्य सिद्ध करने वाली धारा। एक यदि चिन्तन-चेतना को गति देता है, तो दूसरा उसे वास्तविकता से धरातल पर ला खड़ा करता है। इतने पर भी दोनों का अपना-अपना मूल्य और महत्त्व है। केवल काल्पनिक ऊहापोह में पड़े रहने से भी काम चलने वाला नहीं और न विशुद्ध विज्ञानवादी बन जाने से ही बात बनने वाली है। समाज में इन दोनों का समन्वय ही वर्तमान संकट का आत्यन्तिक हल हो सकता है।

पर इन दिनों इनमें एक प्रकार से वैमनस्य दिखाई पड़ता है। वेदान्ती अब भी ब्रह्म की दुहाई देते हुए अपने कल्पना लोक में विचरण करते रहते हैं, जबकि विज्ञानी उस तत्त्व को यथार्थ की कसौटी पर सत्य साबित हुए बिना स्वीकार करने को तैयार नहीं। एक पूर्णतः स्वप्न की दुनिया में जीता है, तो दूसरे का आधार हस्तामलकवत! सत्य है। दोनों अपनी-अपनी अवधारणा से एक इंच भी आगे-पीछे हटने को तैयार नहीं। वेदान्ती आज भी “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” का राग अलापते दिखाई दे रहे हैं तो विज्ञानविद् उस सूत्र के पीछे सच्चाई प्रत्यक्ष करना चाहते हैं। उनकी इस सम्बन्ध में एक ही आपत्ति है कि दिनमान की तरह स्पष्ट दिखाई पड़ने वाला जगत मिथ्या कैसे हो सकता है? और जिसके अस्तित्व का कोई अता-पता नहीं, वह सत्य किस भाँति हो? प्रत्यक्षवाद के लिए इस प्रकार के प्रश्न स्वाभाविक हैं। सम्भव है आज से कुछ सौ वर्ष पूर्व आदि शंकराचार्य को ब्रह्म को सर्वोपरि सिद्ध करने की कोई सामयिक आवश्यकता महसूस हुई हो, इसलिए यह सूत्र उनने रचा हो। सम्प्रति हम कई सौ वर्ष आगे निकल चुके हैं, न सिर्फ समय की दृष्टि से, वरन् बुद्धि, प्रगति और विज्ञान की दृष्टि से भी। अतएव कल के नियम आज ज्यों-के-त्यों लागू नहीं हो सकते और न बीते समय की सारी बातें वर्तमान परिस्थिति के हिसाब से सही ही सिद्ध हो सकती हैं।

यदि सारी पुरानी बातों को दर्शन के अतिरिक्त धर्म के नाम पर चल रही अवैज्ञानिक मूढ मान्यताओं, अंधविश्वासों, प्रथा परम्पराओं को पत्थर लकीर मान लिया गया, तो फिर आगे का अनुसंधान और विकास का पथ ही अवरुद्ध हो जायेगा। यह ठीक है कि नये का आधार पुराना होता है, उसी के सहारे नूतन कदम नई दिशा में उठा और बढ़ा सकना सम्भव है; पर यह भी गलत नहीं है कि पिछले पग का एक ही जगह जमे और पड़े रहना प्रगति को ही ठप्प कर देगा। यह जमाव सामयिक ही होना चाहिए, स्थायी नहीं। जहाँ ऐसी किसी भी मान्यता के स्थायित्व का दुराग्रह होगा, वहाँ अवगति सुनिश्चित है और यह भी निश्चित है कि जब तक धर्म दर्शन की इस दुर्दशा का अन्त नहीं होता, तब तक समाज की दुर्गति बनी रहेगी। ऐसे में यदि ब्रह्म को ही सच मानना हो, तो उस विराट् विश्व रूपी ब्रह्म को क्यों न सत्य माना जाय और जगत को मिथ्या मानने की विवशता आ पड़े, तो भौतिक लिप्सा को क्यों न झूठा करार दिया जाय? कुछ भी हो, समय के साथ-साथ यदि विचार प्रणाली में यह रोचकता और गतिशीलता बनी रहती, तो इस दुरावस्था को बहुत हद तक टाला और समाज को सशक्त समर्थ बनाया जा सकता था। किन्तु दुराग्रही दर्शन की जो परिणति हो सकती थी, वही हुई। उसने समाज को भी निठल्ला बना डाला। किसी समय जब समाज श्रेष्ठ और समर्थ था, तो जीवन के अन्तिम भाग में एकान्त सेवन करते हुए कुछ जप-तप कर लेने में शायद कोई हर्ज जैसी बात नहीं थी, किन्तु आज जीवन के पूर्वार्ध से ही इस प्रक्रिया का अपनाया जाना, न सिर्फ नैतिक अपराध है, वरन् बड़ा पाप भी; क्योंकि बड़ी जिम्मेदारी के रहते उसकी उपेक्षा करना और ब्रह्म प्राप्ति के नाम पर जंगलों, तीर्थ स्थलों एवं नदी तट पर निष्क्रिय बने रहना दायित्वों से विरत रखने वाला पलायनवाद के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? इस मनोवृत्ति ने ही साधु-सन्तों की उतनी बड़ी सेना खड़ी की। यदि यह प्रवृत्ति नहीं पायी जाती, तो संभव है 80 लाख जितनी बड़ी जनशक्ति इन दिनों किसी रचनात्मक कार्य में लग कर राष्ट्र को विकसित बना रही होती, पर ऐसा न होना था, न हुआ। यही दर्शन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।

दूसरी ओर विज्ञान की स्थिति इससे भिन्न है। उसे इस सम्बन्ध में अधिक प्रगतिशील माना जा सकता है, कारण कि उसने इस प्रकार की किसी भी पिछली बात से चिपके रहने की प्रवृत्ति से स्वयं को मुक्त रखा, फलस्वरूप निरन्तर उन्नति करते हुए आज के उत्कर्ष को प्राप्त कर सका, जबकि फिलॉसफी ने वैसी रीति-नीति नहीं अपनायी, फलतः वह जीर्ण-शीर्ण स्थिति में अब भी पड़ी रह कर सामाजिक मनोदशा भी अपनी ही जैसी बनाये हुए है। यही कारण है कि इतने सौ वर्ष बाद भी समाज में वह वाँछित परिवर्तन न आ सका, जो आना चाहिए था। शरीर में जिस प्रकार मन की भूमिका है और उसके गड़बड़ाने-लड़खड़ाने से जैसे उसका स्वास्थ्य प्रभावित होता है, वैसे ही दर्शन और चिन्तन समाज रूपी काया के मन-प्राण हैं। यदि वही जर्जर हो गया, तो समाज की स्थिति अवसादग्रस्त देह जैसी हो जाती है, जिसमें शरीर समर्थ होते हुए भी कुछ करते धरते नहीं बन पड़ता। दार्शनिकों को इस बारे में बहुत पहले सोचना चाहिए था और समय के अनुरूप फिलॉसफी को ऐसा बनाना चाहिए था कि वैज्ञानिक विचारधारा से उसकी संगति निभती रहे; पर उसकी प्रगति इतनी न हो सकी कि दोनों एक ही आधार पर खड़े होकर एक छप्पर तले रह सकें। परिणामस्वरूप उनमें आकाश-पाताल जैसा अन्तर दीखने लगा।

विज्ञान, दर्शन को यदि आज मात्र मानसिक अय्याशी मानता है तो दर्शन, वान को जड़वादी की संज्ञा देता है। दोनों ही एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं; पर मेल-मिलाप का स्वर कहीं भी किसी बिन्दु पर झाँकता-झलकता दृष्टिगोचर नहीं होता। यहाँ तनिक सूक्ष्म दृष्टि का उपयोग करें, तो विदित होगा कि वास्तविकता इससे भिन्न है। दोनों न कभी पृथक् थे, न ही हो सकते हैं। सच तो यह है कि दर्शन के बिना विज्ञान का जन्म ही नहीं हो सकता। जहाँ विज्ञान है, वहाँ निश्चित रूप से दर्शन भी होगा, भले ही उसकी उपस्थिति वहाँ प्रच्छन्न स्तर की हो। इसीलिए संसार में बड़े-बड़े जितने वैज्ञानिक हुए हैं, वे उच्चकोटि के दार्शनिक भी थे। आइन्स्टीन यदि मूर्धन्य विज्ञानवेत्ता थे, तो वे एक महान् मनीषी भी थे। आर्थर कोएस्लर गणितज्ञ और भौतिकविद् थे, तो साथ ही एक श्रेष्ठ चिन्तक भी। इसी प्रकार पुराने जमाने में जितने भी ऋषि वैज्ञानिक हुए हैं, उनकी दर्शन में भी असाधारण गति रही है। कणाद परमाणु विज्ञानी थे और फिलॉसफर भी। पतंजलि योग−विज्ञान के निष्णात थे, तो दूसरी और दर्शन में भी उनकी गहरी गति थीं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि दर्शन और विज्ञान आरम्भ से ही साथ फूलते-फलते रहे हैं, किन्तु बाद के समय में उनके बीच उपजी विसंगतियों ने पार्थक्य जैसी स्थिति पैदा कर दी और दोनों दो भिन्न स्वर अलापते प्रतीत होने लगे। आज भी कुछ बिन्दुओं पर उनमें सहमति हो जाय, तो फिर उनकी सहोदर जैसी स्थिति बनी रह सकती है। यदि ऐसा हुआ, तो समाज के लिए यह अत्यन्त लाभकारी होगा; क्योंकि दोनों ही असाधारण शक्ति सम्पन्न है। दर्शन यदि युगानुकूल व्यावहारिक बन सका, तो समाज को दिशा देने की अपूर्व क्षमता दिखा सकता है और वह परिवर्तन प्रस्तुत कर सकता है, जिसे युगान्तरकारी कहा जा सके। समाज की अगणित क्रान्तियाँ आर्थिक से लेकर धार्मिक तक सब इसी की देन हैं चिन्तन की यह विधा जब निर्माण क्षेत्र में लगती है, तो मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग उतारने की अपूर्व सामर्थ्य प्रदर्शित करती है और विनाश की दिशा में क्रियाशील होने पर हाहाकार मचा देती है। विज्ञान में यह दोनों ही क्षमताएँ हैं, पर मनुष्य का दुःख और दुर्भाग्य यह है कि इन दिनों दोनों ही शक्तियाँ विद्रूप बनी हुई हैं और अनर्थकारी प्रयोजनों में लगी हुई हैं।

कहना न होगा कि शक्तियों का सदुपयोग उच्च आदर्शवादी दर्शन से ही संभव है। जिस देश की सोच सशक्त और समयानुकूल हुई, वह विज्ञान को भी प्रभावित करती और दिशा देती है। ऐसी स्थिति में दर्शन-विज्ञान दो न रह कर एक बन जाते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे सिक्का एक होते हुए भी उसके पहलू दो होते हैं। ऐसे में न विरोध-अवरोध की गुँजाइश रह जाती है, न अलगाव-असमानता की। दोनों ही शक्तियाँ तब रचनात्मक भूमिका निभाते हुए मनुष्य और समाज को विकसित बनाने में लग जाती हैं; किन्तु यह स्थिति विनिर्मित तभी हो सकेगी, जब चिन्तन प्रगतिशील और पूर्वाग्रह रहित हो एवं उसमें उन सभी अनिवार्य तत्त्वों का समावेश हो, जो तत्कालीन परिस्थितियों के लिए आवश्यक हों। कोई तथ्य बिलकुल नया होने के कारण ही स्वीकार लिया जाय और दूसरे को इस कारण त्याग दिया जाय, क्योंकि वह पुराना बन चुका-इस आधार पर बात बनने वाली नहीं। हमें निष्पक्ष होकर नीर-क्षीर विवेक का प्रयोग करते हुए उन सभी नये पुराने आधारों का एक समग्र और सर्वांगपूर्ण दर्शन निर्माण करना होगा, जो हर प्रकार से वर्तमान के अनुरूप हो, तभी विज्ञान भी उपयोगी हो सकेगा अन्यथा सुनिश्चित दर्शन के अभाव में वह भी विकलांग बना रहेगा। इसी मत का समर्थन करते हुए महाकवि कालिदास लिखते हैं-

पुराणमित्येव न साधु सर्वम्। न चापि काव्यं नवमित्य वद्यम्॥

अर्थात् न तो ऐसा है कि सभी पुरानी चीजें अच्छी होती हैं और न यही कि सब नयी वस्तुएँ खराब होती हैं।

महाकवि का समन्वयात्मक स्वर स्पष्ट इन पंक्तियों में गूँजता है और वे भी इस पक्ष में दीखते प्रतीत होते हैं कि नये पुराने का श्रेष्ठता के आधार पर समभाव होना चाहिए। आज की पश्चिम की फिलॉसफी यदि शुरू से ही इस नीति का परिपालन करती रही होती, तो विज्ञान से विलगाव का प्रश्न ही पैदा नहीं होता और न स्वर्ग-मुक्ति का उलझाव भरा आकर्षण व्यक्ति की मुक्ति से संसार की मुक्ति हो सकेगी-यह एकदम अवैज्ञानिक है; किन्तु समाज का एक-एक घटक त्रिविध बंधनों से जिस दिन मुक्त हुआ, उसी क्षण सभी व्यक्ति स्वतः मुक्त हो जायेंगे-इसके पीछे बहुत बड़ा वैज्ञानिक सत्य छिपा हुआ है। हमारा दर्शन इसी सत्य पर आधारित होना चाहिए। जिस दिन यह आधार विनिर्मित होंगे, उसी दिन दो पृथक् लगने वाली धाराएँ भी समन्वित हो जायेंगी, क्योंकि दोनों एक ही सत्य के दो अन्वेषक हैं।


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