आदिकालीन ऋषि परम्परा व उसकी पुनरावृत्ति

June 1995

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शान्तिकुञ्ज को देवात्मा हिमालय के आध्यात्म ध्रुव केन्द्र का प्रतीक बनाने और वहाँ की ऋषि परम्परा के समय के अनुरूप एक निराला स्वरूप देने के निमित्त बनाया गया है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है।

यमुनोत्री भगवान परशुराम की तपोभूमि है। वहीं से उन्होंने अनीति का शिरच्छेदन करने के लिए कुल्हाड़ा उपलब्ध किया था। शान्तिकुञ्ज ने अनैतिकताओं अवांछनीयताओं, कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं के विरुद्ध लोहा लिया और अनीति के विरुद्ध जो संभव था उसे करने में कमी न रहने दी। भारत अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण ही दो हजार वर्ष तक पराधीनता के पाश में बंधा रहा। सेना या शौर्य पराक्रम ही उसके पास कमी न थी, पर जाति-पाँति के भेदभाव से भीतर ही भीतर वह नारंगी की फाँकों की तरह अनेक भागों में विभक्त हो गया था। अनेकों कुरीतियों और कुबुद्धियों ने उसे घेर रखा था। उनके प्रति विरोधी मोर्चा खड़ा करने में कोई कमी न रहने दी गई। ब्रेन वाशिंग से विचार क्रान्ति अभियान से भारतीय समाज की एकता और विचारशीलता से प्रभावित करने में इस अभियान द्वारा कोई कसर न छोड़ी गयी।

गंगोत्री में भगीरथ ने तप करके गंगा का धरती पर अवतरण किया था। गायत्री को ज्ञान गंगा कहा गया है। उसे जन-जन के लिए उपलब्ध कराने में शाँतिकुँज का प्रयास असाधारण है। गंगा में सभी स्नान कर सकते हैं स्त्रियाँ भी शूद्र भी। कभी कुछ सिरफिरों लोगों ने प्रतिबंध लगा रखा था कि स्त्री और शूद्र वेद एवं गायत्री की ज्ञान गंगा में स्नान करने के अधिकारी नहीं हैं। इस प्रतिबंध को हटा देने से स्वर्गलोक में अदृश्य बन गई ज्ञान गंगा धरती पर आई और उस पारस से स्पर्श करके अनेक लोहे जैसे घटिया जीवनों ने सोने के रूप में अपने को परिवर्तित किया। अनेकों को इस कामधेनु का पयपान करने का अवसर मिला। असंख्यों इस कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर कृतकृत्य हुए। इसे भागीरथी प्रयास ही कहा जा सकता है।

केदारनाथ महर्षि चरक की तपस्थली है। अभी भी वहाँ के देवालय से आगे बढ़ने पर एक असली फूलों की घाटी विद्यमान् दिखाई देती है। पशु चराने वालों की पहुँच वहाँ नहीं होती इसलिए दिव्य फूलों की भरमार वहीं है। ब्रह्म कमल जिसकी सुगन्धि भर से व्यक्ति समाधिस्थ हो जाता है वह वहीं मिलता है। संजीवनी बूटी जैसी दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ चरक ने वहाँ से ढूँढ़ निकाली। उनके गुण दोष समझाने और समतल क्षेत्र में उगाने का चिकित्सा विधान बनाने का प्रयत्न किया।

यही कार्य शाँतिकुँज ने कर दिखाया सड़ी गली अप्रामाणिक औषधियाँ पंसारियों की दुकानों पर मिलती हैं। उन्हीं के आधार पर वैद्यों की चिकित्सा प्रक्रिया चलती है। फिर भूमि के प्रभाव से विभिन्न क्षेत्रों में उगी औषधियों के गुणों में भी भारी अंतर आ जाता है। शाँतिकुँज ने इस समस्या के समाधान का कार्य हाथ में लिया। दुर्लभ जड़ी बूटियाँ उपलब्ध कीं और उगाई इनमें इन दिनों क्या गण् पाये जाते हैं, उनमें कौन-कौन से रासायनिक तत्त्व मौजूद हैं, उसकी जाँच -पड़ताल के लिए आधुनिकतम यज्ञों से सुसज्जित प्रयोगशाला खड़ी की। इससे पता चला कि कौन जड़ी-बूटी किस रोग के निवारण के उपयुक्त रह गयी कि नहीं। इसी प्रकार यज्ञ प्रयोजन के लिए युद्ध वनस्पतियों की आवश्यकता थी। वे भी उपलब्ध नहीं हो रही थीं। इस प्रयोजन की पूर्ति शाँतिकुँज ने जड़ी-बूटी उद्यान भी यहाँ विकसित किया। फलतः इस विज्ञान ने आधुनिकतम वैज्ञानिक रूप धारण किया और उससे असंख्यों ने शारीरिक मानसिक विकास के हेतु भारी लाभ प्राप्त किया। शाँतिकुँज में कला साधना के निमित्त इसी आधार पर उपचार प्रयोग चलते हैं।

महर्षि सुश्रुत का कर्म क्षेत्र भी चरक के समीप ही था। वे चिकित्सा और साधनों के दोनों ही समन्वित प्रयत्न शल्य क्रिया के साथ करते थे। इसके लिए सर्वप्रथम वे रोगी की शारीरिक और मानसिक स्थिति का गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण करते और तदुपरान्त साधना एवं चिकित्सा का निर्धारण करते थे। यही रीति-नीति शाँतिकुँज की है। कल्प साधना की एक प्रकार की माइक्रो सर्जरी है। इस में कोई प्रयोग तब बताया जाता है जब व्यक्ति के हर स्तर की गंभीर जाँच पड़ताल कर ली जाती है। इसके लिए ऐसे बहुमूल्य परीक्षण यंत्र लगाये गये हैं जैसे अच्छे-अच्छे अस्पतालों में भी मिलने मुश्किल हैं।

व्यास जी ने बद्रीनाथ से आगे वसोधारा क्षेत्र की व्यास गुफा में पुराणों की संरचना की थी। शाँतिकुँज में प्रज्ञापुराण सृजा गया। उसके चार खण्ड प्रकाशित हो चुके। अभी और भी अनेक खण्ड लिखे जा रहे हैं जिन्हें समय-समय पर प्रकाशित किया जाता रहेगा, वेद, शास्त्र, उपनिषद्, दर्शन आदि आर्षग्रन्थों का अनुवाद और प्रकाशन तो पहले ही हो चुका है। पुनः वेदादि आर्षग्रन्थों का वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण कर प्रथम शृंखला में वेद सर्वसुलभ बनाए हैं।

शाँतिकुँज की, उसके संयोजक संरक्षक ऋषियुग्म की गतिविधियों को अग्रगामी बनाने वाला ऊर्जा स्रोत सुमेरु पर्वत के निकट है। वह युग परिवर्तन की, विनाश की, विकास की भूमिका सम्पन्न करने के लिए अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा ताना-बाना सतत् बुनता और कठपुतली की तरह सभी को नचाता रहता है।

महर्षि नारद अपना विश्राम प्रायः गुप्तकाशी में करते थे। वे संगीत के माध्यम से जन-जन की भावनाओं को तरंगित करते रहते थे। शाँतिकुँज वैसे ही असंख्य प्रचारक बनाने के लिए युग शिल्पीसत्र चलाता है। अपने समय के नालन्दा, तक्षशिला विश्वविद्यालयों से इसकी तुलना की जाती है। जैसे चाणक्य ने अपने तत्त्वावधान में प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँचाया था। युगशिल्पी विद्यालय को समय की आवश्यकता के अनुरूप इसी उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त गतिशील किया गया है।

आद्य शंकराचार्य की हिमालय तपश्चर्या प्रसिद्ध है। उनके तत्त्वावधान में चार पीठें बनी थीं। शाँतिकुँज, गायत्री तीर्थ, ब्रह्मवर्चस् गायत्री तपोभूमि, युगनिर्माण योजना की पाँच शक्ति पीठें तो प्रसिद्ध हैं ही। इसके अतिरिक्त चौबीस सौ प्रज्ञापीठें देश के कोने कोने में बनी हैं। महर्षि कौडिन्य ने एशिया के अनेक देशों में भारतीय धर्म संस्थान खड़े किये थे। बुद्ध विहार भी बने थे। इसी स्तर का प्रयास शाँतिकुँज द्वारा हुआ है। प्रायः 84 देशों में बने हुए प्रवासी भारतीयों में ज्ञानपीठों शाखाओं, प्रज्ञामंडलों की स्थापना हो चुकी है और उनके द्वारा विदेशों के हर वर्ग के व्यक्ति में युगचेतना का संदेश पहुँच रहा है।

रुद्रप्रयाग में महर्षि पतंजलि ने योग साधना की थी और अनेकों को इस विद्या में पारंगत बनाया था। शाँतिकुँज की आसन-चिकित्सा प्राणायाम-चिकित्सा आहार चिकित्सा, प्रज्ञायोग साधनाओं ने अपने समय में योग साधना को सर्वसुलभ बनाने में आशातीत सफलता पाई है। साधना सम्बन्धी नये प्रयोग बड़े उपयोगी सिद्ध हुए हैं।

महर्षि विश्वामित्र ने अपने देव प्रयाग आश्रम में बला (सावित्री) अतिबला (गायत्री) को यज्ञ रक्षा के बहाने बुलाकर श्रीराम व लक्ष्मण को प्रशिक्षण दिया था। महर्षि वशिष्ठ ने भी वृद्धावस्था में राम बन्धुओं को इसी क्षेत्र में बुलाकर साधना कराई थी। शाँतिकुँज में प्रज्ञापुत्र उत्पन्न करने के विशिष्ट प्रयास इसी स्तर के चल रहे हैं।

लक्ष्मण झूला में लक्ष्मण जी ने महर्षि वशिष्ठ जी के तत्त्वावधान में साधना की इसके अतिरिक्त पूर्वकाल में महर्षि पिप्पलाद रहते थे। वे पीपल के फलों पर निर्वाह करते थे। यह आहार कल्प है। उनके साथ रहने वाले भी आहार से मन और मन से प्राण परिष्कृत करने की प्रक्रिया चलाते थे। शाँतिकुँज में आज की स्थिति के अनुरूप अमृताशन (उबले अन्न) की कल्प चिकित्सा चलाई जाती है।

ऋषिकेश में सूतशौनिक की कथा वचन परम्परा चलती थी। वह बहुधा नैमिषारण्य में भी जन जागरण के उपयुक्त कथा वाचन और कीर्तन आयोजन एवं शिक्षण करती थी। शाँतिकुँज के युग शिल्पी गणों द्वारा शिक्षार्थियों को इस शैली से अभ्यस्त ही नहीं, प्रवीण पारंगत भी बनाया जाता है।

हरिद्वार राजा हर्षवर्धन के सर्वमेध यज्ञ के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ प्रायश्चित करके अनेकानेक व्यक्ति भविष्य की यंत्रणाओं से मुक्ति पाते रहे हैं। सर्वमेध तो अब कौन करे, पर पापों के प्रायश्चित की लहर नये सिरे से चली है। पिछले दिनों लंका पानी में डुबकी मारने भर से पाप कट जाने की कल्पना करने लगे थे। अब शान्तिकुञ्ज द्वारा अपने विश्वस्त जनों के माध्यम से पापों का प्रायश्चित कराने का नया अध्याय प्रारम्भ किया गया है। इससे आत्मपरिष्कार और लोक मंगल के निमित्त सेवा साधना बन पड़ने के उपाय पक्षीय प्रयोजन सिद्ध होते हैं।

महर्षि वैशेषिक और कणाद की परमाणु विज्ञान सम्बन्धी सफलताएँ विख्यात हैं। ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान ने अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय सम्बन्धी गंभीर शोध कार्य प्रारम्भ किये हैं। इसमें अग्निहोत्री विज्ञान ही नहीं, अनेकानेक साधनाओं की प्रतिक्रिया वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षण के आधार पर सम्पन्न की जाती हैं। अब तक इस प्रयोग परीक्षण का उत्साह भरा प्रतिफल सामने आ है। भविष्य के लिए आशा है कि बुद्धिवाद एवं प्रत्यक्षवाद को अध्यात्म की गरिमा से सहमत किया जा सकेगा।

इसके अतिरिक्त अर्वाचीन सन्तों, ऋषियों के अनुकरण का प्रयास शाँतिकुँज द्वारा ही पूरी तत्परता के साथ किया जा रहा है। कबीर, समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि दयानन्द आदि की कार्यपद्धति में से जितना अंश कार्यान्वित किया जा सका है किया जा रहा है। बुद्ध की 'बुद्धं शरणं गच्छामि’ धर्म शरणम् गच्छामि’ संघं शरणं गच्छामि’ की योजनाएँ बौद्धिक क्रान्ति, नैतिक क्रान्ति, सामाजिक, क्रान्ति, के नाम से कार्यान्वित की जा रही हैं और उन्हें प्रचारकों-परिव्राजकों के माध्यम से व्यापक बनाया जा रहा है। अनसूया अरुन्धती परम्परा का दर्शन भी शाँतिकुँज में आकर इन्हीं आँखों से किया जा सकता है।

वेदांगों की 6 शाखाओं में एक गणना ज्योतिष की भी होती है। उसे भी अनेक ऋषियों के परिश्रम से विनिर्मित एक महत्त्वपूर्ण शास्त्र कहा जा सकता है। इस विद्या के नवीन आचार्य भास्कराचार्य, आर्यभट्ट, वाराह मिहिर आदि प्रसिद्ध हैं। प्रचलित अंकगणित के हिसाब से किसी भी ग्रह की गति पूरे घण्टों या मिनट में नहीं उतरती इसलिए बात तब बने जब प्रत्येक ग्रह-उपग्रह का एक स्वतंत्र पंचांग बने। पर ऐसा संभव न होने से पृथ्वी को ही एक केन्द्र बिन्दु मानकर पंचांग बनाये गए हैं इसके प्रतिपादनों में प्रायः अन्तर पड़ता रहता है। जिसके लिए विधान है कि समय-समय पर दृश्य गणित के आधार पर जो अन्तर पड़े उसे ठीक करते रहना चाहिए। पर ऐसा मुद्दतों से नहीं हुआ। फलतः ग्रहाचार में इन दिनों काफी अन्तर आ गया है। इसे ठीक करने की शुद्ध गणित की दृष्टि से नितान्त आवश्यकता है। फिर इस प्रसंग में एक आवश्यकता यह पड़ती है कि जन्म इष्ट सही निकालने के लिए उसी क्षेत्र को पंचांग होना चाहिए सो इतना परिश्रम कौन करे? जो आदमी जहाँ जन्मा है वहाँ का स्थानीय पंचांग बनाने का कष्ट किससे बन पड़े?

इसके अतिरिक्त पुराने ग्रहों की स्थिति में नई खोजों ने भारी अन्तर डाल दिया है। चन्द्रमा अब पूर्णग्रह नहीं माना जाता। मात्र पृथ्वी का उपग्रह रह गया है। यूरेनस, नेपच्यून, प्लूटो यह तीन ग्रह और सम्मिलित हो गये हैं। राहु केतु के सम्बन्ध में भी झंझट है। ऐसी दशा में ज्योतिष शास्त्र की सही गणना होने के उपरांत ही किसी सही फलित की आशा की जा सकती है। इस महाकठिन कार्य को भी शाँतिकुँज ने अपने कंधों पर लिया है। प्रामाणिक वेधशाला (स्टोन आब्जर्वेट्री) बनाई है। दूरदर्शी मूल्यवान यंत्र खरीदे जा रहे हैं और नया दृश्य गणित ब्रह्मवर्चस् पंचांग पुनः प्रकाशित करना आरम्भ किया जा रहा है। ज्योतिष क्षेत्र की एक महती आवश्यकता पूर्ण होगी। इसे भी ऋषि कार्यों का जीर्णोद्धार ही कहा जा सकता है।

इसके अतिरिक्त भी और कितने ही प्रयास हैं जो अदृश्य रूप से चल रहे हैं। वृत्तासुर के कारण देवताओं को जब इन्द्रवज्र की आवश्यकता पड़ी थी, उसकी पूर्ति दधिचि ने अपनी अस्थियाँ देकर की थी और संसार को सर्वनाश के मुख में जाने से बचाया था। प्रायः उसी स्तर का संकट अब

पुनः आ खड़ा हुआ है। चारों ओर से सूक्ष्म जगत पर अनेकानेक वृत्तासुरों के आक्रमण हो रहे हैं। ऐसे में गायत्री महाशक्ति की महापुरश्चरण साधना रूपी ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान द्वारा जिसकी प्रथम पूर्णाहुति इसी वर्ष 1995 में नवम्बर में 4, 5, 6, 7, कार्तिक पूर्णिमा को आँवलखेड़ा में में सम्पन्न होगी, एक दधिचि स्तर का पराक्रम पूरे गायत्री परिवार द्वारा संपन्न हो रहा है। निश्चित ही उसमें प्रमुख भूमिका उस ऋषितन्त्र की है जिसने गायत्री परिवार की आधारशिला रखी, अपने तपोबल से जिसे इतना विराट बनाकर खड़ा कर दिया। परम पूज्य गुरुदेव व परम वंदनीय माता जी ने जन-जन की सुरक्षा के लिए वह कवच प्रदान किया है जिसे पहनने के बाद कोई भी आसुरी सत्ता आक्रमण नहीं कर सकती, न ही कोई अहित कर सकती है। समय की आवश्यकता है कि जनसाधारण इन सभी प्रयासों की गंभीरता समझें व स्वयं को ऋषियुग्म की तपःस्थली से ऋषि परम्पराओं की कार्य स्थली से जोड़े रहने का प्रयास करें व इस सम्बन्ध को अक्षुण्ण बनाए रखें। इसी में उनका हित है।


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