‘ओजस्’ के संवर्धन का राजमार्ग

June 1995

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अन्नमय कोष यों देखने में अस्थिमज्जा का स्थूल पिण्ड मात्र प्रतीत होता और ऐसा लगता है, जैसे शरीरचर्या की आवश्यकता पूरी करने तक ही यह सीमित है, पर आत्मवेत्ता बताते हैं कि बाह्यावरण से आगे चलकर यदि इसका अध्ययन किया जाय, तो जो स्वरूप सामने आयेगा, वह सूक्ष्म क्षमताओं से भरा हुआ होता है। यह क्षमता उसके प्रत्येक घटक का सम्मिलित प्रभाव है - ऐसा वे मानते हैं।

किसी भी क्षेत्र में उच्चस्तरीय साधक का सारा शरीर उसकी मुख्य साधना में सहयोगी बन जाता है। श्रेष्ठ चित्रकार जब किसी चित्र की कल्पना करता है, तो उसके शरीर की हर इकाई उसके स्पन्दनों से प्रभावित होती है। शरीर की हलचल में उस कल्पना के स्पन्दन समाविष्ट हो जाते हैं। तथा निर्जीव तूलिका सामान्य रंगों में ही जीवन्त चित्र का निर्माण कर देती है। वाणी के साधक गायक के मन में जो भाव उभरते हैं, वह उसके हाव-भाव तथा स्वर लहरी में न जाने कहाँ से कैसे गुँथ जाते हैं और उसमें अद्भुत प्रभाव पैदा कर देते हैं। अपने कार्य के प्रति निष्ठावान् चिकित्सक के चर्मचक्षुओं और माँसपेशियों में न जाने क्या विशेषता आ जाती है कि वह रोग के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म चिन्ह तथा गंभीर-से-गंभीर स्तर को पकड़ लेता है।

इन साधकों के चमत्कारों के पीछे यही तथ्य छिपा है कि उनके अन्नमय कोष की हर इकाई उनके अन्दर की सूक्ष्म सम्वेदनाओं को अनुभव करने, स्वीकार करने तथा उसके अनुरूप प्रभाव पैदा करने में सूक्ष्म हो जाती है। उसके संस्कार उसके अनुरूप हो जाते है। किसी भी उच्चस्तरीय साधना के लिए, विज्ञजन से लेकर उपासना तक के लिए अपने अन्नमय कोष की ऐसी ही सुसंस्कृत, सुयोग्य, सक्षम स्थिति में लाना आवश्यक होता है। उसके लिए उसकी मूल इकाइयों को विशेष रूप से गढ़ना-ढालना पड़ता है। इसे ही अन्नमय कोष का परिष्कार-विकास की साधना कहा जाता है।

प्रश्न उठता है कि अन्नमय कोष की समूल इकाइयों को वाँछित ढंग का बनाया जा सकता है क्या? उत्तर ‘हाँ’ दिया जा सकता है। इसकी पुष्टि भारतीय दर्शन की सनातन मान्यता तथा वर्तमान वैज्ञानिक शोधों, दोनों ही आधारों पर होती है। वस्त्र आदि तो जैसे बन गये, सो बन गये। कैनवास को मखमल में नहीं बदला जा सकता, क्योंकि वह जड़ संस्थान है किन्तु शरीर तो चेतनायुक्त है। उसमें नये कोषों का निर्माण तथा पुरानों का विघटन संभव ही नहीं, वह तो उसकी एक स्वाभाविक एवं अनिवार्य प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया धीमी पड़ने से ही मनुष्य शरीर जरा-जीर्ण होने लगता है। बुढ़ापा और कुछ नहीं, अन्नमय कोष में नवीन स्वस्थ कोशिकाओं की संरचना तथा पुरानों के निष्कासन की गति शिथिल हो जाना मात्र है। इस प्रक्रिया को व्यवस्थित नियमित बनाकर शरीर संस्थान में क्रमशः इच्छित परिवर्तन लाये जा सकते हैं।

सामान्य व्यक्तियों में भी अन्नमय कोष की इकाइयों में परिवर्तन होता ही रहता है, किन्तु उसकी कोई व्यवस्था, योजना न होने के कारण एक ढर्रा भर चलता रहता है। सामान्य रूप से किसी भी फैक्टरी में पुराने पुर्जों तथा पुरानी मशीनों के स्थान पर नये पुर्जे एवं नई मशीनों को स्थापित करने का क्रम चलता ही रहता है। उससे एक ढर्रे का उत्पादन निकलता भी रहता है, किन्तु कोई कुशल उद्योगी जब अपने उत्पादन के स्तर बढ़ाने व नयी वस्तुएँ उत्पादित करने की योजना बनाता है, तो फिर ढर्रे का क्रम पर्याप्त नहीं। उस स्थिति में लक्ष्य को ध्यान में रखकर सूझबूझ के साथ हर परिवर्तन व्यवस्थित ढंग से करना होता है। पुर्जों और मशीनों से लेकर औजार तथा कच्चे माल की व्यवस्था भी उसी योजना के अनुरूप करनी होती है। अपने शरीर की हर कोशिका को एक सजीव पुर्जा, औजार, मशीन मानकर उन्हें लक्ष्य के अनुरूप बनाना, उसके लिए उपयुक्त आहार-विकार अपनाना योग साधना के लिए आवश्यक हो जाता है।

सामान्य व्यक्ति के अन्नमय कोष तथा योगी के अन्नमय कोष में अन्तर क्यों? वह किस प्रकार सम्पन्न होता है? इसे एक सामान्य उदाहरण से समझा जा सकता है। बिजली की लाइन में विद्युत तारों में बहती है। उन्हें सहारा देने के लिये खंभे रहते है। तार और खंभों के बीच में ऐसे उपकरण लगे रहते है, जो बिजली को खंभों से होकर पृथ्वी में प्रविष्ट होने से रोके रहें उन्हें कुचालक इन्सुलेटर कहते हैं सामान्य वोल्टेज की विद्युत के लिये तार खंभे तथा इन्सुलेटर सामान्य ही चल जाते है किन्तु उच्च वोल्टेज की बिजली अधिक मात्रा में प्रवाहित करनी हो तो उसके लिये यह सभी उपकरण वरिष्ठ स्तर के लगाने पड़ते हैं। यहीं बात सामान्य व्यक्ति तथा विशिष्ट स्तर के साधक के साथ लागू होती है। सामान्य जीवनक्रम में सामान्य शारीरिक विद्युत की ही आवश्यकता पड़ती है किन्तु उच्च लक्ष्यों के लिये अधिक प्रखर शक्ति तरंगें पैदा करनी होती है। उनका संवेदन, संचार करने के लिये अधिक शक्ति संस्थान की आवश्यकता स्वाभाविक रूप से पड़नी ही चाहिये इसीलिये साधक को अपने अन्नमय कोष के परिष्कार उसकी पुष्टि और विकास के लिये ध्यान देना विशेष प्रयास करना होता है, तभी वह प्राणमय, मनोमय विज्ञानमय और आनन्दमय कोशों के विकास में सहायक बनने तथा उनकी विकसित स्थिति के साथ तालमेल बिठाने में समर्थ हो पाता हैं।

उल्लेखनीय है कि तालमेल निर्जीव घटक नहीं बिठा सकते। वह तो चेतना सम्पन्नों के लिये ही संभव है। अन्नमय कोष की हर इकाई हर कोशिका को आज के वैज्ञानिक भी स्वतंत्र जैविक घटक मानने लगे है। हर सेल में उसका हृदय न्यूक्लियस होता है उसके श्वास संस्थान को वैज्ञानिक भाषा में माइट्रोकांड्रिया कहते है। हर कोशिका में गाल्जी एप्रेटस होता है जो उसके पाचन संस्थान का काम करता है। हर कोष अपनी जैसी नई अनुकृति पैदा कर सकता है। हर सेल में विशिष्ट जैवीय विद्युत होती है जिसे उसका प्राण कहते है इस प्रकार हर कोशिका एक स्वतंत्र जैविक घटक के रूप में अपने अस्तित्व को बनाये रखते हुए शरीर संस्थान से अपना तालमेल बिठाये रखती हैं।

सामान्य व्यक्ति की स्थिति में यह तालमेल बढ़ती आयु के साथ बिगड़ने लगता है इसी कारण से शरीर तंत्र में बाधक के लक्षण उभरने और प्रकट होने लगते है। चेतना विज्ञान के मर्मज्ञ साधक इस व्यक्तिक्रम को व्यवस्थित करने में समर्थ होते है अस्तु काल प्रभाव से वे अप्रभावित बने रहते है। अनेक शरीर देखने से ऐसा प्रतीत नहीं होता कि वे लम्बी उम्र जी चुके। अपनी वास्तविक आयु से भी काफी कम व के दिखाई पड़ते है। यों शोध के उपरान्त विज्ञान ने कुछ ऐसे तथ्य ढूँढ़ निकाले है। जिनका यदि ध्यान रखा जाय तो अन्नमय कोष के स्थायित्व को कुछ समय तक बनाये रखा जा सकता है पर यह अवधि भी अल्प ही है जिसके उपरान्त शरीर कोषों की क्षरण प्रक्रिया पुनः आरंभ हो जाती है और देह अपने स्वाभाविक धर्म की तरह उसे फिर से स्वीकार लेती है। शरीर कोषों पर सुनिश्चित असर पड़ता है कई बात तो यह प्रभाव लक्षण के रूप में अन्नमय कोष में ही पहले उभरता है। विष खा लिया जाय, तो कोशाएं निष्क्रिय बनने लगती है उपचार में विलम्ब हुआ, तो मृत्यु तक आ धमकती है। इसी प्रकार शरीर के स्वभाव के विपरीत यदि बादी प्रकृति का कोई आहार ग्रहण कर लिया गया तो काया सूज जाती है। संग दोष मन के माध्यम से शरीर को कितना नुकसान पहुँचाता है। यह कोई छुपा तथ्य नहीं। प्रतिकूल परिस्थितियों के दबाव से काया जल्द ही ढलने लगती है इसका प्रमाण शरीर पर उभर आयी झुर्रियाँ देने लगती है। परिवेश व्यक्ति करता है-इसका उदाहरण ढूँढ़ना हो तो उस घटना का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें एक नाविक को व्हेल द्वारा निगल लिये जाने और फिर उसका पेट चीर का बाहर निकलने जितने मध्यान्तर तक में उसकी त्वचा अपना स्वाभाविक रंग त्याग कर ऐसी श्वेत पड़ चुकी थी, जो लम्बे उपचार के पश्चात् भी सही नहीं हो सकी। पर्यावरण का प्रभाव तो आज प्रत्यक्ष हैं। दूषित वातावरण में रहकर व्यक्ति किस तरह रोग-शोक का शिकार बनता और अपने लिये स्वास्थ्य संकट न्यौत बुलाता है, इसे बताने की आवश्यकता नहीं।

इस प्रकार आहार विहार, परिस्थिति और पर्यावरण के संदर्भ में शरीर विज्ञानियों का स्वास्थ्य से संबंधित जो निष्कर्ष है, वह सही कहा जा सकता है। इन कारकों पर यदि कारकों पर यदि समुचित ध्यान दिया गया, तो शरीर-स्वास्थ्य को कुछ अधिक समय निरोग रखा जा सकता है, इसमें दो मत नहीं, पर एक निश्चित समय के उपरान्त शरीर-कोशाओं का क्षरण पुनः आरंभ हो जाता है और वार्धक्य उभरने लगता है। इस किन्हीं भौतिक उपचारों द्वारा रोक पाना संभव नहीं।

चेतनाविज्ञानियों की इस बारे में एक सलाह है। वे कहते है कि जीवन-ऊर्जा का बड़े पैमाने पर होने वाले हास को यदि रोका जा सके तो इससे भी अन्नमय कोष को प्रभावित किया जा सकना संभव है। उनका सुनिश्चित मत है ऊर्जा की अधिकता देह तंत्र को दृढ़ता और मजबूती प्रदान करती है। दुरुपयोग की स्थिति में काया की आवश्यकता-पूर्ति करने में वह अक्षम होती है, इसलिये आहार के अभाव में व्यक्ति की जो दशा हो जाती है, वैसे ही दुर्बल एवं कमजोर अन्नमय कोष के घटक बनने लगते है। इस अवस्था में वह अपनी स्वाभाविक क्रिया को भली−भाँति करने विफल होते है। यही विफल होते है। यह विफलता विभिन्न प्रकार की गड़बड़ियाँ के रूप में असहयोग के रूप में असहयोग के रूप में सामने आती है।

योग साधक अपनी ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ा कर व्यय को घटा लेते है, अतः शरीरचर्या में प्रयुक्त होने के बाद भी उसका एक बड़ा अंश बचा रह जाता है। इस संरक्षित विद्युत से घटक कोशाओं क्रियाशीलता में मंदता नहीं आने पाती, जिससे उनके मध्य पारस्परिक तालमेल भी निभाता रहता है। तालमेल बने रहने से समस्त कार्य तंत्र चुस्त-दुरुस्त बना रहता हैं यह अवस्था यदि बराबर बनी रहे, तो अन्नमय कोष नित नवीन स्थिति में अवस्थान करता प्रतीत होगा। योग इस स्थिति को आसानी से प्राप्त कर लेते है इसलिये उनके बायोलॉजिकल एज (कायिक आयु) और क्रोनोलॉजिकल एज (मियादी आयु ) भारी अन्तर दिखाई पड़ता है।

विवेकानन्द के समकालीन योगी य वह बाबा के बारे जाता था कि वे कई वर्षों के थे, पर देखने में 60-65 वर्ष से किसी भी प्रकार अधिक नहीं लगते थे। बंगाल के प्रसिद्ध सन्त श्यामाचरण के पिछले जन्म में भी साधना मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ इस बीच उनकी आयु 25-30 वर्ष के नवयुवक जितनी प्रतीत होती थी, जबकि उनके वास्तविक आयु कई सौ वर्ष बतायी जाती थी। हिमालय की कन्दराओं में अब भी अनेक ऐसे होती है जिनकी उम्र के बारे में सही सही अनुमान लगा पाना संभव नहीं।

तालमेल चाहे वह अन्नमय कोष के कायिक घटकों के सम्बन्ध में हो अथवा दैनिक जीवन के क्रिया व्यापार के संदर्भ में यदि व लड़खड़ाया तो समस्त तंत्र की ही तरह जीवन तंत्र भी जिस तरह काया की घटक कोशाओं के बीच सामञ्जस्य से अन्नमय कोष स्वस्थ समुत्र स्थिति में बना रहता है वैसे ही स्वस्थ समाज के लिये व्यक्ति के मध्य का सम्बन्ध सुमधुर होना चाहिए, तभी ओजस्वी अप्रतिम कोष की तरह तेजस्वी समाज का निर्माण हो सकेगा।


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