त्राटक योग साधना का एक ऐसा अंग है, जिसका अभ्यास योगीजन दीर्घकाल से करते रहे है। यों तो इसकी अनेक विधियाँ है, कई प्रतीकों का उपयोग बताया गया है पर आकाश त्राटक एक ऐसी विधि है, जिसका यदि सही-सही अभ्यास हो गया, तो साधक आत्म साक्षात्कार तक प्राप्त कर सकता है।
साधना विज्ञान के आचार्यों का मत है कि इसका अभ्यास यदि भस्त्रिका और अनुलोम-विलोम प्राणायामों के उपरान्त उच्चस्तरीय साधकों द्वारा किया जाय, तो अपेक्षाकृत कम समय में ही साधक की स्थिरता परिपक्व होने लगती है और दिव्य अनुभूतियों का द्वारा खुल जाता है।
यह त्राटक बैठ कर या लेट कर किसी भी स्थिति में किया जा सकता है। जिनका आसन सिद्ध न हुआ होता वे ज्यादा देर किसी एक आसन पर बैठ नहीं पाते ऐसे में बार-बार मन उचटने के कारण उनका ध्यान ठीक प्रकार नहीं लग पाता। ऐसे साधकों को लेट कर यह साधना करना अधिक सुविधाजनक रहता है। अनुभवी लोगों का कथन है कि इस मुद्रा में बैठने की तुलना में कम समय में ही स्थिरता आ जाती है। सुविधानुसार दोनों में से किसी एक के चयन के पश्चात् आकाश की ओर स्थिर दृष्टि से देखने का अभ्यास आरम्भ करना पड़ता है। शुरू में आंखें अनभ्यस्त होती है, अतः उसे धीरे-धीरे कर इसका अभ्यास दिलाना पड़ता है। प्रारम्भ में थोड़े समय की ही अपलक दृष्टि रखनी चाहिए। जितने समय तक आँख खुली रखने में कोई असुविधा महसूस न हो, उतने क्षण तक खुले नेत्र से आकाश पर दृष्टि जमाये रखना चाहिए। दर्द होने पर नेत्र मूँद लेने चाहिए। इस प्रकार धीरे-धीरे कर आंखें स्थिर होने लगती हैं। सही-सही अभ्यास होने पर नेत्र एक-से-दो मिनट के भीतर ही स्थिर हो जाते है। आरम्भ में यह समय 10-15 मिनट भी लग सकता है, किन्तु इस प्रक्रिया में किसी प्रकार की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए, अन्यथा नेत्रों को हानि पहुँच सकती है।
आमतौर पर आकाश नीलवर्ण का दिखाई देता है, किन्तु जब स्थिरता आती है, तो आकाश के इस स्वाभाविक रंग में परिवर्तन होना शुरू होता है। हल्के गुलाबी, नीला अथवा हरे रंग की एक पर्त आकाश में दृष्टिगोचर होती है। कभी रंग बदल कर मटमैला और हल्का नीला हो जाता है और नीचे प्रकाश युक्त पर्त दिखाई पड़ती है। ऐसा भी हो सकता है कि नीला रंग हरे रंग में परिवर्तित हो जाय और नीला एवं हरा एक साथ अलग-अलग भी दिखाई दे सकते है। जब अभ्यास अधिक बढ़ता है, तो नीलवर्ण पूर्णतः ओझल हो जाता है और केवल प्रकाश ही शेष रह जाता है। इस प्रकाश में नेत्र स्थिर होते ही आनन्द की हिलोरें उठने लगती है। मन चाहता है कि घण्टों इस स्थिति में बैठे रह कर उस उज्ज्वल प्रकाश को निहारते रहें और आनन्द से सराबोर होते रहें। यही स्थिति आत्म साक्षात्कार की भूमिका तक पहुँचने में सहायक बनती है।
अभ्यास के दौरान आँखों के सामने से आकाश का ओझल होना एक अद्भुत घटना है। इसे प्रगति का चिन्ह समझना चाहिए। ओझल होने का अभिप्राय यह है कि स्थूल नेत्रों से गोचर होने वाले भौतिक संसार का अस्तित्व नहीं रहा, वह मिट सा गया। संसार के अभाव का अहसास होने पर ही ईश्वर प्रकट होते है। जब यह अभाव पूर्ण रूपेण भासने लगे, तो विश्व के कण-कण में ईश्वर की अनुभूति होती है। चारों ओर ईश्वरीय चेतना के दर्शन होने लगते है। जगत की स्थूलता का जब नाष होता है तो उसका स्थान उसकी निमित्त सूक्ष्म सत्ता ले लेती है। इस स्थिति में अनेकता और भिन्नता नष्ट होकर एकता की प्रतीति कराने लगती है। सभी प्रकार की साँसारिक वासनाएँ और चिन्ताएँ समाप्त हो जाती है और भीतर आनन्द की अद्भुत निर्झरिणी प्रवाहित होने लगती है, इस आनन्द को पाकर साधक धन्य हो जाता है। इसके सामने सभी भौतिक आकर्षण फीके पड़ जाते है। और अन्ततः समाप्त हो जाते है। यह स्थिति आकाश त्राटक के साधक को सहज ही प्राप्त हो जाती है।
उक्त साधना करते समय नेत्रों के आगे दीवार, तार, खम्भा अथवा अन्य कोई भी वस्तु पड़ती हो, तो वह एक से दो होती प्रतीत होगी। यदि ऊपर गगन में कोई बादल का टुकड़ा हो, तो वह भी पहले दो में विभाजित होता दृश्यमान होगा, पीछे दो के एक हो जायेंगे। यह अनुभूति तब होती है, जब एकाग्रता बढ़ने लगती है और नेत्र करीब-करीब स्थिर हो जाते है। अतः इसे प्रगति का लक्षण कहा जा सकता है।
त्राटक के साधक की इस प्रकार की अनुभूति वस्तुतः उस गूढ़ दर्शन को ही उजागर करता है कि परमात्मा एक है और जीवात्मा उसी की सृष्टि उसी की अंशधर है, वह उसी से उत्पन्न होती और अनन्तः उसी में विलीन हो जाती है। एक का दो होना और दो का पुनः एक बन जाना इसी रहस्य का द्योतक है। अभी तक तो पुस्तकों के अध्ययन और सत्संग के आधार पर ही साधक यह मानता चला आया था कि जीवात्मा परमात्मा का अंश है और उसी से पृथक् होकर उसने पंचतत्वों का यह कलेवर धारण किया है, पर अब जब साधना के मध्य उसे इस प्रकार की अनुभूति होती है, तो वह सोचने लगता है कि यह स्वप्नवत् संसार ही वस्तुतः उस पूर्ण सत्य को समझ पाने के मार्ग में बाधक बना हुआ था। बाह्य संसार के मिटते ही दोनों का विलय-विसर्जन एकत्व और अद्वैत की स्थिति का स्पष्ट आभास मिलने लगता है और ‘पूर्णमदः ‘पूर्णमिदं........ ‘ का तत्त्वज्ञान स्फुट होने लगता है। गणित के साधारण विद्यार्थी को यह असमंजस हो सकता है कि पूर्ण में से पूर्ण को घटाने या जोड़ने पर पूर्ण किस प्रकार शेष रहेगा? परन्तु अध्यात्म मार्ग के पथिकों के लिए इसमें कोई उलझन नहीं दिखाई पड़ती और साधना क्षेत्र में वह जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है, वैसे-ही-वैसे सत्य का साक्षात्कार होने लगता है, जिसे वह अब तक सिद्धान्त रूप में स्वीकारा था, उसका प्रत्यक्षीकरण हो जाने से वह पूर्ण संतुष्ट होकर प्रश्न से परे की भूमि में प्रतिष्ठित हो जाता है। इस अवस्था में जब वह जीवात्मा की पूर्णता को अनुभव करता और उत्पत्ति, स्थिति, एवं विनाश की तीनों दशाओं को स्वप्नवत् देखता है, तो उसे इस असार संसार का रहस्य समझ में आता है। इसी के पश्चात् उसके भीतर से एक अलौकिक शान्ति प्रस्फुटित होती है, उसका शरीर भाव मिटता और आत्मभाव जाग्रत होता है। इस स्थिति में परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहता। यही आत्म साक्षात्कार है। ईश्वर दर्शन इसे ही कहते है। जीवात्मा की चरम परिणति यही है। यहीं से उसकी संसार-यात्रा आरम्भ होकर अन्ततः यहीं समाप्त होती है। एक का दो होना तथा दो का फिर से एक ही सत्ता में विलय-विसर्जन इसी मर्म को उद्घाटित करता है। त्राटक का साधक इसे सरलतापूर्वक समझ लेता है।
साधना-अभ्यास ज्यों-ज्यों पुष्ट होता जाता है वैसे-ही-वैसे अनेक प्रकार के दिव्य-दर्शन होने लगते है। पंच तत्त्वों में आकाश सबसे सूक्ष्म है। वह बिल्कुल पोला व शून्य है। उसका कुछ भी आकार नहीं है। जब नेत्र स्थिर होते, तो साधक को विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं। आकर्षक प्राकृतिक दृश्य, मनमोहक उद्यान, चित्ताकर्षक सरोवर भी दृश्यमान हो सकते है, किन्तु विशेष रूप से ऋषियों और देवी-देवताओं की छवियों की ही इसमें प्रमुखता होती है। एक ही देवी या देवता दृष्टिपटल पर बराबर बने रहें-ऐसा भी नहीं होता। सिनेमा की रील की तरह उसमें दृश्य-परिवर्तन जारी रहता है।
आकाश-त्राटक से जब वृत्ति अन्तर्मुखी होती है, तो वह भीतर के आकाश को स्पर्श करती है। आकाश से तदाकार होने वाला आकाश जैसा ही हो जाता है। वह विराट का रूप धारण कर लेता है। अपना आपा खो देता है। उसका स्वयं का कुछ नहीं रह जाता। बंधनों से मुक्त होकर वह पक्षी की तरह आकाश में उन्मुक्त विचरण करने लगता है। आत्मानन्द की यही अवस्था है। त्राटक के अभ्यासी अन्ततः इसे उपलब्ध कर लेते और आत्मस्थ बन कर रहते है।
आकाश शून्य है। आकाश का अर्थ है-परम शून्यता-नितान्त अभाव जो है ही नहीं। सब कुछ नष्ट हो जाता है, पर आकाश ज्यों-का-त्यों बना रहता है, नहीं मिटता, उसे मिटाने का कोई उपाय भी नहीं है, वह मिटे कैसे? उसे कोई मिटाये कैसे? इसीलिए अन्य को अस्तित्व का परमात्मा का सार कहा जाता है। शाश्वत एकमात्र वही है। शेष सभी नश्वर है- परिवर्तनशील है। सभी प्रकार के नाम-रूप में परिवर्तन होता रहता है। केवल शून्य ही एक ऐसा अस्तित्व है, जहाँ परिवर्तन घटित नहीं होता, तभी तो उसकी एकमेव सनातनता स्वीकार की गई है। कबीर ने इस परम रहस्य को समझ लिया था, कदाचित तभी कहा था-गगन मंडल घर कीजै’ अर्थात् आकाश जैसा शून्य स्वयं को बना लो और शून्यता की स्थिति में निवास करो। स्वयं परमात्मा भी आकाश जैसा शून्य और विस्तृत है। ‘ॐ खं ब्रह्म’ में इसी का उद्घोष है। आकाश त्राटक की साधना करने वाला इस अवस्था को उपलब्ध करने में समर्थ होता है। त्राटक साधना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे पिछले जन्म के सभी संस्कार नष्ट होते जाते है और चित्त-शुद्धि की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। चेतना का शनैः-शनैः परिष्कार होता जाता है और चिन्तन काँच की तरह पारदर्शी और स्वच्छ बन जाता है। उसे परम सिद्धि ही मानना चाहिए। जब निर्विचार अवस्था में चित्त पूर्ण रूप से अवस्थान करता है, तो दिव्य दर्शन के दौरान उभरने वाली झांकियों का अन्त हो जाता है। यह इस तथ्य की परिचायक है कि साधके जाग्रत संस्कारों का क्षय हो गया।
यान आदि उच्च साधनाओं के लिए शरीर के शिथिलीकरण की कल्पना की जाती है, परन्तु त्राटक की यह विशेषता है कि इसमें कल्पना की अपेक्षा नहीं रहती। सफल साधक का शरीर त्राटक साधना पर बैठते ही कुछ ही समय में शिथिल होने लगता है। उसका आन्तरिक जागरण हो चुका होता है। वह हर समय उसका ध्यान साधना के लिए तत्पर और तैयार रहता है। शरीर कई चरणों में धीरे-धीरे गिरता है। बायें, दायें अथवा पीछे किसी भी ओर गिर सकता है। शरीर का लुढ़कना एक आश्वासन है कि एकाग्रता सुनिश्चित है और वह उच्च स्थिति में पहुँचने के लिए तैयार है। आकाश त्राटक में शरीर के शिथिल होने के बाद मन भी शिथिल हो जाता है। उसकी सारी उछल-कूद और चंचलता मिट जाती है। साधक एक ऐसी भूमिका में प्रतिष्ठित हो जाता है, जहाँ मन पर उसका पूर्ण नियंत्रण होता है। इस भूमिका के बाद वह शनैः-शनैः आगे बढ़ते हुए अपनी अन्तिम और चरम अवस्था में विराजमान् हो जाता है। यही आत्मदर्शन और अद्वैत की भूमिका है। इस अवस्था तक पहुँचने में आकाश त्राटक के साधक को कितना समय लगेगा, इसकी कोई निर्धारित सीमा नहीं है, फिर भी यदि वह पूर्ण आस्था और अटल विश्वास के आधार पर साधना जारी रखे, तो लक्ष्य तक पहुँचना सरल-सहज हो जाता है और समय भी अपेक्षाकृत कम लगता है।