राजा राम मोहन राय, तब बालक ही थे। उन दिनों सती प्रथा पूरे जोर पर थी। उनके बड़े भाई की मृत्यु हो गई। प्रथा के अनुसार उनकी भाभी को सती होने पर विवश किया गया।
धधकती ज्वालाओं में जिन्दा शरीर को झोंक दिया गया। वेदना से छटपटा कर वह चिंता के बाहर दौड़ी। पर क्रूर प्रथा पालकों ने उसे बाँसों से धकेल कर फिर चिंता में डाल दिया। जीवन का करुण-वीभत्स अन्त देखा न गया। हृदय उसकी चीत्कार सुनकर विचलित हो गया। मस्तिष्क में संकल्प उठा कि जब तक इस अमानवीय प्रथा का अन्त कर दूँगा, चेन से न बैठूँगा और उन्होंने यह सब कर दिखाया।
प्रति मास 40-50 हजार रुपये आमदनी वाली वकालत छोड़कर नामी बैरिस्टर देशबन्धु चितरंजन दास स्वराज्य की लड़ाई में शामिल हो गये। बापू के आह्वान पर उन्होंने अपना विपुल वैभव भरा विलासी जीवन छोड़ दिया। दास बाबू को सिगरेट और चाय पीने की बड़ी आदत थी। एक दिन बापू से मुलाकात होने पर उन्होंने कहा- लीजिये आज से सिगरेट भी छोड़ता हूँ।
धूम्रपान छोड़ तो दिया, पर पुरानी आदत होने के कारण बेचैनी महसूस हुई। भाई की बेचैनी देखकर उनकी बहन ने एक दिन कहा भाई बापू के लिये तुमने सर्वस्व त्याग कर दिया है। सिर्फ सिगरेट पीने में क्या हर्ज हैं?
देशबन्धु बहिन को समझाते हुये बोले-लोक शिक्षक को सौ फीसदी आदर्श पालन करना चाहिये। तभी उसको देखकर लोग आदर्श की ओर मुड़ेंगे। मेरे लिये सिगरेट न पीना ही ठीक है, और उन्होंने कभी सिगरेट नहीं पी।