शक्ति साधना ही हम सबका लक्ष्य हो

June 1995

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भगवान ने मनुष्य को दिव्य शक्तियों की बहुमूल्य सम्पदायें सौंपी है। यह गरिमा मानव-व्यक्तित्व में जन्मजात सन्निहित है। अतः विवशता और मूढ़ता की दशा में पड़े रहना उसके इस आत्मा गौरव के विरुद्ध है। दरिद्रता और दुर्बलता से चिपटे रहना अपना और अपने आप परमात्मा का अक्षम्य तिरस्कार है, घोर अपराध है।

मानवीय काया के प्रत्येक कल-पुर्जे में असाधारण क्षमताएँ सर्वविदित हैं। मस्तिष्क की दिव्य विभूतियों की अनन्त सामर्थ्य तो आधुनिक विज्ञान के लिये अभी अविज्ञात ही है। पर जो ज्ञात है वही कुछ कम विस्मय कारक और ऐश्वर्य सम्पन्न नहीं है। संसार की सर्वोत्कृष्ट सम्पदायें भी उसके सामने तुच्छ ही है।

हृदय की विशालता का तो कहना ही क्या। उदात्त हृदय मनुष्य ही संत और भक्त बनते है। स्वयं परमात्मा-सत्ता भी संतों-भक्तों की भाव−संवेदनाओं की गहराई और प्रखरता से स्पन्दित-पुलकित हो उठती है। उत्सर्ग, करुणा और प्रेम की एक ही झलक सृष्टि में व्यापक हलचल उत्पन्न करने में समर्थ होती है। हृदय तो ऐसी अनुपम-अनमोल भावसंवेदनाओं का अनंत आकाश है। विपुल समृद्धि-सामग्री की पूँजीभूत प्राण-प्रतिभा यदि दुर्बल बनी रहे तो इससे अधिक दुर्भाग्य और क्या हो सकता है?

दरिद्र वह नहीं है जिसके पास साधन-सुविधायें पैसा पूँजी नहीं है। इस तरह के अभाव तो व्यक्तित्व परिष्कार के लिये ली जाने वाली महत्त्वपूर्ण परीक्षायें है, साहस पुरुषार्थ को दी जाने वाली चुनौती है। उत्कर्ष के लिये प्रस्तुत किये गये उपहार हैं आत्मसाधना के मार्ग का स्वाभाविक पड़ाव है। इतिहास और शास्त्र इस तथ्य की साक्षी है। आज तक जो भी महामानव हुये है, उनकी सफलता सार्थकता महिमा-महानता का आधार बाह्य साधन और सुविधायें कभी नहीं रहीं। अधिकांश महापुरुषों को तो बाहरी दृष्टि से सफलता प्राप्त ही नहीं हुई। भौतिकता की कसौटियों पर तो वे विफल ही करार दिये जा सकते है। पर उनकी महानता एक असंदिग्ध सत्य है ऐतिहासिक तथ्य है।

महापुरुषों को उपलब्ध सम्पदायें मानव मात्र को प्राप्त हैं। जब उसके दीन-दरिद्र रह आने का कारण क्या है? विचारों-भावनाओं की क्षुद्रता एवं संकीर्णता ही इसका एकमात्र कारण है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि दरिद्रता-दुर्बलता सदैव आंतरिक होती है। इसे ही बाह्य वस्तु या जगत पर प्रक्षेपित कर दिया जाता है। शारीरिक मानसिक आलस्य-प्रमाद के कारण ही मनुष्य अभावों घिरता है। मनोबल का अभाव उसे सदा ही पीछे रखता है। प्रगति पथ में अग्रसर होने का साहसपूर्ण संकल्प उसके भीतर जगता ही नहीं, यही दुर्बलता है, जो प्रगति के मार्ग में अवरोध बनकर खड़ी हो जाती है। आंतरिक दुर्बलता एक प्रकार का आत्म-छल है। इसलिये वह अमृत आचरण छल-कपट-हिंसा-चोरी आदि से कम गंभीर अपराध नहीं, अधिक ही है, इस अपराध का दण्ड सभी को मिलता ही है। प्रकृति सबसे बड़ी न्यायाधीश है। प्रभु प्रदत्त प्रतिभा का प्रयोग न करना आंतरिक शक्ति संचय के लिये आवश्यक उद्यम न करना कर्तव्य हीनता है। अपने शरीर को नष्ट करने का प्रयास करने वाले आत्महत्या के लिये तत्पर व्यक्तियों को पुलिस पकड़ कर न्यायालय के हवाले करती है और उन्हें कारागार भेज दिया जाता है। आंतरिक शक्ति को नष्ट करने वाले भी दण्डित होते है। वे सदैव संकीर्णता के कारागार में बंदी बने रहते है। असाध्य की बात भिन्न हैं। उनके अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति में शारीरिक सामर्थ्य अर्जित करने की भी क्षमता पर्याप्त होती है, यदि वह अपने समय और श्रम का सदुपयोग सीख लें। जिन्हें कैसी भी शिक्षा नहीं प्राप्त है वे यदि दुर्बलता में फँसे रहें तब तो समझा जा सकता है। पर जिसे सामान्य शिक्षा भी प्राप्त है ऐसे व्यक्ति के लिये क्रमशः शक्ति अर्जन के द्वार सदैव ही रहते है। फिर उनका उठ न पाना समझ में नहीं आता।

समय और श्रम सदुपयोग और चरित्र को उज्ज्वल बनायें रखना तथा परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाना जिसे भी आ गया, वह शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आर्थिक, भी क्षेत्रों में निश्चित ही संतोषजनक प्रगति कर सकता है। ऐसा करना मनुष्य का सर्वोपरि कर्तव्य भी है। इस कर्तव्य की अवहेलना प्रकृति को असहा है। सृष्टि-उद्यान में ऐसे कर्तव्य विमुख लोग कूड़ा करकट के समान है। प्रकृति उन्हें झाड़ बुहार कर एक ओर फेंक देती है, ताकि वे अपनी संकीर्णता में सिमटे हुये सड़ते रहे, दूसरे सुकुमार पुष्प पौधों को भी रोग न लगा दें।

दुर्बलता ही दुष्टता को पनपाती है। गुण्डों से लेकर भूत−पलीत तक सभी अपनी धाक जमाने के लिये दुर्बलों को ही ढूँढ़ते है। बहुत अधिक सीधापन भी मानसिक सतर्कता की कमी ही है। ऐसे ही लोग ठगी का शिकार होते है। सतर्क रहने पर चोर घर के बाहर ही घूम फिरकर लौट जाते है। जेबकट सदैव उस क्षण की तलाश में रहते है, जब व्यक्ति असावधान हो। भय का भूत और मानसिक दुर्बलता का ही परिणाम होता है।

चारित्रिक दुर्बलता पैसा, प्रतिभा तथा प्रतिष्ठा तीनों को नष्ट करती है। मानसिक दुर्बलता ही चरित्र भ्रष्टता की ओर ले जाती है। निराशा निस्सहायता और आधारहीन चिन्ताएँ आशाएँ भी मानसिक दरिद्रता और दुर्बलता का ही घातक परिणाम होती है जो धीरे-धीरे व्यक्ति को खो डालती है। बड़ी से बड़ी प्रतिकूलता अस्थायी होती है। आंतरिक दुर्बलता ही उसकी अवधि बढ़ाती हैं।

मनुष्य देखने में ही छोटा और साधारण लगता है। वह अपने भीतर भरे अपार शक्ति भण्डार को याद करे तो संसार की उत्ताल तरंगों के बीच भी सदैव अडिग रह सकता है आंतरिक दुर्बलता से हताशा व कायरता उसे असंतुलित कर देते है और वह इन लहरों के थपेड़ों में खो जाता है। हड़बड़ी, उतावली और अदूरदर्शिता मनुष्य की निर्बलता के ही दुष्परिणाम है। सूझबूझ से काम लेने-वाला अपनी शक्तियों को ठीक-ठाक ढँक से ठीक समय पर प्रयुक्त करने वाला और स्नेहबल से दूसरों का सहयोग सद्भाव अर्जित कर लेने वाला व्यक्ति कभी भी दुर्बल-दरिद्र नहीं होता। उसमें प्रगति पथ पर बढ़ सकने योग्य भरपूर शक्ति होती है और कैसी भी सम्पदा प्राप्त करना उसके लिये असम्भव नहीं होता।

वस्तुतः दरिद्र वहीं है, जिसका अंतःकरण मलीन है। इस मलीनता से मुक्ति उसके स्वयं के ही हाथ में है। अपनी संकीर्णता छोड़ने पर उसे अपनी शक्तियों का बोध होने लगता हैं।

मनुष्य एक सहकारी प्राणी है इसलिये महत्त्व मात्र अपनी दुर्बलता दरिद्रतायें दूर कर लेने का नहीं जिसकी आंतरिक दुर्बलता समाप्त हो जाती है, उसके लिये यह संकीर्ण परिधि रह भी नहीं पाती। अतः दूसरों दुर्बलों के कपटों के प्रति भी उसे सहानुभूति होनी स्वाभाविक और अनिवार्य है।

दुर्बलों की सर्वोत्तम सेवा एवं सहायता यह है कि उन्हें उनकी दुर्बलता से मुक्ति होने की प्रेरणा दी जाय। इस हेतु तत्कालीन सहायता भी आवश्यक हो सकती है पर सहायता का यह प्रयोजन सदैव ध्यान में होना ही चाहिये कि दुर्बलता के आधार को ही समाप्त करना आवश्यक है। रोगी की प्राण रक्षा के लिये अनुकूल होने पर अपना रक्त दिया जाना चाहिये, पर जीवन धारणा तो स्वयं उसके अपने उत्पादित रक्त से ही संभव है।

सामाजिक अन्याय, अनीति भी सामूहिक दुर्बलता के ही कारण पनपते बढ़ते है। अपने समाज की इस दुर्बलता का आँशिक दायित्व स्वयं पर भी मानना ही चाहिये। उस हेतु समाज में शक्ति होती है और कैसी भी सम्पदा प्राप्त करना उसके लिये असम्भव नहीं होता। मनुष्य सहकारी प्राणी है। इसीलिये महत्त्व मात्र अपनी दुर्बलता दरिद्रतायें दूर कर लेने का नहीं जिसकी आंतरिक दुर्बलता समाप्त हो जाती हे, उसके लिए यह संकीर्ण परिधि रह भी नहीं पाती। अतः दूसरे दुर्बलों के कपटों के प्रति उसे सहानुभूति होनी स्वाभाविक और अनिवार्य है।

दुर्बलों की सर्वोत्तम सेवा एवं सहायता यह है कि उन्हें उनकी दुर्बलता से मुक्ति होने की प्रेरणा दी जाय। इस हेतु तत्कालीन सहायता भी आवश्यक हो सकती है, पर सहायता का यह प्रयोजन सदैव ध्यान में होना ही चाहिये कि दुर्बलता के आधार को ही समाप्त करना आवश्यक है। रोगी की प्राण रक्षा के लिये अनुकूल होने पर अपना रक्त दिया जाना चाहेंगे, पर जीवन धारणा तो स्वयं उसके अपने उत्पादित रक्त से ही संभव है। सामाजिक अन्याय, अनीति भी सामूहिक दुर्बलता के ही कारण पनपते बढ़ते है। अपने समाज की इस दुर्बलता का आर्थिक दायित्व स्वयं पर भी मानना ही चाहिये। उस हेतु समाज में शक्ति संचार करने के लिये प्रयास आवश्यक है। अनीति को दण्डित करने के लिये सामर्थ्य विकसित की ही जानी चाहिये। प्रतिरोध- प्रक्रिया में स्वयं को आघात के डर से समाज में अनीति-अन्याय को फैलते देना भी दुर्बलता ही है।

परमात्मा का पुत्र दीन-दुर्बल रहने के लिये उत्पन्न ही नहीं हुआ। शक्ति ही परमसत्ता का स्वरूप है। शक्ति साधना जितनी समझ होगी, उतना ही आत्म-विकास हुआ माना जाएगा साधना के केन्द्र पर यदि ध्यान दिया जाय तो समग्र व्यक्तित्व की समवेत साधना होती चलती है मनुष्य-जीवन का यही प्रयोजन एवं सार्थकता है।


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