दो वस्तुओं के परस्पर घुल-मिल जाने पर तीसरी नयी वस्तु बन जाती है। नीला और पीला रंग यदि मिला दिया जाये तो हरा बन जाता है। रात्रि और दिवस के मिलन को संध्या तथा दो ऋतुओं की मिलन बेला को संधिकाल के नाम से पुकारा जाता है। अध्यात्म क्षेत्र में दो प्रमुख आधार आत्मतत्त्व की उपलब्धि के लिए है। योग एवं तप इन दोनों को सम्मिलित कर देने पर जो तीसरी आकृति सामने आती है, उसे सेवा कहते हैं। जहाँ आदर्शों के साथ तादात्म्य स्थापित करने की प्रक्रिया योग कहलाती है, वीं, लोभ, मोह, अहंकार विलास आदि बंधनों-कुसंस्कारों को निरस्त करने के लिए किया गया संघर्ष तप कहलाता है। यह संघर्ष सत्य प्रयोजनों के सत्प्रवृत्ति संवर्धन के निमित्त ही किया जाता है।
योग व तप के दोनों सरंजाम जुट जाने पर सेवा भावना का उदय होता है। योग ये उदार आत्मीयता के रूप में परमार्थ परायणता की सदाशयता की अंतःप्रेरणा उठने लगती है। उसकी पूर्ति के निमित्त अपव्यय से शक्ति स्रोतों को बचाना और उस बचत को सदुद्देश्यों के निमित्त लगाना पड़ता है। यह नियोजन ही तप है। सेवा साधना में निरत व्यक्ति योगी व तपस्वी का सम्मिलित स्वरूप होता है, यदि यह कहा जाय तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं है।
अध्यात्म क्षेत्र में भज-सेवायाम् से ‘भजन’ शब्द बना है। भजन को सीधा-सादा एक ही अर्थ है सेवा। भजन-बातें दिखावा, कर्मकाण्ड, भक्ति का प्रदर्शन, जोरों से नामोच्चारण इत्यादि नहीं अपितु ‘सेवा’। सेवा भी किस की? इसका एक ही उत्तर है-आदर्शों की। आदर्शों का समुच्चय ही भगवान है। स्थायी सेवा वही है जिसमें व्यक्ति को पीड़ा से मुक्ति दिलाने साधन दिलाने के साथ अपने पैरों पर खड़े करने के साथ, इन सबके एकमात्र आधार आदर्शों के प्रति उसे श्रेष्ठतम बना दिया जाय। यही सेवा सच्ची सेवा है। उसे पतन निवारण व आदर्शों के साथ संयुक्तीकरण भी कह सकते हैं। दुखी को सुखी व सुखी को सुसंस्कृत बनाने का अत्याधिक आधार एक ही है आदर्शों को आत्मसात् करना। किसने कितना भजन किया, कितना आध्यात्मिक परिष्कार उनका हुआ, उसका एक ही पैमाना है। वह यह कि सेवा धर्म अपनाने के लिए उसके मन में कितनी ललक उठी-लगन लगी अन्दर से मन हुलस उठा। यही व्यक्तित्व का सही मायने में परिष्कार भी हैं