व्यक्तित्व की अनगढ़ता मिटाते हैं-अध्यात्म उपचार

July 1995

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भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सूक्ष्म शक्ति की प्रखरता काम करती देखी जा सकती है। जीवन की गरिमा और सफलता उसके स्थूल वैभव में सन्निहित नहीं है, जैसी कि आम मान्यता है। उसका वर्चस्व सूक्ष्म चिन्तन द्वारा किये गये आत्म निरीक्षण और आत्मा-निर्माण में सन्निहित है। इसी कारण चिन्तन की अनगढ़ता न सिर्फ स्थूल अंगों को प्रभावित करती है, अपितु सूक्ष्म अवयवों पर भी अपना असर डाले बिना नहीं रहती।

उदाहरण के लिए उस आम धारणा को लिया जा सकता है, जिसके बारे में मोटे तौर पर यह समझा जाता है कि आहार से रक्त बनता है और रक्त की शक्ति से शरीर में गर्मी और ऊर्जा उत्पन्न होती है, पर बारीकी से देखने पर विदित होता है कि आहार को रुधिर में परिवर्तित करने वाली एक प्रणाली और भी है और वही अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण भी है। स्वचालित नाड़ी संस्थान तथा चेतन द्वारा उनके नियंत्रण संचालन की बात भी अब मोटी बात ही रह गयी है। मस्तिष्क एवं नाड़ी संस्थान को दिशा प्रेरणा और सामर्थ्य प्रदान करने वाले केन्द्र और भी सूक्ष्म है। उनके निरीक्षण से ज्ञात हुआ है कि शक्ति और अशक्ति के मूल आकार और भी अधिक गहराई में छिपे हुए है तथा पिछले दिनों वे प्रायः अविज्ञात ही बने रहे है। यह तथ्य तब और अधिक सुस्पष्ट हो जाता है, जब घी दूध जैसे मोटे बनाने वाले पदार्थों से वंचित व्यक्ति भी मोटे होते चलते है और चिकनाई एवं पौष्टिक आहार में डूबे रहने वाले भी एक उपेक्षित और निरर्थक जैसी अपनी स्थिति है। अगली कल यही काया जरा जीर्ण होने वाली है आँखों में मोतियाबिन्द, कमर-घुटनों में दर्द, खाँसी, अनिद्रा जैसी व्याधियों घायल गधों पर उड़ने वाले कौओं की तरह आक्रमण की तैयारी कर रही हैं।

अपाहिज और अपंग अपाहिज और अपंग की तरह कटने वाली यह जिन्दगी कितनी भारी पड़ेगी। यह सोचने को जी नहीं चाहता। वह डरावना और घिनौना दृश्य एक क्षण के भी आँखों के सामने आ खड़ा होता है तो रोग रोम काँपने लगता है पर अवश्यम्भावी भवितव्यता से बचा जाना सम्भव नहीं? जीवित रहना है तो इसी दुर्दशा ग्रस्त स्थिति में पिसना पड़ेगा। बच निकलने का कोई रास्ता नहीं क्या यही मैं है क्या इसी निरर्थक विडम्बना के कोल्हू के चक्कर काटने के लिए ही मैं जन्मा? क्या जीवन का यही स्वरूप है मेरा अस्तित्व क्या इतना ही तुच्छ है?

आत्मा चिन्तन कहेगा नहीं नहीं आत्मा इतना हेय और हीन नहीं हो सकता वह इतना अपंग और असमर्थ पराश्रित और दुर्बल कैसे होगा? यह तो प्रकृति के पराधीन पेड़ पौधों जैसा मक्खी मच्छरों जैसा जीवन हुआ। क्या इसी को लेकर मात्र. जीने के जन्मा सो भी जीना ऐसा जिसमें न चैन न खुशी न शान्ति न आनन्द न संतोष यदि आत्मा सचमुच परमात्मा का अंश है तो वह ऐसी हेय स्थिति में पड़ा रहने वाला नहीं हो सकता। या तो मैं ही हूँ नहीं नास्तिकों के प्रतिपादन के अनुसार या तो पाँच तत्वों के प्रवाह में एक भंवर जैसी बबूले जैसी क्षणिक काया लेकर उपज पड़ा हूँ और अगले ही क्षण अभाव के विस्मृति गर्त में समा जाने वाला हूँ या फिर कुछ हूँ तो इतना तुच्छ और अपंग हूँ जिसमें उल्लास और सन्तोष जैसा कोई तत्व नहीं है यदि में शरीर हूँ तो हेय हूँ अपने लिए और विकृत चिन्तन की ओर है। इससे स्पष्ट है कि बुरे चिन्तन के बुरे प्रभाव से सूक्ष्म संस्थान भी सर्वथा अप्रभावित नहीं रहते यह पाश्चात्य दृष्टिकोण है। प्राच्य चिन्तन के मतानुसार बुरे चिन्तन का बूरा असर पड़ता तो है जब उस उत्पन्न विकृत को शोधने और सुधारने की बारी आती है तो मात्र दृष्टिकोण का परिष्कार ही पर्याप्त नहीं होता जैसा कि पश्चिम के मनोविज्ञानी अब मानने लगे है कि विचार तंत्र को सही कर लेने मात्र से विकृतियों का उन्मूलन संभव है पर भारतीय अध्यात्म इससे भी गहराई में उतर कर समाधान ढूँढ़ता और कहता है कि जब तक अन्तःचेतना के उस उद्गम उत्सव का स्पर्श नहीं कर लिया जाय, जिसे साधना क्षेत्र में आस्था श्रद्धा भावना आकांक्षा के नाम से पुकारा जाता है तब तक बनने वाली नहीं इन दिनों इसके अनेक उदाहरण भी देखें जाते है कई बार रोगी को अच्छी से अच्छी चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के बावजूद भी परिणाम निराशा जनक सामने आता है और उसकी स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहती है पर जब मरीज की आस्था चिकित्सक के प्रति इस स्तर तक सुदृढ़ बना दी जाती है कि उसे गहन विश्वास हो चलता है कि उक्त डॉक्टर का उपचार उसे अवश्य ठीक कर देगा तो दावा के स्थान पर प्लेसिबो (चीनी की गोली) का प्रयोग भी उसे ठीक करने लगता है और बीमार शीघ्रता से स्वास्थ्य लाभ करता दिखाई पड़ने लगता है यह दवा नहीं श्रद्धा की परिणति है जिसका चमत्कारी परिणाम, जादुई असर प्रस्तुत करता है।

विज्ञान आज इसी की उपेक्षा कर रहा है और उथले स्तर के प्रयोग परीक्षणों में इसका समाधान खोजने की कोशिश कर रहा है। यह ठीक है कि अधिकाँश शारीरिक पेचीदगियाँ ‘हारमोन’ नामक रसस्रावों से सम्बन्धित होती है, पर यह भी सत्य है कि ऐसी कठिनाइयाँ बाहर से ऐसे रस अथवा इस स्तर के रसायन शरीर के भीतर पहुँचा कर स्थायी रूप से दूर नहीं की जा सकती। यह तो उपचार का मोटा और उथले स्तर का तरीका है। जब भीतर का उपार्जन ही बन्द हो जा, तो बाहर से पहुँचाई मदद कब तक काम देगी? बात तब बनती है, जब उत्पादन के केन्द्र स्वतः ही अपने स्रावों को घटा या बढ़ाकर शरीर आवश्यकता की पूर्ति करते रह सकें। उपचार का उद्देश्य तो तभी पूरा हो सकता है, पर स्थूल उपादानों से बने विज्ञान को यह स्थिति हाथ आ नहीं रही है। आये भी कैसे? कमरे के अन्दर प्रवेश करने वाले द्वारा की जगह दीवार को टटोला-टमड़ा जाय, तो भीतर घुसना कैसे संभव हो सकता है? विज्ञान के साथ यही विडम्बना जुड़ी हुई है कि उसकी गहराई तक पैठ नहीं हो पा रही है। अगले दिनों अध्यात्म विज्ञान यही सम्पन्न करने जा रहा है। तब न इतनी गंभीर बीमारियाँ समाज में रहेंगी, न पनपेगी।

ओछी भावनाएँ अन्तरात्मा में जमी न हों और क्षुद्रता प्रदान करने वालों पर महानता के संस्कार जम जाएँ, तो शरीर को ही नहीं, मस्तिष्क को भी बड़ा बनाने वाले हारमोन उत्पन्न होंगे। आने वाले समय में यही होगा, यह होकर रहेगा। इन दिनों स्थूल को अधिक महत्व देने के कारण ही शारीरिक -मानसिक विकृतियाँ इतने बड़े पैमाने पर पनपी है। आहार-विहार का प्रभाव इसी पर पड़ता है और औषधियों एवं उपकरणों से उपचार इसी का किया जाता है। इससे तनिक गहराई में उतरने पर सूक्ष्म शरीर की सूक्ष्म चेतना काम करती दिखाई पड़ती है। बोलचाल की भाषा में इसे मन अथवा मस्तिष्क कहते हैं। चिन्तन, वातावरण तर्क, वितर्क, नशा एवं रसायन जैसे तत्वों से इसे प्रभावित-उत्तेजित किया जा सकता है। मनोविज्ञान के माध्यम से इसे ही परिष्कृत संतुलित किया जाता है।

तीसरा भाग इन दोनों से ऊपर है, जिसे कारण शरीर, हृदय, अन्तःकरण आत्मचेतना आदि नामों से पुकारते हैं? इसका सम्बन्ध मनुष्य की आस्था, श्रद्धा, आकांक्षा एवं भावना से है। आस्थाओं के आधार पर जीव की अन्तरंग सत्ता का प्रकटीकरण होता है। हारमोन इसी स्तर की स्थिति में प्रभावित होते हैं, इसीलिए यदि उन्हें चाहें तो संचित प्रारब्ध अथवा संगृहीत संस्कार की एक परिणति भी कह सकते है। यह संचय इस जन्म का भी हो सकता है पिछले जन्मों का भी। परिवर्तन एवं उपचार इस स्तर की स्थिति का भी हो सकता है, पर वे प्रयत्न होने उसी प्रकार के चाहिए, जो आन्तरिक सत्त की गहराई तक प्रवेश कर सकें और अपना प्रभाव उस पृष्ठभूमि तक उतार सके।

किन्तु इन दिनों पाश्चात्य मनोविज्ञान सूक्ष्म शरीर की सूक्ष्म भूमिका तक ही अपनी पहुँच बना सका है, इसलिए विज्ञान से तनिक ही ऊपर उठ मनोवैज्ञानिक सुधार संशोधन के प्रयास करते पाये जाते हैं, जो गहराई में जमी विकृतियों को उखाड़ फेंकने के लिए पर्याप्त नहीं है। विचार संशोधन और परिमार्जन से आगे बीमारी जन्मने और बढ़ने की संभावना को टाला जा सकता है, पर जहाँ प्रश्न कारण सत्ता में समायी विकृति को हटाने-मिटाने का उपस्थित होता है, इस स्तर का प्रयास अपर्याप्त साबित होगा और पुरुषार्थ इतना कठोर करना पड़ेगा कि हम उस भूमिका में पहुँच अन्तस् की उस सत्ता को प्रभावित कर सकें, जिसे समस्त स्थूल शरीर का निमित्त कारण माना जाता है। चूँकि उपचार इसी भूमिका में संभव है, अतः प्रधानता भी इसे ही मिलनी चाहिए।

यह उपचार क्या हों, कैसे हों, यह उतना विस्तार यहाँ नहीं बताया जा सकता किन्तु एक तथ्य स्पष्ट किया जा सकता है कि हमारे ऋषिगणों ने हमारी जीवन जीने की दैनन्दिन प्रक्रिया के इस तरह साधना उपचारों से बाँधा है कि उन्हें जीवन में उतारने वाला कभी कारण शरीर की दृष्टि से व्याधिग्रस्त हो ही नहीं सकता। सिम्पैथेटिक पैश्रासिम्पेथेटिक सिस्टम इड़ा व पिंगला नाड़ी के रूप में हमारे स्नायु संस्थान का हृदय मानी जाने वाली स्पाइनल कार्ड रूपी कुण्डलिनी शक्ति के चारों ओर विद्यमान रह स्थान-स्थान पर पारस्परिक संबंधों के गुच्छक बनाकर रसस्राव करते रहते है। इस पूरे संस्थान को आसन मुद्रा, बंध, प्राणायाम, हठयोग के विभिन्न उपचार ध्यान साधनाएँ आदि गहराई तक प्रभावित करते है। सूक्ष्म से भी गहरे जाकर नाड़ी गुच्छकों को उत्तेजित कर रसस्रावों द्वारा व्यक्ति का भावकल्प कर देने वाले यह प्रयोग स्वयं में अनूठे व रहस्यमय हैं। यदि इनकी गहराई तक जानकारी न भी हो किन्तु प्रारम्भिक प्रयास उचित मार्गदर्शन के साथ किया जा सके तो प्राणाग्नि को उद्दीप्त प्रज्वलित कर अपना व औरों का हित किया जा सकता है। यह विद्याशास्त्र सम्मत भी है व विज्ञान सम्मत भी। जीने का आनन्द लेना ही तो सभी को इस दिशा में एक कदम उठाना ही चाहिए।


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