गुरुवर के सहचर (Kavita)

July 1995

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तुमने शंख बजाया-स्वर लाखों की नींद उड़ा गये। महाकाल के सहचर तुम-हम तब सहचर बन आ गये॥

बढ़ा धरा पर दुराचरण था, मनुज दुखी था पीर से। महाकाल ने तुमको भेजा-कसो इसे जंजीर से॥

तुम युग व्यापी संकट पर प्रलयानल बन कर छा गये॥ सुप्त समस्त भूमि मण्डल था, रहा बेखबर इस गति से।

बहते थे बस-सब प्रवाह में काम न लेते थे मति से॥ तुमने जी अँगड़ाई हम शैया तज तब संग आ गये॥

करी तपस्या-हिमगिरि की ठंडक में भी जाकर तपे। भोजन की सीमितता रखकर प्राण परिजनों के कँपे॥

तुम थे अंश अनादि ब्रह्म के जगहित जहर पचा गये॥ चली लेखनी, जन जन के, मस्तिष्क विकार सुधारने।

सत शिव के अंकुर बोकर प्रज्ञा का प्राण निखारने॥ पढ़ने वालों के विचार पलटे सत्पथ पर आ गये॥

हमने किया सिर्फ इतना-घर-घर में वह वितरित किया। काम तुम्हारा था पर अपने लिये पुण्य अर्जित किया॥

इतने में ही “पुत्र तुम्हारे” हम सारे कहला गये॥ युग परिवर्तन की मशाल तुमने दी वह है साथ में।

जब तक यह चल रही साँस वह रहेगी हाथ में॥ निकलें प्राण लिये इसकी समझो कि लक्ष्य हम पा गये॥

- माया वर्मा


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