तुच्छता से महानता की ओर

July 1995

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फूल का अपना अलग भी महत्व है पर वह नहीं जो माला में गुँथे रहने पर होता है। एकाकी फूल किसी महापुरुष या देवता के गले में नहीं लिपट सकता। यह आकांक्षा तो सूत्रात्मा को आत्म समर्पण कर माला में गूँथने के बाद ही पूरी हो सकती है। व्यक्तिवादी एकाकी, स्वार्थी-संकीर्ण मनुष्य समूहगत चेतना से अपने को अलग रखने की सोच सकता है। दूसरों की उपेक्षा कर सकता है उन्हें क्षति पहुँचा सकता है और इस प्रकार अपने उपार्जन को शोषणात्मक उपलब्धियों को, अपने लिए अधिक मात्रा में संग्रह कर सकता है पर अन्ततः यह दृष्टिकोण अदूरदर्शिता पूर्ण सिद्ध होता है। पृथकता के साथ जुड़ी दुर्बलता उसे उन सब लाभों से वंचित कर देती है, जो समूह का अंग बनकर रहने से ही मिल सकती थी।

उँगली हाथ से कटकर अलग रहने की तैयारी करते समय यह सोचती है कि मैं क्यों सारे दिन हाथ का आदाब बजाऊँ क्यों उसके इशारे पर नाचूँ। इसमें मेरा क्या लाभ? मेरे परिश्रम और वर्चस्व का लाभ मुझे क्यों न मिले? यह लग रहकर ही हो सकता है। इसलिए अलग ही रहना चाहिए। अपने भ्रम और उपार्जन का लाभ स्वयं ही उठना चाहिए। यह सोच कर हाथ से कटकर अलग रहने वाली उँगली कुछ ही समय में देखती है कि उसका अनुमान गलत था। शरीर के साथ जुड़े रहने पर उसे जो जीवनदाता रक्त मिलता था, वह मिलना बन्द हो गया। उसके अभाव में वह सूखकर सड़ गई। उस सड़े टुकड़े को छूने में भी लोगों ने परहेज किया। जब कि हाथ के साथ जुड़े रहने पर वह भगवान का पूजन करती थी। हाथ मिलाते समय बड़ों के स्पर्श का आनन्द लेती थी। महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखती थी। बड़े काम करने का श्रेय प्राप्त करती थी। पृथक् होने के साथ-साथ वह सारी सुविधाएँ भी समाप्त हो गयीं। उँगली नफे में नहीं घाटे में रही।

ठीक भी है, ईंटों के समन्वय से भवन बनते हैं। बूँदों के मिश्रण से बादल बनते हैं। परमाणुओं का सहयोग पदार्थ की रचना करता है। अवयवों का संगठित स्वरूप शरीर है। पुर्जों की घनिष्ठता मशीन के रूप में परिणत होती है। पंच-तत्वों से मिलकर यह विश्व सृजा हैं पंच प्राण इस काया को जीवित रख रहे हैं। दलबद्ध ही समर्थ सेना है। कर्मचारियों का गठित समूह ही सरकार चलाता है। यदि इन संघटकों में पृथकतावादी प्रवृत्ति पनपे और डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग-अलग पकने लगे तो जो कुछ ‘महान’ दिखाई पड़ता था तुच्छ में बदल जाएगा।

तुच्छता अपना अस्तित्व तक बनाए रखने में असमर्थ है। प्रगति सिर्फ पारस्परिक सहयोग पर निर्भर हैं दूसरों को पीछे छोड़कर एकाकी आगे बढ़ जाने की बात सोचने वाले उन संकटों से अपरिचित रहते हैं जो एकाकी के अस्तित्व को ही संकट में डाल सकते हैं। उँगली हाथ से कट कर अलग से अपने बलबूते पर प्रगति की कल्पना भर कर सकती है। व्यावहारिक क्षेत्र में उतरने पर कड़वी सच्चाई सामने आती है कि अलगाव लाभदायक दिखता भर है, वस्तुतः लाभदायक तो सामूहिकता ही है।

मानवीय प्रगति का गौरवशाली इतिहास उसकी समूहवादी प्रवृत्ति का ही सत्परिणाम है। बुद्धि का विकास भी सामूहिक चेतना के फलस्वरूप ही सम्भव हुआ। बुद्धि ने सामूहिकता नहीं विकसित की। सहयोग की वृत्ति ने बुद्धि का विकास संभव किया है। हमें समूह का अंग बनकर रहना चाहिए। अपने को समाज का एक घटक अनुभव करना चाहिए। प्रगति एकाकी नहीं हो सकती। सुविधाओं का उपभोग एकाकी किया जाय तो उसकी अगणित विकृतियाँ उत्पन्न होंगी। बाहर ईर्ष्या-द्वेष बढ़ेगा आक्रमणकारी बढ़ेंगे और व्यसनों की भरमार आ धमकेगी। अन्तर को चोर जैसी आत्मग्लानि खाने लगेगी और परिवार में आपा-धापी पैदा होगी। व्यक्तिगत बड़प्पन के प्रयत्नों को ही तो स्वार्थ कहा जाता है। स्वार्थी सम्मान नहीं तिरस्कार प्राप्त करता है। उस मार्ग पर चलते हुए उत्थान नहीं पतन ही हाथ लगता है। संकीर्णता की परिधि में आबद्ध पोखर का जल सड़ेगा और सूखेगा ही। स्वच्छता और सजीवता प्रवाह के साथ जुड़ी हुई है। बहता हुआ जल ही सराहा जाता है। समुद्र बादलों को देता है। बादल जमीन को देते हैं। जमीन नदियों के द्वारा उस जल को पुनः समुद्र में पहुँचा देती है। यही क्रम विश्व की स्थिरता और हरीतिमा, शान्ति और शीतलता का आधार है। हम अपने को विस्तृत करें। सबको अपने में अपने को सबमें देखें। आत्माओं को चमकती हुई परमात्म सत्ता में समझें। यदि ऐसा कर सके तो हमें व्यक्तिवाद की तुच्छता छोड़कर समूहवाद की महानता ही वरण करनी पड़ेगी।


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