खुदा परस्ती ने दिखाया कारुँ का खजाना

July 1995

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बेशर्म कहीं का।’ सरदार की आँखें गुस्से से लाल हो गयीं। फड़कते होठों से उन्होंने डाँटा। पास में तो महज एक बूढ़ा ऊँट है और हिम्मत इतनी।

‘कसूर माफ हो।’ अरब अपमान सह नहीं सकता। अगर उसे रोशन का खयाल न होता तो तेग बहार चमकती होती। लेकिन वह समझ नहीं सका था कि उसने गलती क्या की है? आखिर वह काना कुबड़ा नहीं है। बदशकल भी नहीं है और कमजोर भी नहीं है! अरब न तो रोजगार करता है और न खेती। किसी नखलिस्तान की चढ़ाई में वह भी दुश्मन से आधे दर्जन ऊँट और बड़ा-सा तंबू छीन सकता हैं सरदार के और उसका तंबू भी लूट का ही है।

‘जैसे कारुँ का खजाना इनके वालिद ने इन्हीं के लिए रख छोड़ा हो।’ सरदार की तेज जबान पूरे कबीले में मशहूर है। ‘कल की सुबह तुम्हें मेरे कबीले में नहीं मिलना चाहिए। तुम जानते हो कि मैं अपने उसूल का पक्का हूँ और दुबारा माफ की दरखास्त कतई कबूल नहीं होगी। मुँह काला करो।’ बूढ़ा जोर से चिल्ला रहा था। उसकी आदत से वाकिफ होने की वजह से किसी ने खयाल नहीं किया और कोई आया नहीं।

‘मैं तेरे टुकड़े नहीं खाता और कबीला तेरे बाप की पुश्तैनी जायदाद है।’ आदमी के सब्र की भी एक हद होती है। बहुत छोटी हद होती है। बहुत छोटी हद होती है अरब के सब्र की। 'शाम को पंचायत होगी और वही फैसला करेगी कि मैं कबीला छोड़ दूँ या तू अपनी सरदारी कायम रखने के लिए मेरे साथ तेग के दो हाथ करेगा।’ एक झटके से वह तंबू के बाहर चला गया। उसने परवाह नहीं की कि बूढ़ा क्या बड़बड़ा रहा है।

इस कबीले में सरदार ही सब कुछ नहीं हैं वह महज मुखिया है कबीले का। उसका मुखियापन भी तभी तक है, जब तक कोई दूसरा उसे ललकार न दे या हर ललकारने वाले को वह नीचा न दिखाता रहे। कबीले का सरदार सबसे बहादुर और मजबूत आदमी ही रह सकता था। आज बूढ़े सरदार को, जो बूढ़ा होकर भी फौलाद का बना जान पड़ता था, नौजवान महमूद ने ललकार दिया।

‘महमूद!’ उसने देखा कि तंबू के दरवाजे से चिपककर रोशन बाहर खड़ी है। शायद उसने अपने अब्बा की और उसकी बातें सुन ली थीं। कुर्ते का एक किनारा पकड़कर खींच लिया था उसी ने। ‘मेरे अब्बा का लिहाज, उसका गला भरा था। चुपचाप रोती खड़ी रही वह।

‘पगली है तू।’ उसने अपने हाथों से आँसू पोछ दिये। दोनों साथ-साथ खेले हैं और अब भी साथ-साथ बकरियाँ चराते हैं। रोशन से पूछकर ही महमूद उसके अब्बा से कहने गया था कि वह अपनी लड़की का निकाह कर दे उसके साथ। तू समझती है कि मैं बूढ़े को मार डालूँगा?

‘वह खुदकुशी कर लेगा।’ रोशन जानती है कि पंचायत ही सब छोटे बड़े झगड़ों का फैसला करती हैं कभी भी महमूद को कबीला छोड़ने को पंचायत नहीं कहेगी। उसकी ललकार कबीले के मुताबिक़ मंजूर होगी। बूढ़ा सरदार अगर हारा तो एक साधारण अरब की तरह रहने के बदले मरना ज्यादा पसन्द होगा उसे और अगर जीता तो महमूद दोनों हालतें खतरनाक थीं।’ उसके लिए!

‘तेरा अब्बा कारुँ का खजाना चाहता है।’ महमूद ने थोड़ी देर सिर झुकाकर सोचा। ‘मैं वही दूँगा उसे। पंचायत न बुलाएँ। उसे कह देना, मैंने उसका हुक्म कबूल किया। आँखें उठाकर रोशन की ओर देखने की भी जरूरत नहीं समझी उसने। एकदम मुड़ा और चला गया। रोशन पुकार भी तो नहीं सकी। देखती रही वह उसकी ओर। देखती रही तब तक, जब तक वह दिखाई देता रहा और फिर सिर पकड़ कर बैठ गई सिसकियाँ लेते हुए।

दिन बीतते गए, उसकी धुन बढ़ती गयी। बढ़ी हुई दाढ़ी, फटे मैले कपड़े, शरीर की एक-एक हड्डी गिनी जा सकती थी। कोई बहुत गरीब अरब मुफ्ती की कदमबोसी करके उनके कदमों के पास जमीन पर घुटनों के बल बैठा हुआ पूछ रहा था।

‘तुम कहाँ से आए हो?’ मुफ्ती को उसके भोलेपन पर हँसी नहीं आयी। उसकी गड्ढे में घुस गयी आँखें किसी को भी हँसने नहीं दे सकतीं। दयावश मुफ्ती पूछ रहे थे।

‘बहुत दूर-बहुत दूर मेरे मालिक। मैं यत्रान कबीले का हूँ मुझे वहाँ से चले इतने दिन हो गए कि मैंने पूरे छः चाँद देखे रास्ते में।’ दिन को गिनने का कोई तरीका नहीं था उसके पास। महज पूर्णिमा के चाँद से उसने कुछ अन्दाज कर लिया था।

‘ओह इतनी मेहनत काबाए शरीफ के लिए।’ मुफ्ती की आँखें भर गयीं। उन्होंने युवक को बड़े आदर से देखा। काबिल तारीफ है तुम्हारी मेहनत। खुदा तुम्हारा जरूर खयाल करेगा।

‘सो कुछ नहीं मेरे मालिक।’ युवक ने सिर झुकाया।’ मैं हज करने नहीं आया। वैसे मैंने दरबारे शरीफ में बोसा दे लिया है और इस नालायक को आबे जमजम भी नसीब हो चुका है मुफ्ती के लिए यह बताना जरूरी नहीं है कि गरीब से गरीब भिखमंगा मुसलमान भी जब मक्का शरीफ करने निकलता है तो बोसा और आबे जमजम की फीस तो जरूर उसके पास होती है। अपना पेट काटकर भी वह उसे मुहैया कर लेता है।

‘फिर तुमने इतनी बड़ी तकलीफ किस मसलहत से उठायी? मुफ्ती को ताज्जुब था इस फटे हाल अरब पर। उनका ख्याल था कि महज मजहबी जोश ही आदमी को इतनी बड़ी आफत सहने की ताकत दे सकता है।’

‘मेरा बूढ़ा ऊँट रास्ते की आखिरी मंजिल पर दम

तोड़ गया। मुझे तीन-तीन दिन तक पानी भी नसीब नहीं हुआ। बहुत थोड़े नखलिस्तान पड़े मेरे रास्ते में। नखलिस्तानों के अरब हज करने वालों की खातिर करते है। और रास्ते के लिए खजूर-पानी वगैरह साथ दे देते हैं, यह कोई बतलाने की बात नहीं थी।

‘आखिर तुम चाहते क्या हो? मुफ्ती ने अपने कुतूहल को दबाया नहीं।’ दूसरे अरब सरदार जो पास बैठे थे वे भी काफी उकता चुके थे और सुन लेने की जल्दी उन्हें भी थी।

‘कारुँ के खजाने के लिए। मैंने उसी को पाने के लिए इतनी मुसीबत उठायी है। युवक ने फिर कदम बोसी की। मैं जानता हूँ मेरे मालिक कि आपसे दुनिया की कोई बात छिपी नहीं। आप ही मुझे बता सकते हैं कि वह कहाँ है।’

‘कोई नहीं जानता कि वह कहाँ है’ युवक की मजहब परस्ती की वजह से जो आदर मुफ्ती के मन में उसके लिए हो गया था, एकदम दूर हो गया। अरबों ने मुँह फेर कर हँसने की कोशिश की। मुफ्ती ने यह भी नहीं सोचा कि उसको सर्वज्ञ मानने की जो धारणा दूर के अनपढ़ कबीले वालों में है, उसको वह इस जवाब से खत्म कर रहा है।

‘आप जानते हैं आप जरूर जानते हैं मरे मालिक।’ युवक फिर कदमों पर माथा रगड़ने लगा। वह फूट-फूट कर रो रहा था।

‘कोह काकेशस में कहीं पर।’ मुफ्ती ने कहानियों में जो सुन रखा था, बतला दिया। ‘ठीक पता उसका कोई नहीं जानता। मैं भी नहीं। अगर उसका ठीक पता किसी को होता तो क्या अब भी कहीं जमीन में छिपा रहता?’ उसे निकाल न लिया गया होता?’ उसे इस मूर्ख युवक के भोलेपन पर हँसी आ रही थी और लालचीपन पर गुस्सा था।

‘तब वह किसे मिलेगा?’ अरब ने किसी की हँसी का खयाल नहीं किया।

जिसे खुदा दे। मुफ्ती ऊब चुका था उससे।

जरूर तब वह मुझे देगा। अरब ने फिर कदम

बोसी की और उठकर खड़ा हो गया। उसने यह भी नहीं पूछा कि कोह काकेशस है किस ओर?

रात दिनों की यात्रा करके आज जब वह अपनी मंजिल पहुँचा तो उसका दिल बैठ गया। ओह, इतना लम्बा कोह काकेशस। रास्ते की मुसीबतों की परवा नहीं की उसने। लगभग समुद्र के किनारे के शहरों में होता यहाँ तक पहुँचा था और उसकी मुसीबतों का अन्दाज आप भी नहीं कर सकते। मक्का से पैदल बिना दिनार लिए काकेशस की तराई तक। आदमी को यदि सच्ची धुन हो तो नामुमकिन कुछ नहीं।

यहाँ से कई सौ मील ऊपर जाकर यह काकेशस से मिल जाता है। पूछने पर एक शख्स ने उसे बतलाया था। बहुत चौड़ा है। लगभग दो सौ मील चौड़ा। इतना ऊँचा-नीचा है कि तुम उसे सीधे पार करना चाहो तो बहुत थोड़ी खास-खास जगहों से ही कर सकते हो। बतलाने वाले को क्या खबर कि उसका बयान सुनने वाले के दिल पर क्या गुजर रही है।

‘ठीक पता उसका कोई नहीं जानता।’ मुफ्ती के इन लफ्जों की असलियत उसके दिमाग में शक्ल बनकर खड़ी हो गयी थी। ‘मैं पूरी उमर नहीं ढूँढ़ सकता। काकेशस को एक सिरे से दूसरे सिरे तक पूरा-पूरा देख डालना किसी फरिश्ते के लिए मुमकिन हो सकता है। ‘अब भी वह नहीं समझ सका था कि खजाना कहीं बाहर नहीं पड़ा होगा। उसके लिए काकेशस को पूरा खोदना होगा। पता नहीं कितनी गहराई तक।

बैठ गया वह वहीं एक पत्थर पर। रास्ते की सारी थकावट जैसे आज इकट्ठा आकर उस पर लद गयी। सारी मुसीबतें जिनको उसने तिनके से भी छोटी मानकर ठुकरा दिया था जैसे आज उससे पूरा बदला वसूल कर लेगी। सिर चकराने लगा था। देह में कँपकँपी जान पड़ती थी। बड़े जोर से खाँसने लगा था वह।

‘नहीं, अब नहीं चल सकेगा वह अब उसमें एक कदम भी चलने की ताकत नहीं है। यहीं इसी चट्टान पर। अब वह इस पर से उठ भी नहीं

सकेगा। बड़ा भय लग रहा था उसे।

‘उसका यत्राव कबीला। हँसते-खेलते लम्बे तगड़े साथी। उसकी बकरियाँ। छोटे-मोटे टीले। वह खूबसूरती की पुतली रोशन। बूढ़ा खूसट सरदार। सरदार का बिगड़ना। तंबू के बाहर आँखों में आँसू भरे वह सदा की हँसी-खेलती शरारती लड़की गुमसुम बनी। उसका बूढ़ा ऊँट। एक-एक कर सारी तस्वीरें सामने आती जा रही थीं। वह चट्टान पर लेट गया था और आँखें बन्द कर ली थीं। प्यास से गला सूख रहा था। चमड़े के थैले में पानी की एक बूँद नहीं थी और होती भी तो उसमें उठकर खुद पानी पीने की ताकत कहाँ रह गयी थी आज। वह अब बैठ भी कहाँ सकता है।

रास्ते के नखलिस्तान। कबीले वालों की खातिरदारी। जईफों की दुआएँ और हमजोलियों का साथ न दे सकने का अफसोस। जईफ औरतों की स लाहें। मक्का शरीफ काबे का बोला मौलवी-मुल्लों की पैसों के लिए छीना झपटी। डाँट-फटकार बेतादाद तस्वीरें उसके सामने से गुजरती जा रही थीं।

‘जिसे खुदा दे।’ मुफ्ती की तस्वीर आखिर में आयी सामने। कितना आबरुदार है मुफ्ती। लेकिन मुफ्ती का आखिरी कलाम दिमाग में आते ही वह चौंक कर उठ बैठा। उसमें पता नहीं कहाँ से बला की ताकत आ गयी। प्यास पता नहीं कहाँ रफूचक्कर हो गयी। पता नहीं उसके बदन के किस कोने में जिन्दगी का यह जोश छिपा था।

‘मुफ्ती झूठ नहीं बोलता।’ उसके पास मुसल्ला कहाँ रखा था। उसी चट्टान पर उसने अपने फटे फटाए चद्दर को बिछा दिया। जरूर खुदा ही उस खजाने को दे सकता है। अब भी उसे याद था वही जवाब जो चलते वक्त उसने मुफ्ती को दिया था। अपने जवाब पर उसे अब भी पूरा यकीन है। कोई वजह नहीं कि वह अपना इत्मीनान खो दे। जब खुदा को ही देना है तो वह कहीं भी दे सकता है। पता भी बतला सकता है। जोश के सारे बिना वजू किए ही नमाज पढ़ने खड़ा हो गया। पानी कहाँ था वहाँ वजू करने को?

कौन गिनने बैठा था वहाँ कि वह दिन-रात में कितनी नमाजें अदा करता है। बिना रुके, बिना दूसरी बात सोचे वह बराबर एक के बाद दूसरी नमाज पढ़ता जा रहा था। ‘तेरे दरबार में कोई कमी नहीं है और न तेरे लिए कोई मुश्किल है। तेरा यह सबसे छोटा गुनहगार गुलाम कारुँ का खजाना माँगता है। महज कारुँ का खजाना। तेरा जलवा बेशुमार है मेरे मालिक! मेरी दुआ कबूल कर।

उसकी आँखें इतना पानी बहा चुकी थीं कि उनमें अब एक बूँद पानी नहीं बचा था। उसके चमड़े के थैले की तरह वे खुश्क हो चुकी थीं। भूख-प्यास नींद-इनकी हिम्मत नहीं थी कि खुदा की प्रतिष्ठा में लगे। इस बन्दे की छाया भी वे छू सकें। हर नमाज की आखिरी दुआ जब वह दोनों हाथों को इकट्ठा करके हथेली फैलाकर माँगते हुए ऊपर मुख उठाता था, तो जान पड़ता था कि उसकी नजरों से सातों आसमान फट जाएँगे। वह सातवें आसमान का मालिक जरूर कूद पड़ेगा उसकी इन नजरों से मजबूर होकर।

आज उसे पूरे नौ दिन हो चुके हैं। नमाज के लिए उठना बैठना भी अब मुश्किल होता जा रहा है। आखिर बिना खाए-पिए जिस्म कहाँ तक बदस्तूर काम कर सकता है। हाँफ जाता है वह हर बार उठने में। बैठकर उठना दूभर हो जाता है और खड़े होने पर पैर काँपने लगते हैं। सिर में चक्कर आने लगता है। बड़ी दिक्कत होती है झुककर खड़े होने में। लगता है कि वह सामने की ओर लुढ़क जाएगा।

नहीं उठ सका-आखिर जब आफताब उसकी नवें दिन की शाम की नमाज का गवाह होकर कोहकाक के पीछे जा छिपा। तब वह फिर नमाज के लिए किसी तरह उठ ना सका। माथा जमीन में टेकते ही बेहोश हो गया। जैसे का वैसे ही पड़ा रहा। इस सुनसान जगह में कौन था जो उसकी खोज खबर लेता। इन नौ दिनों में कोई चरवाहा भी उधर से नहीं निकला था।

अल्लाह पता नहीं कितनी देर बाद उठाया था उसने सिर। कहीं से उसी वक्त मुर्गे ने बाँग दी। शायद वह बाँग उसके कानों तक नहीं पहुँची। वह ठहाके पर ठहाके लगाता जा रहा था। पेट पकड़ कर हँस रहा था। क्या पागल तो नहीं हो गया।

पता नहीं कहाँ से फिर बदन में ताकत आ गयी। पता नहीं अभी भी उस हड्डियों के ढाँचे में यह ताकत छिपी थी या किसी ने इसमें जान फूँक दी थी। मामूली ताकत नहीं थी वह। वह हँसते हुए चट्टान के नीचे खड़ा हो गया और एक कोना दोनों हाथों से पकड़कर चट्टान उसने दूर फेंक दी।

कई खूबसूरत जीने नीचे जा रहे थे। किसी तहखाने का दरवाजा निकल पड़ा था। उसमें नीचे चाहे जो हो जीनो पर किसी चमकीली चीज की काफी रोशनी थी। उस अँधेरी रात में भी जीने चमक रहे थे। वह जीनो से नीचे उतर पड़ा।

मैं भी कितना नालायक हूँ। वह कुल आधे घण्टे में ही ऊपर आ गया और चट्टान उठाकर उसने फिर जीनो के ऊपर पहले जैसे ही रख दी। माना कि उसमें बहुत बड़े-बड़े बहुत चमकीले पत्थरों के ढेर हैं। पत्थर ही तो हैं वे सब। मेरे मालिक। तूने अपने नापाक बन्दे की दुआ कबूल की और उसे बताया। कौन कहता है कि मैंने ख्वाब देखा था। ये पत्थर, जीने, क्या ख्वाब हैं। लेकिन तूने इसे छिपाया है छिप ही रहने दे इसको। तेरे बन्दे को अब तेरी दुआ के अलावा और कुछ नहीं चाहिए। भाड़ में जाय कारुँ और दोजख में जाय उसका यह खजाना। खूब शैतान ने भी मुझे बेवकूफ बनाया।

उस दिन के बाद वह अलमस्तों की तरह घूमने लगा। यदा-कदा चरवाहे उसे खजूर या रोटी खिला देते। अब उसका एक ही काम रह गया था घूम-घूम कर सब को खुदा की राह पर लगाने लगा। वह सबसे एक ही बात कहता-खुदा सब कुछ कर सकता है खुदा सब कुछ दे सकता है। माँगना है तो उसी से माँगों। वहीं के लोग उसे सुलेमान वीर के नाम से जानने लगे। प्यार से उसे लोग बड़े पीर भी कहते।


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