दीर्घसूत्री ने बनें, विवेक को अपनाये

July 1995

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बच्चों की आदत तत्काल के आकर्षण पर मचलने की होती है। उनमें दूरगामी परिणामों की कल्पना कर सकने जैसी क्षमता नहीं होती। यही कारण है कि उनकी रोकथाम और डाट-डपट करनी पड़ती है। छोटे बच्चे साँप, आग बिच्छू जैसी चमकदार वस्तुओं को पकड़ने की चेष्टा कर सकते है। कारण कि उनके लिये सुहावनी लगने वाली वस्तु ही सब कुछ होती है। वे उसका लाभ-हानि समझे बिना उसे ही पकड़ने की कोशिश करते है। कई बार तो अखाद्य वस्तुओं को भी मुँह में रख लेते है।

यह बचपना शरीर के बड़े हो जाने पर भी मानसिक क्षेत्र में यथावत् बना रहता है और व्यक्ति तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ समझता रहता है। यह अनुमान उसे लग नहीं पाता कि सुहावने लगने वाले कार्य आगे चलकर कितने अनिष्ट कर सिद्ध हो सकते है। स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ सामने आने पर उन्हें प्रायः आवश्यकता से अधिक मात्रा में खा लिया जाता है। फलतः कुछ ही समय में उदरशूल अपच, उल्टी, दस्त आदि की प्रतिक्रिया आरम्भ हो जाती है। खाते समय स्वाद की अधिकाधिक पूर्ति ही ध्यान में रहती है। और यह अनुमान गले नहीं उतरता कि इसका प्रतिफल क्या हो सकता है? कामुकता का अति उत्साह भी ऐसे ही अनर्थ करता है। शरीर खोखला हो जाता है, जीवनी शक्ति घट जाती है, मानसिक कुशाग्रता विदा हो जाती है। साथ ही पत्नी का स्वास्थ्य और बच्चों का मस्तिष्क अन्धकारमय बनता है। यदि यदि अनुमान को सही रीति से जगाया जा सकना संभव हो सके तो उसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति अपने में समर्थता और प्रखरता का भण्डार भरे रह सकता है। ओजस् और तेजस् को अक्षुण्ण बनाये रह सकता है। आलस्य और प्रमाद में श्रम की कठिनाई से बचाव होता है। दीर्घ सूत्रता इसलिये अच्छी लगती है कि उसमें नियमितता अपनाने का बंधन नहीं बँधता। यह आदत अभ्यास में आते रहने पर परिपक्व भी हो जाती है और फिर छोड़ते नहीं छूटती। बहुमूल्य समय ऐसे ही आवारागर्दी में निकल जाता है। यदि समझदारी से काम लिया होता और समय का तत्परता पूर्वक सदुपयोग किया गया होता तो उतने ही समय इतनी प्रगति हो सकती थी कि योग्यता भी बढ़ती और सम्पन्नता की भी कमी न रहती। समय का सदुपयोग समझने और करने वाले इतने ही समय में महामानवों जैसे कृत्य कर गुजरते है। जितने में कि आलसी लोग जीव की गाड़ी को जिस-तिस प्रकार खींच पाते है। अथवा कोल्हू के बैल की तरह चलते हुए निरर्थक जीवन बिताते है।

कुमार्ग पर चलने, कुकर्म करने की आदत भी उन्हीं की पड़ती है, जो उनके परिणामों की भावी संभावना को आँखें खोलकर देख नहीं पाते। जिनमें समझदारी का उदय हो जाता है वे मस्तिष्क का अनुमान सही स्तर पर लगा लेते है और कुकर्म करने से पहले ही सावधान हो जाते है। जिनका शुभारंभ सत्परिणामों की सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुये होता है उन्हें आरम्भ में थोड़ा कष्ट भले ही उठाना पड़े पर वे अन्त में आनन्द भरा जीवन जीते हैं और निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर होते रहते है।

किसान को खेत के साथ कड़ा परिश्रम करना पड़ता है। घर में रखा हुआ बीज खेत में बिखेरना पड़ता है इसके बाद भी खाद पानी लगाने का सिलसिला चलता रहता है। आरम्भिक इस श्रम साधना को देखते हुये कोई अदूरदर्शी इस प्रयास को निरर्थक भी कर समता है। पर वह समय आता है जब फसल पकती है और अनाज से घर को बड़ी-बड़ी कोठरियाँ भरती है विद्यार्थियों को भी यही मार्ग अपनाना पड़ता है। वे स्नातक बनने के लिये चौदह वर्ष का अध्ययन तप करते है। पुस्तकों को खरीदने,फीस चुकने जैसे प्रयासों में प्राण-पथ से लगे रहते है। पढ़ाई के दिनों का वह श्रम उन दिनों बेकार लग सकता है किन्तु समय आता है जब वह कॉलेज व विश्वविद्यालय की पढ़ाई पूरी करके निकलता है और बड़ा अफसर बनता है। आरम्भिक दिनों में जो समय लगाना, श्रम करना और धन खर्चना पड़ता है वह समय फल देता है इसी समझदारी को तत्परतापूर्वक लिये गये दूरगामी परिणाम देने वाले निर्णय को विवेकशीलता कहते है। यह जिसमें जाग जाती है, उनमें असीम महानता से भरी सम्भावनाओं का पथ प्रशस्त कर देती है।


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