जिजीविषा ही सफलता का पथ प्रशस्त करती है

July 1995

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य साहसी प्रकृति का है, इसलिए अनेक ऐसे कार्य करने में वह सफल हो जाता है, जो आमतौर पर असंभव मालूम पड़ते हैं। यह साहसिकता उसमें नहीं रही होती, तो बहुत सारे कार्य अधूरे पड़े रहते और जिन रहस्यों पर से आज पर्दा उठ चुका है, उनका अनावरण करने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पाता। इसे मानवी संकल्प का चमत्कार ही कहना चाहिए कि उसने अन्तर्ग्रही यात्रा से लेकर खतरनाक ध्रुवीय प्रदेशों तक की सैर की, दुर्गम पर्वतों से लेकर जानलेवा समुद्रों तक को नाप डाला और उनसे सम्बन्धित अनेक ऐसे तथ्य जुटाये, जिनके लिए हम उनके ऋणी हैं। यह बात और है कि कई बार इस अन्वेषण और यात्रा में उनकी मौत हो जाती है, पर केवल इसी कारण से वे यदि इनको सम्पन्न करने से इनकार करते रहते, तो क्या आज का संसार इतनी जानकारियाँ अर्जित कर पाता, जितनी अब तक कर सका है? शायद नहीं। इस सफलता के पीछे संकल्पवानों का साहस ही नहीं, वीरगति की कथा गाथा भी जुड़ी हुई है। मरते तो डरपोक भी हैं, पर प्रशंसनीय और चिरस्मरणीय वही बन पाते हैं, जिनका जीवन उच्चस्तरीय उद्देश्यों के लिए उत्सर्ग हुआ। समुद्री अभियान और अनुसंधान इसी के प्रतीक हैं।

डच मालवाही जलपोत आरैंग मेडान भी ऐसे ही एक अभियान का द्योतक था। फरवरी 1948 में जब वह मलक्का जलडमरूमध्य से होकर इण्डोनेशिया जा रहा था, तो अचानक उससे खतरे की संकेत ध्वनि होने लगी, जिसको आस-पास के सभी जहाजों ने सुना। आसन्न संकट को समझ कर सभी जलयान उस ओर बढ़े। खतरे की ध्वनि जारी थी, तभी रेडियो पर एक संदेश गूँजा। उसमें कहा जा रहा था कि पोत के सभी कर्मचारी और कप्तान मर चुके हैं, उनका निष्प्राण शरीर यान में पड़ा हुआ है। इसके उपरान्त रेडियो पर जो आवाजें उभरीं, वह वस्तुओं के टकराने और टूटने जैसी थीं तत्पश्चात् पुनः एक मानवी स्वर सुनाई पड़ा, वह कह रहा था-अब मैं भी मरता हूँ।’ इसके बाद सब कुछ शान्त हो गया।

पड़ोस से होकर गुजरने वाले जहाजों ने जब संकटकालीन ध्वनि के आधार पर आरैंग मेडान को ढूँढ़ा तो वह जल-प्रवाह में बहा चला जा रहा था। उसकी चिमनी से अब भी हल्का धुँआ निकल रहा था। कप्तान की मौत हो चुकी थी। ह्वील हाऊस, चार्टरुम, डेक में से कहीं भी कोई जीवित नहीं था। रेडियो आपरेटर की प्राणहीन देह कुर्सी पर एक ओर लुढ़की पड़ी थी। उसकी अंगुलियाँ रेडियो ट्रान्समीटर की कुँजी पर थीं। जहाज में सवाल कुत्ता भी जीवित नहीं बचा।

निरीक्षणकर्त्ता किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके। उनके सम्पूर्ण समुद्री जीवन में ऐसी रहस्यमय घटना उन्हें पहली बार देखने को मिली। दुर्घटना को किसी टक्कर का परिणाम भी नहीं माना जा सकता था, कारण कि शवों पर किसी प्रकार की चोट का कोई निशान नहीं था। जहाज भी बिलकुल सुरक्षित था। अतः इस सिद्धान्त को अमान्य कर दिया गया। यदि इसे किसी विषैली गैस का नतीजा माना गया, तो यह बता पाना मुश्किल होगा कि डेक जैसे सर्वथा खुले स्थान में रहने वाले नाविक इससे कैसे प्रभावित हुए? प्रश्न आज भी अनुत्तरित है।

ऐसी ही एक घटना का वर्णन ‘इनविजबल होराइजन्स’ नामक पुस्तक में विनसेण्ट गैड्डिस ने किया है। सन् 1923 की गर्मियों में ‘जानसन’ नामक एक ब्रिटिश जहाज की नजर चिली की समुद्री किनारे पर बहते एक जलयान पर पड़ी। चूँकि वह पोत कुछ विचित्र दिखाई पड़ रहा था, अस्तु उसके बारे में कुछ विशेष जानने की जिज्ञासा जानसन के नाविकों को हुई। वे अपना जहाज उसके निकट ले गये। नजदीक पहुँचने पर ज्ञात हुआ कि जलयान का मस्तूल और पतवार काई से ढके हैं। जहाज का नाम यद्यपि बहुत धुँधला हो गया था, किन्तु उस पर अंकित शब्द ‘मार्लबोरो’ अभी भी स्पष्ट रूप से पढ़ा जा सकता था। जहाज की लकड़ी बिलकुल सड़ चुकी थी और उसमें यात्रियों और नाविकों के स्थान पर केवल उनके कंकाल भर शेष थे। गणना में इनकी संख्या बीस थी।

बाद में ज्ञात हुआ कि उक्त जलयान जनवरी 1890 में लिटिलटन, न्यूजीलैण्ड से ऊन लेकर चला था। इसके बाद वह 23 वर्षों तक कहाँ गायब रहा, इस बारे में कुछ भी नहीं जाना जा सका। ऐसा अनुमान है कि वह किसी बर्फीले समुद्र में फँस गया हो, पर निश्चित रूप से इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सका।

मिलता-जुलता प्रसंग ‘जेनी’ जलयान का भी है। 22 सितम्बर 1860 को जब ‘होप’ नामक जहाज ‘डे्रक’ जलडमरूमध्य के दक्षिण में एण्टार्कटिक क्षेत्र में ह्वेल का शिकार कर रहा था, तो उसे यह दुर्भाग्यग्रस्त यान दिखाई पड़ा। यान की पतवार क्षतिग्रस्त हो चुकी थी। बर्फ की पर्त जमीं हुई थी। डेक पर भी बर्फ थी। साज-सज्जा सब गिर चुकी थी। नाविकों के शव अतिशय ठंड के कारण ममी बन गये थे। कप्तान का मृत शरीर एक कुर्सी पर पड़ा था। उसके हाथ में एक कलम थी। लाँग बुक देखने से ज्ञात हुआ कि जहाज विगत 37 वर्षों तक विशाल हिमखण्डों के बीच कैद रहा। उसमें अन्तिम तिथि 4 मई, 1823 की अंकित थी, साथ ही कप्तान की टिप्पणी भी, जिसमें कहा गया था “निराहार स्थिति का आज 71वाँ दिन है। सभी लोग दिवंगत हो चुके हैं। मैं एकमात्र अकेला जीवित व्यक्ति हूँ।”

‘जोइता’ नामक जलयान का भी अन्त दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से हुआ। अक्टूबर 1944 में यह पश्चिमी सामोआ से टोकलू द्वीप समूह की ओर रवाना हुआ। अभी वह उत्तर-पश्चिम दिशा में 160 मील ही आगे बढ़ पाया था कि घने कोहरे में फँस गया। कोहरा इतना घना था कि 10 फुट तक की दूरी भी स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ती थी। इस अस्पष्टता की दशा में भी जहाज कप्तान के निर्देश पर आगे बढ़ता रहा। अभी वह थोड़ा ही आगे बढ़ा था कि किसी दूसरे जहाज का सायरन सुनाई पड़ा। वह कितनी दूरी पर है और उसकी दिशा क्या है? इसका तनिक भी अनुमान नाविक नहीं लगा सके। फिर भी पूरी सतर्कता बरते हुए कप्तान ने जहाज का इंजन बन्द करवा दिया और सामने वाले पोत को अपनी उपस्थिति का भान कराने के लिए तीन धमाकेदार विस्फोट कराये। इसके बाद सायरन की आवाज बन्द हो गई। कप्तान ने कुछ देर और इन्तजार किया। किसी प्रकार का कोई संकेत न मिलने पर उसने जहाज धीमी गति से आगे बढ़ाने का आदेश दिया। अभी कुछ ही मीटर बढ़ पाया था कि सामने से विशालकाय जहाज पूरी गति से आता दिखाई पड़ा। दोनों एक-दूसरे के इतना निकट आ चुके थे कि अब बचाव किसी प्रकार संभव नहीं था। तीव्र ध्वनि के साथ उनके बीच टक्कर हुई। सामने वाला पोत बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया। पानी वेग से उसके अन्दर प्रवेश करने लगा। कुछ नाविक एक छोटी नौका में सवार होकर बच निकले। शेष की जहाज के साथ-साथ ही जल-समाधि हो गई। ‘जोइता’ की भी कम क्षति नहीं हुई। पानी उसके भीतर भी आने लगा। कप्तान को जब यह मालूम हुआ तो उसने सभी कर्मचारियों को तत्काल बाहर निकल जाने का आदेश दिया। सब तीन-चार छोटी नौकाओं में सवाल हो गये। जहाज के अन्दर कप्तान और दो इंजीनियर रह गये। चाहते तो वे भी बाहर आ सकते थे, पर कप्तान और इंजीनियर अपना-अपना दायित्व समझकर जहाज को डूबने से बचा लेने का प्रयास करने लगे। वे छिद्रों को अलकतरे से बन्द करने लगे। एक जगह बन्द करते, तो जल दूसरी जगह से अन्दर प्रवेश करने लगता। उसे रोक पाने में सफल होते, तो कहीं अन्यत्र से पानी आने लगता। किन्तु फिर भी वे हार नहीं माने। जब यह लगने लगा कि रिसाव पर पूर्ण नियंत्रण पा लिया गया है, तभी एक बड़ा छिद्र हो गया। पानी वेग से प्रवेश करने लगा। अब उन्हें अपना जीवन भी खतरे में प्रतीत हुआ। सब बाहर निकलने की तैयारी करने लगे। किन्तु तभी एक अभियन्ता कुछ सोच कर ठिठका। अन्तिम उपचार के रूप में वह जहाज में रखी खाली बोरियों को उसमें ठूँसने लगा। कई बोरियाँ ठूँसने पर जल-प्रवाह में कुछ कमी आयी। इससे शेष दोनों का उत्साह बढ़ा, तो वे भी उनका सहयोग करने लगे। अन्ततः उसे बन्द करने में उन्हें सफलता मिल गई। उन्होंने एक बार फिर से जलयान का निरीक्षण किया। रिसाव पूरी तरह बन्द हो चुका था। किसी प्रकार सुरक्षित इससे वापस लौटा जा सकता है-यह निर्णय कर उनने जहाज को पीछे मोड़ लेने का निर्देश दिया। पोत वापस चल पड़ा और कई दिनों की यात्रा के पश्चात् पुनः सामोआ बन्दरगाह पर पहुँचा। वहाँ उसे खाली कर मरम्मत के लिए भेज दिया गया। सभी ने ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद दिया।

साहसिकता एक आध्यात्मिक गुण है। जहाँ यह जिस अनुपात में रहती है, सफलता की संभावना उसी अंश में आँकी जाती है। सत्साहस से व्यक्ति का अध्यात्म के प्रति लगाव का बोध होता है, दुस्साहस उसे क्रूर और कठोर बनाता है। इन दिनों दुस्साहसी प्रकृति के लोगों द्वारा समाज में अस्थिरता और अशान्ति ही पैदा हुई है। लूट-पाट चोरी, आगजनी, राहजनी, हत्या, अपहरण, उग्रवाद-सब मानवी स्वभाव में विकृति के कारण पैदा हुए हैं। इसका समाधान एक ही हो सकता है कि जो शक्तिशाली और साहसी एवं सामर्थ्यवान हैं और जिनसे व्यक्ति व समाज का कायाकल्प हो सकता है, उन सत्कार्यों में उनका श्रम लगे उनका और श्रेष्ठता का पक्षधर बने समुद्री यात्राएँ इसी की प्रेरणा देती हैं। और बताती हैं कि संकट की घड़ी में यदि साहस को अक्षुण्ण रखा गया, तो न सिर्फ अनेकों की जान बचायी जा सकती है, वरन् लक्ष्य को भी सफलतापूर्वक हस्तगत किया जा सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118