क्या आप भी आत्महत्या करना चाहते हैं?

July 1995

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मनुष्य की जिजीविषा साधारणतया अदम्य मानी जाती है। हम जीवित रहना चाहते हैं और जीवन को प्यार करते हैं। उसकी सुरक्षा के लिए तरह-तरह के साधन जुटाते हैं। मरण से सबको भय लगता है। प्राण-संकट की घड़ी आने पर पशु-पक्षी तक सबकुछ कर गुजरने पर उतारू हो जाते हैं। आत्मरक्षा के प्रयत्नों में सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को संलग्न देखा जा सकता है। इससे प्रतीत होता है कि न केवल मनुष्य, वरन् हर एक जीवधारी जीवन सम्पदा को सुरक्षित रखने के जिए अपनी सूझबूझ और स्थिति के अनुसार हर संभव उपाय करता है। जीवधारी को जीवन से कितना प्यार है, इसकी झाँकी दृष्टि पसार कर कहीं भी की जा सकती है, इतने पर भी मनुष्य तनिक से कारणों से उसे गँवाने और आत्मसात् करने पर कटिबद्ध हो जाता है।

जीवन शैली बहुमूल्य सम्पदा जिस कारण निरर्थक ही नहीं, असह्य बनती जा रही है, वह है-मानसिक विक्षोभ। देखने में सही प्रतीत होता है कि अमुक घटनाओं या परिस्थितियों ने अमुक व्यक्ति को आत्मसात् करने के लिए विवश कर दिया, पर वास्तविकता कुछ दूसरी ही होती है। इन लोगों को जो स्थिति असह्य प्रतीत हुई और घबराकर यह अवांछनीय कृत्य कर बैठे, वह वस्तुतः उतनी अधिक जटिल थी नहीं। उन्हीं परिस्थितियों को असंख्य लोग सहन करते हैं और कुछ तो इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें जीवन का एक सहज स्वाभाविक अंग मानकर संतोषपूर्वक दिन गुजरते हैं। यदि कठिनाइयाँ सचमुच इतनी असह्य होती तो फिर किसी के लिए भी उनमें रह पाना कितना कठिन होता।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार प्रति एक लाख में 35.09 व्यक्ति डेनमार्क में, 33.72 स्विट्जरलैंड में, 23.35 फीनलैण्ड में, 19.74 स्वीडन, 15.52 अमेरिका, 14.83 फ्राँस, 13.43 इंग्लैण्ड, 13.03 आस्ट्रेलिया, 11.40 व्यक्ति कनाडा में आत्महत्या से मरते हैं।

एमील डर्कहीम अपनी पुस्तक ‘ली स्यूसाइड’ में लिखते हैं कि बीसवीं सदी में जितनी आत्महत्याएँ हुई हैं, उतनी संसार में इससे पूर्व कभी नहीं हुई। वे कहते हैं कि वास्तव में आत्महत्या का सीधा सम्बन्ध मानवी विकास से है। समय के साथ-साथ बौद्धिक विकास जैसे-जैसे होता गया, मानवी जटिलताएँ भी बढ़ती गई। बीसवीं सदी में वह विकास तब अपने चरम पर है, तो उससे जुड़ी हुई समस्याएँ भी उजागर हुई हैं। उनके अनुसार आज के सभ्य समाज की सबसे बड़ी कठिनाई मानसिक अस्वस्थता ही आत्महत्या जैसे कठोर निर्णय का कारण बनती है। वे कहते हैं कि जंगली कबीलों में रहने वाले वनवासी चूँकि सभ्य समाज से दूर रहते हैं, इसलिए उनमें किसी प्रकार के मानसिक रोग नहीं पाये जाते, फलतः आत्मसात् जैसे मामले भी उस समुदाय में कभी प्रकाश में नहीं आते।

ऐसी बात नहीं कि साधारण पढ़ा-लिखा और सामान्य स्तर का नागरिक ही आत्महत्या करता है। कई बार विद्वान और ज्ञानवान समझे जाने वाले लोग भी इस कुकृत्य के शिकार हो जाते हैं। इनमें विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार, संगीतकार से लेकर राजनेता और वैज्ञानिक तक सम्मिलित हैं।

जर्मन विद्वान गेटे आत्महत्या करना चाहते थे, इसलिए एक धारदार चाकू बाज़ार से खरीद लाये। बहुत दिनों तक वे उसे तकिये के नीचे रखे रहे, पर हिम्मत नहीं जुटा सके, इसलिए अन्ततः आत्मघात का विचार त्याग दिया।

वायरन जिन दिनों ‘चाइल्ड हेराल्ड’ के लेखन में व्यस्त थे, उन दिनों अक्सर उन पर आत्महत्या की सनक सवार रहती, पर माँ का प्यार याद कर वे वैसा न कर सके।

यूनान के महान दार्शनिक डायोजनीज़ अपने हाथों फाँसी लगा कर मरे थे। कहा जाता है कि संसार को नजी बनाने का सपना देखने वाले हिटलर ने अपनी पिस्तौल से गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी।

‘मृच्छकटिक’ के लेखक शूद्रक आग में जल मरे थे। ‘जानकी हरण’ महाकाव्य के रचनाकार सिंहल देश के राजा की मृत्यु का शोक न सह सके और और चिंता में जल मरे। चीनी साहित्यकार लाओत्से ने भी अपनी मौत स्वयं बुलायी थी। लैटिन कवि एम्पेदोक्लीज ने ज्वालामुखी में कूदकर आत्मघात किया था। लुकेषियस ने अपने को चिरस्मरणीय बनाने के लिए ऐसा किया था। महाकवि चैटरसन ने दरिद्रता से पीछा छुड़ाने के लिए विषपान करना उपयुक्त समझा। गोर्की ने पेट में पिस्तौल चल कर उसने विदीर्ण कर डाला। आस्ट्रेलियाई साहित्यकार स्टीफेन ज्विग अपने आत्मघात का कारण बताते हुए अपनी पीछे एक पुर्जा छोड़ गये थे “अब संघर्षों से टकराने की मेरी शक्ति चुक गई है। अशक्त जीवन का अन्त कर लेना मुझे अधिक अच्छा जँचा।”

चित्रकार लडवे ने अस्पताल की चारपाई पर पड़े-पड़े ही स्वयं को गोली मार ली। एक अन्य चित्रकार बानगाँग ने भी अपना अन्त ऐसे ही किया। रॉबर्ट क्लाइव ने अपने जीवन में तीन बार आत्महत्या का प्रयास किया पर निशाना चूक जाने से हर बार वे बच गये।

मूर्धन्यों में भी ऐसे कम नहीं हैं, जिनने तनिक भी परेशानी से उद्विग्न होकर आत्मघात कर लिया हो ऐसे लोगों में सेफो, डेमोस्थनीज, बूटस, केसियस, डेमोक्लीज, गनीवाल, बर्टन, आर्थर कोबेसलर जैसे विश्व प्रसिद्ध व्यक्तित्व सम्मिलित हैं।

आत्महत्या के तरीकों में अगणित प्रकार के उपाय अपनाये जाते रहे हैं। उनमें पानी में डूब मरना, ऊँचाई से कूदना, विष का पान करना, फाँसी लगाना, आत्मदाह करना नस काट कर सम्पूर्ण रक्त को धीरे-धीरे निकाल देना आदि अधिक प्रचलित हैं। एक दुःख को हल्का करने के लिए दूसरा उससे बड़ा दुःख मोल लेना भी एक उपाय सोचा जाता रहा है, यद्यपि वह इच्छित लाभ प्राप्त करने में तनिक भी सहायक नहीं होता। अताई इलाज में एक उपचार यह भी था कि किसी के पेट में दर्द हो, तो लोहे को गर्म सलाख से उसकी छाती दाग दी जाय। इससे जलने का कष्ट इतना बढ़ जाता है कि रोगी पेट के दर्द की बात भूल जाता है। लगभग इसी स्तर का दुस्साहस यह है कि अमुक चिन्ता अथवा आपत्ति से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या जैसी बड़ी आपत्ति को अपना लिया जाय।

जिस प्रकार शरीर में अनेक प्रकार के घातक विषाणु प्रवेश करके विविध लक्षणों वाले रोग उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार मनःक्षेत्र में कई तरह की विकृतियाँ अपनी जड़े जमा लेती हैं और परिपूर्ण उन्माद न सही, उसने मिलते-जुलते उतनी ही विघातक मानसिक रोग उत्पन्न करती हैं।

डिमेंषिया प्रिकोक्स अर्थात् किशोरावस्था की हिंसात्मक सनक-डिमेंषिया पैरालिटिख अर्थात् आवेश का सामयिक दौरा मेलनकोलिया अर्थात् स्नायुविक अवसाद ग्रस्तता-न्यूस्थेनिया अर्थात् स्नायुविक असंतुलन जैसी कितनी ही विकृत मनःस्थितियाँ ऐसी हैं, जो विवेक को अस्त-व्यस्त करके रख देती है और समयानुसार जो भी उभार आता है, उसी में मस्तिष्क इतनी तीव्रगति से बहता चला जाता है, जिसमें अपने को सँभाल सकना कठिन पड़ता है।

दूसरों के क्षोभ शान्त करने के लिए स्वयं दुखी होने की स्थिति अपना लेना भी ऐसा ही विचित्र चिन्तन है, जिसे अक्सर सहानुभूति एवं सहायता के लिए अपनाया जाता है। अभिभावकों के कष्ट निवारण के लिये विवाह योग्य कन्याओं का इसलिए आत्मघात कर बैठना कि इससे उनके माता-पिता को अर्थ चिन्ता से छुटकारा मिल जायेगा, ऐसा ही दुस्साहस भरा कदम है। इनमें आदर्शवाद, उदारता, सहानुभूति जैसे तत्वों का पुट तो होता है, पर यह स्मरण नहीं रहता कि इस कदम से अपना बहुमूल्य जीवन ही नष्ट नहीं होगा, अपितु जिनके लिए यह सब किया जा रहा है, उनकी कठिनाई, चिन्ता एवं विपत्ति और अधिक बढ़ जायेगी।

प्राचीनकाल में आत्मघात को धार्मिक प्रशंसा प्रदान करने का भी प्रचलन रहा है। संन्यासियों की स्वाभाविक मृत्यु की अपेक्षा स्वेच्छा मरण की सराहना की गई है। बौद्ध और जैन धर्मों में भी मृत्यु सम्बन्धी ऐसे विधान का उल्लेख उनके धर्मग्रंथों में मिलता है। पाण्डवों का स्वर्गारोहण, मंडन मिश्र का तुषारिन संदाह, ज्ञानेश्वर की जीवित समाधि, रामतीर्थ की जल समाधि, कुमारिल भट्ट का आत्मघाती प्रायश्चित विधान जैसी अनेकानेक घटनाएँ इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है, जिन्हें सराहा ही जाता है। चित्तौड़ की रानियों का सामूहिक आत्मदाह (जौहर) और सतीप्रथा ऐसे कृत्य हैं, जिन्हें महिमामण्डित किया जाता रहा है।

उपरोक्त घटनाएँ कुछ विशेष परिस्थितियों में किन्हीं विशेष को लेकर घटित हुई अतः वह साधारण नहीं, असाधारण कही जायेगी। सबके पीछे तो नहीं पर कुछ के पीछे ऊँचा आदर्श और महान उद्देश्य था, इसलिए आत्महत्या जैसी घटनाएँ भी तब सराही गईं। आज उनकी लकीर पीटना और उन्हें परम्परा का स्वरूप देना किसी भी प्रकार समझदारी नहीं कही जायेगी। छोटी-छोटी बातों पर अथवा राजनैतिक माँगों को मनवाने के लिए आत्मदाह कर लेना, पति के मरने के उपरान्त पत्नी का जिन्दा जलने के लिए विवश करना, जल समाधि लेना सभ्य जन और सभ्य समाज का लक्षण नहीं, अपितु असभ्यता का चिन्ह कहना चाहिए। इसके पीछे भारत की मूल संस्कृति नहीं, वरन् सामयिक विचार-विकृति ही कारणभूत मानी जायेगी।

आत्महत्या को भी दूसरों की हत्या के समान ही गर्हित कर्म माना जा सकता है। दूसरे देशों में पुराने जमाने में इसे बहुत बुरा कहा जाता था और मरने के उपरान्त भी यह कुकृत्य करने वाले की भर्त्सना की जाती थी।

यूरोप में उन दिनों आत्महत्या करने वालों के प्रति बहुत अनुदार दृष्टिकोण था। उनकी लाशें सड़कों के आसपास कूड़े के ढेर में दबा दी जातीं और उसके आगे भयंकर आकृतियाँ खड़ी कर दी जाती थीं, ताकि मरने वाले की निन्दा हो और जो ऐसा करना चाहते हों, वे हतोत्साहित हों। इस प्रचलन को बदलने में डेवड ह्म, वाल्टेयर, रूसी जैसे दार्शनिकों ने आवाज उठायी अन्ततः उसे समाप्त करवा दिया। इसके पीछे उनका तर्क था कि आदमी को जीने की तरह मरने की भी आजादी होनी चाहिये।

कुरान में दूसरों की हत्या करने से भी अधिक जघन्य पाप आत्महत्या को बताया हैं यहूदी धर्म में निन्दनीय कर्म करने वाले के शोक मनाने और उसकी आत्मा की शाँति के लिये प्रार्थना करने का भी निषेध हैं। ईसाई धर्म में भी इसे घृणित पातक बताया गया है। 11वीं सदी में इंग्लैण्ड में एक कानून बना था, जिसमें आत्महत्या करने वालों की सम्पत्ति जब्त कर ली जाती थी और उसके शव को किसी ईसाई कब्रिस्तान में धार्मिक विधि से दफनाया नहीं जा सकता था।

आत्म हत्या का प्रयत्न करने वालों को रोगी माना जाय या अपराधी? इस प्रश्न पर आज भी मनःशास्त्रियों के बीच गंभीर मतभेद है। मनोवैज्ञानिकों का मत कि ऐसे लोगों का उचित स्थान जेलखाना नहीं, पागलखाना है, जबकि विधिवेत्ताओं की दलील है कि यदि हम किसी को दारुण वेदनाओं से मुक्ति नहीं दिला सकते, तो उसे ऐसी मौत मरने का अधिकार होना चाहिये, जिसमें वह पीड़ा झेलने की अपेक्षा राहत पा सके। नृतत्ववेत्ता मध्यवर्ती मार्ग अपनाते हुये उन्हें करुणा का पात्र घोषित करते है ओर ‘यूथेनेसिया’ के नाम पर उन पर सहानुभूति प्रकट करते हुये समाज को उनकी समस्याओं को हल करने का सुझाव देते हैं।

शोध अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि जिन-जिन देशों में आत्मघात की दर उच्च है, वहाँ-वहाँ मद्यपियों की संख्या भी उसी अनुपात में ज्यादा है। अनुसंधानकर्त्ताओं का कहना है कि अमेरिका, स्विट्जरलैंड, स्वीडन और डेनमार्क एवं फ्राँस में विश्व की सर्वाधिक आत्महत्याएँ होती है और मद्यपान की लत भी वहाँ उसी अनुपात में देखी गई हैं। इससे यह स्पष्ट है कि आत्महत्या का करण शारीरिक कम मानसिक अधिक हैं।

एरिक फ्राम अपनी उपरोक्त पुस्तक में एक स्थान पर लिखते है कि योरोप के सबसे अधिक शान्त, समृद्ध और लोकतांत्रिक कहे जाने वाले राष्ट्रों एवं विश्व के सर्वाधिक सम्पन्न देश अमेरिका की मानसिक स्वस्थता के क्षेत्रों में जो वर्तमान अवस्था है, उसे दयनीय ही कहना चाहिए। वे लिखते हैं कि इन राष्ट्रों का सम्पूर्ण सामाजिक आर्थिक उन्नयन का इतना ही प्रयोजन है कि उनका भौतिक जीवन सुखमय हो, सभी सम्पत्तिवान हों और वह शान्तिदायक हों, स्थिर लोकतांत्रिक व्यवस्था हो और वह शांतिपूर्ण हो। वे कहते है कि जिन देशों ने इस लक्ष्य को प्राप्त कर लिया अथवा जो इसकी प्राप्ति के सन्निकट पहुँच गये, वहाँ मानसिक असंतुलन की गंभीर समस्याएँ भी उठ खड़ी हुई है।

एरिक फ्राम के इस निष्कर्ष से स्पष्ट है कि आत्महत्या के मूल में संव्याप्त मानसिक असंतुलन का सबसे प्रमुख कारण समृद्धि है। संभवतः इसी कारण से अध्यात्मवादी चिन्तन में धनोपार्जन की छूट तो है, पर धन संग्रह पर रोक लगायी गई है। यदि यह बात सही है कि वर्तमान मानसिक अस्वस्थता की जड़ में सम्पदा की प्रधान भूमिका है, तो अर्थवेत्ताओं, तत्वज्ञानियों और समाजशास्त्रियों को मिलजुल कर कोई ऐसा हल वर्तमान संदर्भ में ढूँढ़ना चाहिए जिससे समाज भी सम्पन्न बना रहे और मनुष्य भी मानसिक दृष्टि से

विपन्न नहीं कहलाये, तभी सही अर्थों 21 वीं सदी हमारे लिये उज्ज्वल भविष्य लेकर आ सकेगी अन्यथा नहीं।

अर्थ के साथ-साथ समाज की अवांछनीय परिस्थितियाँ भी मनुष्य को विक्षुब्ध करती है। स्नेह-सौजन्य का अभाव, नैतिकता का गिरा स्तर शोषण, ठगी, विश्वासघात बेकारी, हानि बर्बादी जैसे कितने ही कारण मानव को दुःखी बनाते हैं। सामाजिक कुरीतियों के कुचक्र में कितनों को ही पिसना पड़ता है। इन प्रचलनों को बन्द करना सरकार और समाज का काम है। समाज की संरचना ऐसी होनी चाहिये, जिसमें हर व्यक्ति को निर्वाह, प्रगति और सुरक्षा के समुचित साधन प्राप्त हों कोई किसी के भी साथ अन्याय और अनीति नहीं बरत सके। इसके अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य यह भी होनी चाहिये कि स्वास्थ्य रक्षा और अर्थ उपार्जन की तरह ही चिन्तन तंत्र का सही उपयोग कर सकने की क्षमता भी सर्वसाधारण में उत्पन्न की जाय। इसके लिये मानसिक परीक्षा की एक समर्थ प्रणाली खड़ी की जानी चाहिये। इसके बिना आत्महत्या जैसे व्यापक संकट उत्पन्न करने वाले मनोरोगों का भड़कता हुआ दावानल रोका न जा सकेगा।

जीवन जीने के लिये हम सबको मिला है मरने के लिये नहीं यह तथ्य हर स्थिति में याद रखा जाना चाहिए। अनेकानेक योनियों में भटककर मानव योनि में जीव जब आता है तो इसलिये कि कर्म करते हुए अपनी मुक्ति का पथ प्रशस्त कर ले। किन्तु विक्षुब्ध मनः स्थिति में प्रेत-सा जीवन जीते हुए आत्मघाती प्रवृत्ति की ओर उन्मुख होना उसे कदापि शोभा नहीं देता। स्रष्टा के राजकुमार के रूप में मनुष्य को जो पदवी मिली है, उसका तिरस्कार न कर जीवन चुनौती के रूप में, खिलाड़ी की तरह जिया जाय तो हँसते-हँसते पुण्य प्राप्त करते हुए यह जीवन जिया जा सकता है, इसमें कोई संदेह नहीं।


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