यदि ‘अर्थ’ बन जाए अध्यात्म परायण

July 1995

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जीवन में अर्थ के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता। एक निश्चित सीमा के अन्दर वह मनुष्य और समाज के विकास के लिए आवश्यक है, पर सीमा का अतिक्रमण होने से वह अनर्थमूलक बन जाता है और विकास के स्थान पर विनाश का, शोषण और संघर्ष का कारण बनता है।

भौतिकता की दृष्टि से विचार करें, तो यह कहना गलत न होगा कि वर्तमान में हम विकास की जिन ऊँचाइयों को छू रहे हैं, वह इतिहास में अपने प्रकार का अनूठा उदाहरण है। इसका प्रमुख कारण धन है। इसे जितना महत्व इन दिनों मिला हुआ है, उतना कदाचित् ही पहले कभी मिला हो। प्राचीनकाल में अर्थोपार्जन सदा दूसरे नम्बर पर रहा है, इसी कारण से अध्यात्मवाद के आगे भौतिकवाद बौना बना रहा। आज स्थिति सर्वथा उलटी है। अध्यात्मवाद की चर्चा ही मठ-मन्दिरों तक सीमित होकर रह गई, जबकि भौतिकवाद समाज का जीवन दर्शन बना हुआ है। ऋषि काल में अध्यात्म के एकपक्षीय प्रगति से समाज को कोई विशेष हानि नहीं हुई। जो हुई, वह इतनी भर थी कि भौतिक सुविधाओं का उपभोग वह नहीं कर सका। आज भौतिक उन्नति हुई तो सही, पर उस एकांगी विकास से हित के स्थान पर अहित ही अधिक हुआ। अर्थप्रधान दृष्टिकोण ने जितनी अराजकता और अव्यवस्था इन दिनों पैदा की, उतनी शायद ही किसी दूसरे तत्व ने उत्पन्न की हो। इतने पर भी सम्पदा का महत्व यथावत् बना ही रहता है। भौतिक जीवन के लिए उसकी आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता। प्रश्न है कि जब धन भौतिक उन्नयन का निमित्त है और अवगति का कारण भी तो, फिर कोई मध्यवर्ती मार्ग ऐसा होना चाहिए, जिसमें उन्नति भी हो और अवनति से भी हम बचे रहें। ऐसा अर्थ के प्रति संतुलित दृष्टि से ही संभव है। यदि दृष्टि असंतुलित हुई और एकदम अर्थोन्मुख बनी, तो आज जैसे पतन की स्थिति पैदा होगी और यदि आर्थिक विकास पर ध्यान नहीं दिया गया, तो उसे गौण माना गया तो साज पिछड़ा कहलायेगा। आज हम प्रगति के उस मुकाम पर पहुँच चुके हैं, जहाँ भौतिक विकास की उपेक्षा कर केवल अध्यात्मवाद की वकालत नहीं कर सकते। प्राचीन समय में भले ही वह स्थिति रही हो, पर अब वह स्वीकार्य नहीं है। इसलिए एक ऐसा समन्वित दृष्टिकोण पैदा करना पड़ेगा, जिसमें भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के उत्कर्ष की पूरी-पूरी संभावना हो। इसके लिए एक ऐसे अर्थशास्त्र की रचना करनी पड़ेगी, जिसमें भौतिक उत्थान के लिए अर्थ की महत्ता को स्वीकारा गया हो, किन्तु साथ ही उसकी शुद्धता पर भी पूरा-पूरा विचार किया गया हो। नैतिक और अनैतिक अर्थ-स्रोतों में स्पष्ट विभेद ही इसकी सबसे बड़ी विशेषता होगी। जो अनैतिक स्रोत हो, उस उपार्जन से बचा जाय और उसकी निन्दा-भर्त्सना की जाय एवं नैतिक स्रोत की सराहना की जाय, साथ ही इस बात का भी ध्यान रखा जाय कि आवश्यकता से अधिक उपार्जन को समाज के काम लगा दिया जाय और उस पर उसी का नैतिक अधिकार माना जाय। इतना होने पर ही एक सर्वथा दोष रहित और समानता पर आधारित अर्थव्यवस्था विकसित की जा सकेगी, अन्यथा नहीं। वर्तमान अर्थशास्त्र का सबसे बड़ा दोष यही है कि वह नीति-अनीति में भेद नहीं करता केवल धन-संग्रह पर विचार करता है, भले ही वह वैध-अवैध किसी भी तरीके से कमाया गया हो। आधुनिक अर्थशास्त्र के प्रमुख पुरुष केनिज का इस सम्बन्ध में विचार है-हमें अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है, सबको धनी बनाना है। इस मार्ग में नीति-अनीति का हमारे लिए कोई मूल्य नहीं।” वे तो यहाँ कहते हैं-यह नैतिकता का विचार न केवल अप्रासंगिक है, वरन् हमारे रास्ते में बाधक भी।” जहाँ अनीति की इस तरह खुली वकालत होगी, वहाँ की अर्थव्यवस्था पापपूर्ण न हो, इसकी कैसे आशा की जाय? आज इसीलिए आर्थिक क्षेत्र में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच स्पर्धा छिड़ी हुई है। हर कोई अपने प्रतिद्वन्द्वी से आगे निकल जाना चाहता है। इस होड़ में तरीका शुद्ध है या अशुद्ध-इसका कोई ध्यान नहीं रखा जाता। वर्तमान भ्रष्टाचार का यही मुख्य कारण है। जब अर्थशास्त्र की मूल अवधारणा ही अनैतिकता पर आधारित हो, तो फिर आर्थिक अपराध रोकने की बात करना बेईमानी होगी। अर्थशास्त्र के वर्तमान ढाँचे में यदि भ्रष्टाचार बढ़ता है, लूट-पाट चोरी-डकैती बेईमानी-ठगी जैसे आपराधिक कृत्य बढ़ते हैं, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। यह स्वाभाविक है। अब वर्तमान के इस अर्थशास्त्र की पृष्ठभूमि में आध्यात्मिक अर्थशास्त्र पर तनिक विचार करें। आधुनिक अर्थशास्त्र के तीन मुख्य आधार हैं-इच्छा आवश्यकता और माँग। इच्छा बढ़ाने से स्वयमेव आवश्यकता और माँग बढ़ जाती है। तुलनात्मक दृष्टि से देखें, तो इच्छा का क्षेत्र व्यापक है। आवश्यकता का उससे छोटा है और माँग का क्षेत्र उससे भी छोटा है। इन्हीं तीन पर आधुनिक अर्थशास्त्र की इमारत खड़ी है। मध्यवर्ती अर्थशास्त्र (अर्थात् जो न तो पूरी तरह भौतिक हो और न एकदम आध्यात्मिक हो) के तत्वों पर विचार करें तो वर्तमान अर्थशास्त्र में चार बातें और जोड़ देनी चाहिए-सुविधा आसक्ति, विलासिता और प्रतिष्ठा। आज की आर्थिक मनोवृत्ति में इन बातों की विशेष प्रधानता हैं। आज केवल आवश्यकता-पूर्ति के लिए अर्थ-संग्रह नहीं होता। सुविधा-साधन अधिकाधिक हों, उसे कमाने के पीछे यह भी एक दृष्टि है। किसी वस्तु से आसक्ति बढ़ी, वह अच्छी लगने लगी, तो चाहे उसकी आवश्यकता हो या न हो, वह माँग की लिस्ट में सम्मिलित हो जाती है। उसे प्राप्त करने के लिए धन-संचय होने लगता है। इसलिए वर्तमान अर्थशास्त्र में आसक्ति भी एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में शामिल है। तीसरा तत्व विलासिता है। किसी व्यक्ति के पास अर्थ-संग्रह के स्रोत अगणित हों अथवा एक ही स्रोत से इतनी सम्पदा प्राप्त होती हो कि उसकी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त उसका एक बड़ा भाग शेष बचा रहे तो फिर उसका उपयोग विलासिता के सामान क्रम करने में होगा। विलासिता में मनुष्य का कहीं पता ही नहीं होता। प्रधान अर्थ बन जाता है। विलासिता न हमारी आवश्यकता है, न अनिवार्यता, वह केवल भोगवृत्ति का उच्छृंखल रूप है। समझदार आदमी उसमें किसी भी सार्थक तत्व को नहीं देख पाता। वहाँ मात्र अर्थ लोलुपता और उसकी पूर्ति के साधन के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता। अर्थोपार्जन का अन्तिम उद्देश्य प्रतिष्ठा-प्राप्ति है। कोई आवश्यकता नहीं, फिर भी अहं के पोषण के लिए कुछ खरीदना पड़ता है, अट्टालिका खड़ी करनी पड़ती है। जमीन-जायदाद अनावश्यक परिमाण में इकट्ठे करने पड़ते हैं, साधनों का अम्बार लगाना पड़ता है। वह सब नहीं रहते, तो भी जीवन-यात्रा मजे में चल सकती थी, पर प्रतिष्ठा के लिए, मान-सम्मान के लिए ऐसा करना अनिवार्य प्रतीत होता है और जिस धन का उपयोग समाज कल्याण में हो सकता था, उसका दुरुपयोग कोठा भरने में होने लगता है। यह सब आधुनिक अर्थशास्त्र की देन है। केनिज ने इस पर विचार करते समय मनुष्य की आधी प्रकृति पर तो चिन्तन किया, पर शेष आधी प्रकृति को अस्वीकार दिया। मूलभूत गलती यहीं हुई।

प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी ने कहा है कि कोरी रोटी और कोरी आस्था, दोनों अपर्याप्त हैं। मनुष्य केवल रोटी के आधार पर जी नहीं सकता और केवल आस्था के सहारे भी जीना संभव नहीं। वर्तमान व्यवस्था यह है कि रोटी दो तो आचार और आस्था को खण्डित कर दो। आचार और आस्था दो तो रोटी की समस्या रह जाती है। प्रस्तुत व्यवस्था का यह त्रुटिपूर्ण पहलू है। जीवन के लिए आचार भी उतना ही अनिवार्य है, जितना आहार। जेल जीवन जीने वाले कैदियों के लिए तो खाद्य का प्रबन्ध हो जाता है, पर किसी आचारशास्त्र के अभाव में उनका जीवन उस कालकोठरी में भी कितना उद्दण्ड और उच्छृंखल हो सकता है, इसे कोई निकटवर्ती ही जान सकता है। दूसरी ओर केवल नीति-नियमों की चर्चा करना, धर्म अध्यात्म के उपदेश सुनाना-इतने भर से भी काम बनता नहीं। यदि व्यक्ति के सामने रोटी की समस्या मुँह बांये खड़ी है, तो उत्तम बातें भी उसे कानों में गर्म शीरा उड़ेलने जैसा प्रतीत होंगी। शायद, इसीलिए विवेकानन्द ने कहा था कि भारत को अध्यात्म की भिक्षा देने के लिए सबसे पहले उसकी रोटी की समस्या हल करनी पड़ेगी। बात घूम फिर कर वहीं आती है कि व्यक्ति को आहार भी उपलब्ध हो और आचार की अनिवार्यता भी वह अनुभव करे। ऐसा तभी हो सकेगा, जब अध्यात्मवाद और भौतिकवाद का समन्वय कर एक मध्यवर्ती अर्थशास्त्र का निर्माण किया जाय, जिसमें जीवन के भौतिक विकास की भी गुँजाइश हो और आत्मिक उत्कर्ष का भी प्रावधान हो।

वर्तमान समाज में दो प्रकार की अर्थव्यवस्था हैं-एक साम्यवादी, दूसरी पूँजीवादी। दोनों का उद्देश्य एक ही है कि हर व्यक्ति धनी बने। निर्धनता के अभिशाप में किसी को भी नहीं जीना पड़े। प्रयोजन आकर्षक है। इस संदर्भ में दोनों प्रकार की प्रणालियों में कोई विशेष अन्तर नहीं दिखाई पड़ता दर्शन के सम्बन्ध में तो बिलकुल ही नहीं। दोनों के प्रक्रिया और परिणाम में अन्तर हो सकता है, किन्तु फिलॉसफी दोनों की भौतिकवादी ही है। दोनों ही इस एक ही लक्ष्य को लेकर क्रियाशील हैं कि कोई भी व्यक्ति निर्धन न रहे, गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन न करे, प्रत्येक व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो और वह चैन की जिन्दगी जिये। यह विकास का एक लक्ष्य बनाया गया। अर्थशास्त्र की दृष्टि से भी विकास की यही परिभाषा हैं आर्थिक विकास-प्रौद्योगिकी का विकास-टेक्नोलॉजी का विकास, प्रति व्यक्ति आय और जीवन स्तर-ये आधुनिक अर्थशास्त्र के विकास के मानदण्ड हैं।

शास्त्र भी उपरोक्त तथ्य का ही समर्थन करते हुए कहा है-अधनं निर्बलतम्” जो निर्धन है, वह निर्बल है। तात्पर्य है कि गरीब और गरीबी कभी वाँछनीय नहीं रहे। वे सदा तिरस्कृत हुए हैं। उन्हें किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं माना गया। इस संबंध में आधुनिक अर्थशास्त्र का कथन है कि यदि मनुष्य को स्वार्थवृत्ति को किसी प्रकार उभार दिया जाय, तो विकास की गाड़ी चल पड़ेगी। आधुनिक अर्थशास्त्र के इस मन्तव्य में सच्चाई नहीं है-ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि व्यक्तिगत स्वार्थ जितना काम मनुष्य से करवाता है, उतना कदाचित् कोई ही और करवाता हो इसलिए विशुद्ध भौतिकवादी दृष्टि से विकास की यह अवधारणा सही कही जा सकती है।

किन्तु यदि अध्यात्मवादी दृष्टिकोण से चार करें, तो विकास की यह अवधारणा अमान्य हो जायेगी, कारण कि जहाँ स्वार्थ आगे आयेगा वहाँ व्यक्ति अपने आगे दूसरे की-समाज की क्यों परवाह करेगा? ऐसी स्थिति में समाज सदा दूसरे नम्बर पर आयेगा। ऐसे में जो अव्यवस्था और आपाधापी उत्पन्न होगी, उसका परिदृश्य वर्तमान समय के रूप में देखा जा सकता है। इसका निराकरण अध्यात्मवादी चिन्तन से ही संभव है। उसका कहना है कि ऐसी दशा में व्यक्ति और समाज दोनों पर साथ-साथ विचार हो, तभी समस्या का हल निकल सकता हे। अभी व्यक्ति एकांगी चिन्तन से अपने धनी बनने की उलटी-सीधी कल्पनाएँ तो कर लेता है, पर उस अनुचित तरीके से समाज को कितना अहित होगा इस पर विचार नहीं करता। वह सिर्फ प्रीतिकर की बात सोचता है और हितकर की उपेक्षा कर देता है। यदि प्रीतिकर एवं हितकर दोनों को ध्यान में रखे, तो शायद वह स्वार्थ को त्याग देगा, क्योंकि स्वार्थवश जो प्रीतिकर लगता है, वह हितकर नहीं होता-इसे वह तब भली-भाँति समझ जायेगा। मार्क्स और केनिज-इन दोनों का एक ही लक्ष्य रहा अर्थ लाभ, सुख एवं संतुष्टि। इतना धन हो जाय कि गरीबी मिट जाय और सुख मिले, किन्तु उस सुख के साथ जो कुछ आ रहा है, उस पर विचार नहीं किया। भूखे को रोटी मिली-सुख मिला, नंगे को कपड़ा मिला-सुख मिला। जहाँ अधिक प्रयोजन हो, वहाँ इससे आगे जाया नहीं जा सकता। अगर अध्यात्म का दर्शन उनके सामने होता, तो सुख की कल्पना कुछ दूसरी होती, किन्तु भौतिक जगत की यह आत्यन्तिक सीमा है। इसलिए वे ‘अर्थ’ से आगे का विचार नहीं कर सके। यदि इस हद को पार कर वे तनिक गहरे चिन्तन में उतरते, तो शायद उनकी सुख की अवधारणा भी बदल जाती और अध्यात्मवादी दर्शन को स्पर्श करने पर एक ऐसे अर्थशास्त्र का सृजन होता, जिसमें पदार्थपरक और आत्मपरक दोनों प्रकार की प्रगति की पूरी-पूरी संभावना रहती और जिसे आज के जमाने के उपयुक्त और आदर्शयुक्त अर्थशास्त्र कहा जा सकता था।

एक राजा था ज्ञानवान् होते हुये भी वह स्वार्थी था। एक दिन सिपाही ने गश्त लगाते हुये देखा एक आदमी कंधे पर पोटली लिये रात में घूम रहा है। उसने आदमी को बन्दी बनाकर दूसरे दिन राजदरबार में प्रस्तुत किया। ‘कौन हो तुम? क्या नाम है तुम्हारा? कहाँ से आये हो? और क्या करते हो?’ राजा ने एक ही साथ कई प्रश्नों की झड़ी लगा दी।

‘राजन्! कथा कहने वाला पण्डित हूँ मैं? सन्मार्ग पर चलना और दूसरों को उपदेश देना मेरा व्यवसाय है। पास के एक छोटे गाँव में ही रहता हूँ। आपसे भेंट करने की इच्छा थी सो चला आया इस ओर, पण्डित ने बड़ी नम्रता के साथ अपनी बात कही।

‘तो फिर कंधे पर पड़ी इस पोटली में क्या है? राजा ने उँगली के इशारे से पूछा।

‘इसमें तीन मूर्तियाँ हैं एक मिट्टी की, दूसरी लकड़ी की और तीसरी पत्थर की। पर आकृति एक सी ही है। फिर भी मूल्यों में अन्तर है। एक दस रुपये की, दूसरी सौ रुपये की और तीसरी पाँच सौ रुपये की।’

राजा ने पूछा-एक सी मूर्तियों के लिये कीमत अलग-अलग क्यों?” ब्राह्मण ने बताया “आर्या! पत्थर की मूर्ति सौंदर्य और स्थिरता का प्रतीक है। जिनका जीवन सुन्दर होता है। वे शरीर से न रहें, तो भी उनका यश अजर-अमर रहता है। उनकी श्रद्धा-प्रतिष्ठा सामान्य लोगों से बहुत अधिक होती है। दूसरी लकड़ी की मूर्ति का है। स्थिर तो है। पर गिरे तो टूट सकती है। जो साँसारिक परिस्थिति से भयभीत होकर घर छोड़कर आत्मकल्याण के लिये जंगल चले जाते हैं। परिस्थिति बनने पर कभी टूट भी जाते हैं। वह लकड़ी की मूर्ति की तरह हैं। तीसरी मिट्टी की मूर्ति-मनुष्य के निकृष्ट इन्द्रिय परायण जीवन प्रतिदिन बनते-बिगड़ते रहते हैं। उनकी क्या कीमत?”

पंडित की बात सुनकर राजा का विवेक जग पड़ा।


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