काश! ‘मैं’ स्वयं को समझ पाता?

July 1995

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बड़ी अजीब से उलझन है, मैं कौन हूँ? सवाल छोटा-सा है पर जवाब ढूँढ़े मिलता। यूँ कहने को हम बहुत बुद्धिमान हैं। अब तक न जाने कितने क्यूँ? क्या? कैसे? किसलिए? की पहेलियाँ सुलझा चुके। धरती आकाश का चप्पा-चप्पा छान डाला और प्रकृति के रहस्यों को प्रत्यक्ष करके सामने रख दिया। इस बौद्धिक कुशलता की खूब प्रशंसा भी हुई। लेकिन इस छोटे से सवाल का समाधान न हो पाने के कारण सारी बौद्धिक करामातें धरी की धरी रह गयीं और बेचारा मैं अपना परिचय न पा सकने के कारण नित नयी परेशानियों में फँसता उलझता चला गया। अनगिनत विडम्बनाएँ विभीषिकाएँ उसे संत्रस्त करती चली गयी।

इससे उबरना तभी सम्भव है, जब 'मैं' अपनी खोजबीन करे। तनिक सोचें जिसे काया को शरीर समझा जाता है, क्या यही मैं हूँ क्या कष्ट चोट-भूख शीत आतप आदि से पग-पग पर व्याकुल होने वाला अपनी सहायता के लिये बजाज, दर्जी किसान, रसोइया, चर्मकार चिकित्सक आदि पर निर्भर रहने वाला ही मैं हूँ? दूसरों की सहायता के बिना जिसके लिये जीवन धारण कर सकना कठिन हो। जिसकी सारी हँसी-खुशी और प्रगति दूसरों की कृपा पर निर्भर हो, क्या वही, असहाय, असमर्थ मैं हूँ? मेरी आत्म निर्भरता क्या कुछ भी नहीं है? यदि शरीर ही मैं हूँ तो निस्संदेह अपने को सर्वथा पराश्रित और दीन-दुर्बल ही माना जाना चाहिये।

परसों पैदा हुआ, खेलने-कूदने-पढ़ने-लिखने में बचपन चला गया। कल जवानी आयी थी। नशीले उन्माद की तरह आँखों में, दिमाग में छाई रही। चंचलता और अतृप्ति से बेचैन बनाये रही। आज ढलती उम्र आ गई। शरीर ढलने-गलने लगा। इन्द्रियाँ जवाब देने लगीं। सत्ता बेटे, पोतों के हाथ चली गयी। लगता है एक उपेक्षित जैसी अपनी स्थिति है। अगली कल यही काया जरा जीर्ण होने वाली है। आँखों में मोतियाबिन्द-कमर-घुटनों में दर्द खाँसी, अनिद्रा जैसी व्याधियाँ, घायल गधे पर उड़ने वाले कौओं की तरह आक्रमण की तैयारी कर रही है।

अपाहिज और अपंग की तरह कटने वाली यह जिन्दगी कितनी भारी पड़ेगी। यह सोचने को जी नहीं चाहता वह डरावना और घिनौना दृश्य एक क्षण के लिये भी आँखों के सामने आ खड़ा होता है तो रोम-रोम काँपने लगता है। पर उस अवश्यम्भावी भवितव्यता से बचा जाना सम्भव नहीं? जीवित रहना है तो इसी दुर्दशा ग्रस्त स्थिति में पिसना पड़ेगा। बच निकलने का कोई रास्ता नहीं। क्या यही मैं हूँ? क्या इसी निरर्थक विडम्बना के कोल्हू के चक्कर काटने के लिये ही मैं जन्मा? क्या जीवन का यही स्वरूप है? मेरा अस्तित्व क्या इतना ही तुच्छ है?

आत्म चिन्तन कहेगा, नहीं-नहीं-नहीं आत्मा इतना हेय और हीन नहीं हो सकता। वह इतना अपंग और असमर्थ-पराश्रित और दुर्बल कैसे होगा? यह तो प्रकृति के पराधीन पेड़-पौधों जैसा मक्खी मच्छरों जैसा जीवन हुआ। क्या इसी को लेकर मात्र जीने के लिये जीना। सो भी जीना ऐसा जिसमें न चेन, न खुशी, न शान्ति, न आनन्द, न संतोष। यदि आत्मा-सचमुच परमात्मा का अंश है तो वह ऐसी हेय स्थिति में पड़ा रहने वाला नहीं हो सकता। या तो मैं हूँ ही नहीं। नास्तिकों के प्रतिपादन के अनुसार या तो पाँच तत्वों के प्रवाह में एक भँवर जैसी बबूले जैसी क्षणिक काया लेकर उपज पड़ा हूँ और अगले ही क्षण अभाव के विस्मृति गर्त में समा जाने वाला हूँ। या फिर कुछ हूँ तो इतना तुच्छ और अपंग हूँ जिसमें उल्लास और संतोष जैसा गर्व और गौरव जैसा कोई तत्व नहीं है। यदि मैं शरीर हूँ तो हेय हूँ। अपने लिये और इस धरती के लिये सारभूत। पवित्र अन्न को खाकर, घृणित मल में परिवर्तित करने वाले करोड़ों-करोड़ों छिद्रों वाले इस कलेवर से दुर्गन्ध और मलीनता निसृत करते रहने वाला अस्पर्श्य घिनौना हूँ मैं। यदि शरीर हूँ तो इससे अधिक मेरी सत्ता होगी भी क्या?

मैं यदि शरीर हूँ तो उसका अन्त क्या है? लक्ष्य क्या है? परिणाम क्या है? मृत्यु-मृत्यु-मृत्यु कल नहीं तो परसों वह दिन तेजी से आँधी तूफान की तरह उड़ता-उमड़ता चला आ रहा है, जिसमें आज की मेरी यह सुन्दर-सी काया जिसे मैंने अत्याधिक प्यार किया, जिसमें पूरी तरह समर्पित हो गया घुल गया। अब वह मुझसे विलग हो जायेगी विलग ही नहीं अस्तित्व ही गँवा बैठेगी। काया में घुला हुआ मैं, मौत के एक थपेड़े में कितना कुरूप कितना विकृत कितना निरर्थक कितना घृणित हो जाएगी कि उसे प्रिय परिजन तक कुछ समय और उसी घर में रहने देने के लिये सहमत न होंगे, जिसे मैंने ही कितने अरमानों के साथ कितने कष्ट सहकर बनाया था। क्या यही मेरे परिजन है? जिन्हें लाड़-चाव से पाला था। अब ये मेरी इस काया को घर में से हटा देने के लिये उसका अस्तित्व मिटा देने के लिये क्यों आतुर है? कल वाला ही तो मैं हूँ।

मौत के जरा से आघात से मेरा स्वरूप यह कैसा हो गया। अब तो मेरी मृत काया, हिलती-डुलती भी नहीं बोलती-डुलती भी नहीं बोलती सोचती भी नहीं? अब तो उसके कुछ अरमान भी नहीं है। हाय यह कैसी मलीन दयनीय घिनौनी बनी जीन पर लुढ़क रही है। अब तो यह पलंग बिस्तर पर सोने का अधिकार भी खो बैठी। कुशाओं से बान से ढकी गोबर से लिपी गीली भूमि पर यह पड़ी है। अब कोई चिकित्सक भी इसका इलाज करने के लिये तैयार नहीं। कोई बेटा पोता गोदी में नहीं आता। पत्नी छाती तो कूटती है पर साथ सोने से डरती है। मेरा पैसा, वैभव, मेरा सम्मान, हाय रे! सब छिन गया हार रे मैं बुरी तरह लुट गया। मेरे कहलाने वाले लोग ही मेरा सब कुछ छीन कर मुझे इस दुर्गति के साथ घर से निकाल रहे हैं। क्या यही अपनी दुर्दशा कराने के लिए मैं जन्मा? यही है क्या मेरा अन्त? यही था क्या मेरा लक्ष्य, यही है क्या मेरी उपलब्धि!जिसके लिए कितने पुरुषार्थ किए थे क्या उसका निष्कर्ष यही है - यही हूँ में- जो मुर्दा बना पड़ा हैं।

लो, अब पहुँच गया मैं चिता पर। लो, मेरा कोमल मखमल जैसा शरीर जिसे सुन्दर सुसज्जित सुगन्धित बनाने के लिए घण्टों श्रृंगार किया करता था, अब आ गया अपनी असली जलहवा। लकड़ियों का ढेर उसके बीच दबाया-दबोचा हुआ मैं। अरे!यह लगी आग, और अब मैं जला। अरे!मुझे जलाओ मत। इन खूबसूरत हड्डियों में, मैं अभी और रहना चाहता हूँ मेरे अरमान बहुत है, इच्छाएँ तो हजार में से एक भी पूरी नहीं हुई। मुझे मेरी उपार्जित सम्पदाओं से अलग मत करो। प्रियजनों का वियोग, मुझे सहन नहीं। इस काया को जरा-सा कष्ट होता था तो चिकित्सा, उपचार में मैं बहुत कुछ करता था। इस काया को इस निर्दयता पूर्वक मत जलाओ। स्वजन और मित्र कहलाने वाले लोगों! इस अत्याचार से मुझे बचाओ। अपनी आँखों के आगे ही मुझे इस तरह जलाया जाना, तुम देखते रहोगे। मेरी कुछ भी सहायता न करोगे। अरे! यह क्या? बचाना तो दूर उलटे तुम्हीं मुझ में आग लगा रहे हो नहीं-नहीं मुझे जलाओ मत मुझे मिटाओ मत। कल तक मैं तुम्हारा था, तुम मेरे थे, आज हो क्या गया जो तुम सबने इस तरह मुझे त्याग दिया?इतने निष्ठुर तुम सब क्यों बन गए? मैं और मेरा संसार क्या इस चिंता की आग में ही समाप्त हो जाएँगे? अपनों का अन्त अरमानों का विनाश, हाय री चिता। तू मुझे छोड़। मरने का जलने का? मेरा जरा भी जी नहीं है। अग्नि देवता, तुम तो दयालु थे। सारी निर्दयता मेरे ही ऊपर उड़ेलने के लिए क्यों तुल गए?

लो, सचमुच मर गया। मेरी काया का अन्त हो गया यादें भी धुँधली हो चली। कुछ दिन चित्र फोटो जिए। श्राद्ध–तर्पण का सिलसिला कुछ दिन चला। दो-तीन पीढ़ी तक बेटे-पोतों को नाम याद रहे। पचास वर्ष भी पूरे न हो पाए कि सब जगह से नाम निशान मिट गया। अब किसी को बहुत कहा जाय कि इस दुनिया में पैदा हुआ था। बड़े अरमानों के साथ जिया था, जीवन को बहुत संजोया, सँभाला था। उसके लिए बहुत कुछ किया था, पर वह सारी दौड़-धूप ऐसे ही निरर्थक चली गयी। मेरी काया तक ने मेरा साथ न दिया जिसमें मैं पूरी तरह घुल गया था। जिस काया के सुखा को अपना सुख और उसके दुख को अपना दुख समझा। सच तो चह कि मैं ही काया या और जिसके दुख को अपना दुख समझा। सच तो यह कि मैं ही काया या और काया ही मैं था। हम दोनों की एक ही हस्ती हो गई थी, पर यह क्या अचम्भा हुआ मैं अभी भी मौजूद हूँ।

वायुभूत हुआ आकाश में, मैं अभी भी भ्रमण कर रहा हूँ। पर मेरी अभिन्न सहचरी लाने वाली काया न जाने कहाँ चली गयी। अब वह मुझे कभी नहीं मिलेगी क्या। उसके बिना मैं रहना नहीं चाहता था? रह नहीं सकता था, पर हाय-री निर्दय नियति तू ने यह क्या कर डाला। काया चली गयी। माया चली गयी। मैं अकेला हो वायुभूत बना भ्रमण कर रहा हूँ। एकाकी -नितान्त एकाकी। जब काया ने ही साथ छोड़ दिया तो उसके साथ जुड़े हुए परिवार भी क्यों याद रखते? याद रखे भी हों तो अब उससे अपना बनना भी क्या है।

मैं काया हूँ यह जन्म के दिन से लेकर मौत के दिन तक मैं मानता रहा। यह मान्यता इतनी प्रगाढ़ थी कि कथा-पुराणों की चर्चा में आत्मा काया के अलगाव की बात आए दिन सुनते रहने पर भी गले से नीचे नहीं उतरती थी। शरीर ही तो मैं हूँ उससे अलग मेरी सत्ता भला किस प्रकार हो सकती हैं? शरीर के सुख-दुख के अतिरिक्त मेरा सुख-दुख अलग क्यों कर होगा? शरीर के लाभ और मेरे लाभ में अन्तर कैसा माना जाय? यह बातें न तो समझ में आती थीं और न उन पर प्रत्यक्ष कैसे झुठलाया जाय? काया प्रत्यक्ष है आत्मा अलग है, उसके स्वार्थ सुख-दुख अलग है, यह बात कहने की सुनने भर की ही हो सकती थी सो रामायण भागवत् की गाथाओं में हाँ-हाँ तो कहता रहा पर उसे वास्तविकता के रूप में कभी स्वीकार न किया।

पर आज देखता हूँ कि वह सच्चाई थी जो समझ में नहीं आई और वह झुठाई थी जो सिर पर हर घड़ी सवार रही। शरीर ही मैं हूँ। यही मान्यता शराब की खुमारी की तरह नस-नस में भर रही बोतल पर बोतल छानता रहा तो वह खुमारी उतरती भी कैसे? पर आज आकाश में उड़ता हुआ वायुभूत एकाकी मैं सोचता हूँ झूठा जीवन जिया गया। सचाई आँखों से ओझल ही बनी रही मैं एकाकी हूँ शरीर में भिन्न हूँ आत्मा हैं यह सुनता जरूर रहा पर मानने का अवसर ही नहीं आया। यदि उस तथ्य को जाना ही नहीं माना भी होता तो वह अलभ्य अवसर जो हाथ से चला गया इस बुरी तरह न जाता। जीवन जिस मूर्खता पूर्ण रीति नीति से जिया गया वैसा न जिया जाता।

उलझन अब सुलझी है। शरीर मेरा है, मेरे लिए है, मैं शरीर नहीं हूँ। यह छोटा-सा सवाल यदि समय रहते हल हो गया होता, सचाई समझ में आ गयी होती तब मनुष्य जीवन जैसे देव दुर्लभ सौभाग्य का लाभ ले लिया गया होता। पर अब क्या हो सकता है। अब तो पश्चाताप ही शेष है। चलिए मुझे हाल परी छोड़िए, आप ही समय रहते इस पहेली को हल कर लें समझ लें कि आप कौन हैं? नहीं तो इस भूल भरी मूर्खता के लिए न जाने कितने लम्बे समय तक रुदन करना पड़ेगा?


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