सुख वस्तुतः है क्या

July 1995

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सुख दुःख का गहन और विस्तृत, विवेचन-विश्लेषण भारतीय दर्शन में मिलता है। संसार के सभी प्राणी सुख चाहते है और प्रयत्न भी ऐसा करते है कि सुखों में वृद्धि होती रहे। दुःख बिरले ही चाहते है किन्तु वह अयाचित और अनैच्छिक रूप में मिल ही जाता है। सुख के अतिक्रमण में भी दुःख है। साधनों का संग्रह, उनकी और इच्छा, तथा इस इच्छा की पूर्ति न हो पाना भी दुःख का कारण बनता है। यहाँ भौतिक सुखों को प्रधानता नहीं दी गई है। जीवन-यापन की आवश्यक आवश्यकताओं और साधनों को नहीं नकारा गया है।, किन्तु अति संग्रह और स्वार्थपरता से सतर्क किया गया है। यों समय-समय पर जाबालि बृहस्पति, चार्वाक जैसे भौतिक सुखों के समर्थक भारत में भी हुए है, किन्तु येन-केन प्रकारेण सुख के साधनों को प्राप्त करने का सिद्धान्त भारतीय संस्कृति को ग्राह नहीं हुआ इसीलिये समाज में नीतिमत्ता दिखाई देती है।

योरोप में सुखवादी सिद्धान्त के समर्थक सेरेनिक, थामस हाब्स अरस्टीपस थे। इन्हें भी चार्वाक के सिद्धान्तों का समर्थक ही माना गया है। ये भी सुख की प्राप्ति को जीवन का परम लक्ष्य मानते थे। इनके अनुसार सुख के साधन जुटाने में यदि अपमान भी सहन करना पड़े तो भी कुछ बुराई नहीं है, किन्तु ईपीक्यूरस का सिद्धान्त कुछ भिन्न है। वे भोगविलास के पक्ष में तो थे, किन्तु विवेकहीनता के विरुद्ध थे। उनका कहना था कि यदि इसी प्रकार मनुष्य भोग विलास में निमग्न रहा, तब निश्चय ही खोखला, और छूँछ रह जाएगा। वह सुख भोगने की क्षमता ही गवाँ बैठेगा। उनका कथन आज की परिस्थितियों में सटीक कथन आज की परिस्थितियों में सटीक बैठता है। अधिक सुख और भोग-विलास के जीवन में मनुष्य थोड़े दिन के बाद मानसिक और शारीरिक दोनों ही दृष्टि से अशक्त हो जाता है। और बेचैनी महसूस करने लगता है। उसके समीप सुख के साधन, सामग्री रहने पर भी वह सुख का आस्वादन सही कर पाता। अतः ईपीक्यूरस चाहते थे कि जिन्हें जी भर सुख का आनन्द लेना हो, वे संयम बरतें, सन्तुलित रहे और अतिवाद तथा अतिक्रम से दूर रह कर मर्यादित जीवन जिये। वर्तमान काल के सुख बाद का प्रवर्तक बेन्थम और जॉनस्टुअर्टमिल को माना जाता है। ये भौतिक जीवन को आनन्दमय बनाने के समर्थक थे, किन्तु वैयक्तिक सुख बाद विरुद्ध थे। उनके अनुसार आदर्शवादी जीवन वह है, जिसमें समाज के अधिक-से-अधिक लोग सुखी रह सकें। वे व्यक्तिगत सुख के आलोचक इसलिये भी बने-क्योंकि मनुष्य जब अपने सुख की चिन्ता में रहता है, तब वह दूसरों की परवाह नहीं करता। इस प्रकार वह लगभग स्वार्थी बन जाता है। कितने बाद वह दूसरों को ही दुःख पहुँचाने लगता है।

बेन्थम और मिल अपने समय के प्रख्यात समाज सुधारक थे। नास्तिक होने पर भी वे बड़े पवित्र आचरण और उदार मनोवृत्ति के थे। वे चाहते थे समाज में स्वार्थवाद समाप्त हो, अधिक-से अधिक लोग सुखी, सन्तुष्ट हों। उस काम की वे निन्दा करते थे, जिससे थोड़े व्यक्ति लाभान्वित होते हों और बहुसंख्यकों का शोषण होता हो। ऐसे आचरण करने वालों को अनैतिक, अवसरवादी और शीर्षक मानते थे। उनका कहना था कि आदर्श समाज वह है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपने साधन और सुख को बढ़ाने की पूर्ण स्वतंत्रता हो और दूसरों की स्वतंत्रता में किसी प्रकार बाधक न हो। जिस समय बेन्थम और मिल इस प्रकार के सुधार में निमग्न थे, उस समय के समाज में वहाँ भी अशिक्षितों स्वर्ग में सुख के साथ मिलने की बात कहकर बहकाया जाता था और शोषण किया जाता है।

संसार में भोग्य वस्तुएँ परिमित है और इच्छाएँ अनन्त। अतः मात्र सुख के आदर्शों को लेकर चलने से भी सुखी नहीं रहा जा सकता। जहाँ साधनों का अभाव होगा, वहाँ ईर्ष्या कलह, छीना झपटी होना स्वाभाविक है। पिछले दिनों जितने भी युद्ध हुए है, उनमें शोषण और साधनों की लूट खसोट ही प्रमुख रही है।

वस्तुतः सुख, साधनों पर उतना नहीं निर्भर करता जितना कि मनः स्थिति पर। यदि ऐसा न रहा होता तो साधन सम्पन्न व्यक्ति सदैव सुखी और प्रसन्न प्रफुल्लित देखे जाते और अभावग्रस्त किसान मजदूर रोते कलपते, जीवन गुजारते। सुख और सन्तोष में रात-दिन आकाश-पाताल जैसा अन्तर है। सुख भौतिक है तो सन्तोष आध्यात्मिक। सन्तोष अनुभूति परक है तो सुख भोग परक। जो सुख-सन्तोष को एक मानते हैं वे भू करते है। मनुष्य सदा आत्म सन्तोष और आनन्द की प्राप्ति की कामना करता है। इसका अर्थ यह नहीं निकाल लेना चाहिए कि वह सदैव सुख के लिये प्रयत्न करता है। कभी-कभी उसको सन्तोष सुख की प्राप्ति से होता है कभी सुख के त्याग से। यदि व्यक्ति इतना भर समझ ले तो उसका जीवन क्या से क्या हो जाय।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles