इसमें मंत्रणा की क्या आवश्यकता महाराज! महामंत्री बोधायन ने काँवी नरेश देवमित्र से नीति स्पष्ट की-राज परम्परा के अनुसार स्पष्ट की-राज परम्परा के अनुसार ज्येष्ठ राजकुमार को ही आपके बाद राजगद्दी का उत्तराधिकारी होना चाहिए।
सो तो ठीक है महामंत्री किन्तु हर परम्परा विवेक की कसौटी पर खरी सिद्ध हो, यह आवश्यक नहीं। शास्त्र यह भी तो कहता है कि देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार परम्पराओं को बदलते और उन्हें बुद्धि संगत रूप देते रहना चाहिए। सत्ता हर किसी को नहीं सौंपी जा सकती।
तत्पश्चात् सम्राट देवमित्र और महामंत्री बोधायन मंत्रणा करने लगे। देर तक विचार विमर्श हुआ। दूसरे दिन प्रातःकाल होने के साथ ही ज्येष्ठ राजकुमार सुरेश को बिना राज्याभिषेक के ही राजगद्दी सौंप दी गयी। प्रजा चकित थी न कोई उत्सव न अभिषेक यह कैसा राज्याभिषेक? किन्तु महाराज के निर्णय को कौन टाल सकता था। अभी राजगद्दी धारण किए हुए कुल पाँच घण्टे ही हुए थे कि एक ग्रामीण ने आकर दुहाई दी- महाराज न्याय कीजिए। आज स्वयं राजमाता ने हम गरीबों के झोंपड़े जलवा दिए। पहले दिन नहीं यह अन्याय! महाराज न्याय कीजिए।
सुरेश ने पूरी बात तो सुनी किन्तु उन्होंने वृद्ध ग्रामीण को न्याय देने की अपेक्षा डाँट लगाई और कहा रे दुष्ट! राजमाता के खिलाफ फिर कुछ कहा तो तेरी खाल उधेड़ दी जाएगी। ग्रामीण सहम गया और चुपचाप घर वापस लौट आया। यह समाचार राज्य में फैला हो या नहीं पर दूसरे दिन ही यह खबर फैली कि नीति निर्मात्री परिषद् ने राजकुमार सुरेश को गद्दी से उतार दिया है और उनके स्थान पर यहाँ मझले राजकुमार विरथ को राज्यासीन किया गया है। लोग इन आकस्मिक परिवर्तनों पर आश्चर्यचकित थे कुछ समझ नहीं पा रहे थे, बात क्या है?
दूसरे ही दिन फिर वही स्थिति! भरे राजदरबार में एक कलाकार ने आकर गुहार की, दुहाई हो दयावतार! महामंत्री ने मेरी समस्त कलाकृतियाँ पानी में यह कहकर फिंकवा दीं कि इसमें केवल सम्राट की मूर्तियाँ लग सकती हैं-देवी देवताओं की नहीं। यह अन्याय है, कला का अपमान है राजकुमार! न्याय कीजिए।
राजकुमार विरथ को महामंत्री के विरुद्ध अभियोग चलाने का साहस नहीं हुआ, पर उन्होंने मूर्तिकार की मूर्तियों का मूल्य चुका दिया और खबर कहीं भी न फैलाने का आदेश देकर वहाँ से भगा दिया।
तीसरे दिन राजकुमार विरथ भी गद्दी से उतार दिए गए और उनके स्थान पर तीसरे राजकुमार प्रताप गद्दी पर बैठाए गए। उसी दिन एक और पीड़ित ने पुकार लगाई “महाराज! यह क्या अन्धेर है, जब हमने एक बार राज्य कर अदा कर दिया तो पूर्व महाराज जो अब राजगद्दी पर भी नहीं है, देवमित्र ने हमसे कर क्यों माँगा? न देने पर इन्होंने हमें कोड़ों से क्यों पिटवाया?”
महाराज कुमार प्रताप तड़प उठे-मेरी प्रजा के साथ अन्याय! कोई भी क्यों न हो वह मेरे दण्ड से बच नहीं सकता। सैनिक जाओ और अपराधी देवमित्र को पकड़कर कैद अपराधी देवमित्र को पकड़ कर कैद में डाल दो। कल सुनवाई होगी। महामंत्री बोधायन ने टोका “राजकुमार यह आप अपने पिता के लिए कहते हैं?” प्रताप ने उत्तर दिया “शासनाध्यक्ष के समक्ष प्रजा का न्याय बड़ा है, पिता नहीं। पिता शारीरिक सेवा के अधिकारी हैं, न्याय से बच निकलने के लिए नहीं।
प्रातःकाल सम्राट देवमित्र दरबार में उपस्थित किए गए-बन्दी की वेषभूषा में। सारा अभियोग सुनने के बाद प्रताप ने कहा जितने कोड़े इस निर्धन किसान की पीठ पर लगाए गए हैं उतने कोड़े देवमित्र को लगाए जायें। सैनिक ने कोड़े बरसाए और राजकुमार देखते रहे। सजा समाप्त होने के साथ ही राजकुमार प्रताप गद्दी से उतर आए और महामंत्री से बोले “महामंत्री। मुझे अपने ही पिता को दण्ड देना पड़ा। ऐसा सिंहासन मुझे नहीं चाहिए।
किन्तु तभी महाराज देवमित्र हँसते हुए आगे आये और बोले बेटा! यह तो परीक्षा थी, इस राज्य के सच्चे उत्तराधिकारी की। तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। अब तुम्हीं इस साम्राज्य के सम्राट हो।”