युग पुरुष, युगऋषि तपस्वी पर यहाँ, कुछ नहीं था परिग्रह के नाम पर।
जिंदगी भर तप किया, पीड़ा सही, कुछ न उनके सहन की सीमा रही,
जिंदगी भर बीज-से गलते रहे, लोकहित में वह अथक चलते रहे,
तप-तितिक्षा वह स्वयं साकार थे, था न कोई दुख दुसह के नाम पर।
वह चमकते दिव्य कुंदन-से रहे, वह बरसते सावनी घन-से रहे,
पात्रता जितनी अधिक जिसने करी-गुरु-कृपा उतनी अधिक उसमें भरी,
कुछ नहीं रक्खा स्वयं के वास्ते, दे दिया सब अनुग्रह के नाम पर।
वह रहे सबके दुखों को काटते, और संचित पुण्य सब को बाँटते,
पीर से पिघले, रहा पर शाँत मन, पथ दिखाया, देखकर दिग्भ्रांत मन,
हर समय थे उल्लसित, कुछ भी न था, द्वेष-ईर्ष्या या कलह के नाम पर।
- शचीन्द्र भटनागर