आत्मसत्ता के परिष्कार के देव संस्कृति के दो प्रमुख आधार

August 1992

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परिष्कार की प्रवृत्ति सामाजिक क्षेत्र में सभ्यता और आंतरिक क्षेत्र में संस्कृति कहलाती है। शिल्पी, कलाकार, चिकित्सक, शिक्षक , विज्ञानी आदि वर्गों के लोग अपने श्रम और मनोयोग का नियोजन सृजनात्मक प्रयोगों के लिए , अनगढ़ को सुगढ़ बनाने के लिए करते हैं। धरती, जिस पर हम रहते हैं, को प्रचंड पुरुषार्थ के बाद हमने वह रूप दे दिया है जिसमें कि आजकल हम रह रहे हैं। मनुष्य के संकल्प , श्रम व कौशल के आधार पर ही धरती रहने योग्य बन सकी। मनुष्य को सृष्टि का मुकुटमणि होने का लाभ इसी मार्ग पर चलते हुए मिल सका है। परिष्कार की यह प्रवृत्ति ही मानवी गरिमा और प्रगति कास सार तत्व कही जा सकती है।

मानवी सत्ता इस सृष्टि की सबसे छोटी इकाई है। ईश्वर के बाद वरीयता क्रम में उसी की बारी आती है। उसका परिष्कार कर सकना इतना बड़ा प्रयोग है , जिसे भौतिक प्रगति के लिए खड़े किये गये आधारों से कम नहीं, अधिक ही महत्व दिया जाना चाहिए । मनुष्य की कुसंस्कारिता उसके लिए पग-पग पर अवरोध खड़े करती है-असहयोग और आक्रोश बटोरती है, विकृत चिन्तन के कारण शारीरिक व मानसिक व्याधियों को आमंत्रित करती है। पिछड़ापन , असफलता , उद्विग्नता व असंतोष इसी की परिणति है, इसमें कोई संदेह नहीं। इसके विपरीत जो आत्मसत्ता को सुसंस्कृत कर लेता है, परिष्कृत कर लेता है, वह अपने सुधरे हुए दृष्टिकोण तथा व्यवस्थित क्रियाकलाप के आधार पर सम्मान अजस्र परिमाण में बरसता है।

देव संस्कृति ने उत्कृष्ट चिंतन की पृष्ठभूमि बनाने वाले तत्वज्ञान को “अध्यात्म नाम” दिया है तथा आदर्श कर्तव्य में निष्ठा उत्पन्न करने की प्रक्रिया को “धर्म” कहा है। ‘गायत्री’ महाशक्ति के तत्वज्ञान एवं विज्ञान में धर्म की सारी शिक्षाएँ निहित मानी जा सकती है। आत्मसत्ता के परिष्कार की भारतीय संस्कृति के प्रणेताओं द्वारा प्रतिपादित ये दो विधाएँ उज्ज्वल भविष्य के रूप में सतयुग का मूल आधार है, ऐसी संस्कृति-पुरुष की मान्यता है।


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