ब्रह्मवर्चस के शोध प्रयोजनों की एक झलक

August 1992

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विगत दिनों पनपे बुद्धिवाद-ने इसकी उपादेयता-प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है? आधुनिक युग में प्रामाणिकता की कसौटी विज्ञान की सीमा में सिकुड़ गई है। वही चीज स्वीकार्य है जिसे विज्ञान स्वीकारे जो विज्ञान सम्मत हो। इस जटिल समस्या के हल न हो पाने की वजह से मनुष्य को इस अलौकिक संस्कृति की विभूतियों से वंचित रहना पड़ा। समाज को इसके परिणाम-मूल्यनिष्ठता के अभाव, आदर्शवादिता की समाप्ति के रूप में भुगतने पड़े। परम पूज्य गुरुदेव, ने चिरकाल से अनुत्तरित इस समस्या का समाधान ‘ब्रह्मवर्चस् शोध-संस्थान के रूप में प्रस्तुत किया। प्राचीनता के ढहने-ढहाने के युग में उन्होंने बलपूर्वक यह कहने का साहस किया-ऋषि संस्कृति के तत्व-अध्यात्म विद्या का ढाँचा आज भी उपादेय प्रामाणिक और वैज्ञानिक है। चिरकाल तक इसके द्वारा मानवीय जीवन की समस्याएँ हल होती रहेंगी।

यहाँ हो रही शोध के बारे में परिजनों, बुद्धिजीवियों-जिज्ञासुओं की उत्सुकता सहज है। दीर्घकाल तक जो तत्व प्रक्रियाएँ, श्रद्धा और विश्वास बनकर माने अपनाए जाते रहे आज तर्क और प्रयोग की वैज्ञानिक कसौटी पर किस तरह खरे उतर रहे हैं? भारत ही नहीं समूचा विश्व इसे जानने की ललक सँजोए है। कई जगहों पर इस तरह के मिलते-जुलते छुट-पुट प्रयोग भी हुए लेकिन यहाँ की शोध प्रक्रिया अपनी समग्रता के कारण इन सबसे पर्याप्त भिन्न है।

अध्यात्म और विज्ञान के संदर्भ में अभी तक सभ्य समाज ने जो कुछ किया अथवा कर रहा है उसे बचकाना ही कहेंगे, क्योंकि उपनिषद् वेद अथवा अन्यान्य धार्मिक समझे जाने वाले किसी ग्रन्थ में प्रतिपादित सत्य की साम्यता, आधुनिक विज्ञान की किसी शाखा अथवा उपशाखा के किसी निष्कर्ष से मिला देना ही कर्तव्य की इति श्री मानी जाती रही है। इस प्रयास को संक्षेप में बताया जाय-तो आध्यात्म इसलिए वैज्ञानिक है, क्योंकि भौतिक शास्त्र अथवा रसायन शास्त्र की कोई शोध उसे प्रमाणित करती है।

पर यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि न्यूटन के किसी नियम को इसलिए वैज्ञानिक नहीं माना जाता, क्योंकि रसायन शास्त्र के बायल अथवा चार्ल्स के नियम उसे प्रमाणित करते हैं। फ्रिटजोफ काप्रा के “ताओ आव फिजिक्स” गैरी जुकाव के “डान्सिंग वूली मार्स्टस” आदि ग्रन्थों में कुछ उपरोक्त स्तर जैसे प्रयास ही दिखाई देते हैं। जब कि सत्य और तथ्य यही है कि विज्ञान अध्ययन की एक प्रणाली है। इसे अपनाकर किया गया कोई भी अध्ययन पूर्णतया वैज्ञानिक होगा। इस संदर्भ में किए गए, प्रयासों का एक अन्य प्रकार भी है। जिसे कुछ योग अनुसंधान केन्द्रों ने अपनाया है। वह यह कि प्राणायाम आसन अथवा ध्यान से शरीर के रोगों का निवारण-निराकरण कैसे होता है? ये प्रयास और प्रक्रियाएँ असंदिग्ध रूप से वैज्ञानिक हैं। लेकिन यदि योग की विभिन्न प्रक्रियाओं की सीमा शारीरिक व्याधियों के उपचार तक ही मान ली जाय तो चिकित्सा की वर्तमान प्रणालियाँ ही क्या कम हैं?

निश्चित रूप से ये सभी प्रयास अपनी सीमाओं में एकाँगी व अपूर्ण हैं प्रश्न नए विज्ञान के विकास का है। इसके लिए जरूरी है पहले अध्ययन की विषय वस्तु को देखें। पूज्य गुरुदेव ने प्राचीन ऋषियों द्वारा अन्वेषित सूत्रों के वैज्ञानिक अध्ययन की रूप-रेखा तैयार की है। इन सूत्रों को यदि धर्म के एक शब्द में समेट लें तो अतिशयोक्ति न होगी। इस तत्व की शोध करने वालों को इसकी आवश्यकता क्यों प्रतीत हुई? एक मात्र उत्तर होगा -मानव में एक नयी चेतना के जन्म व विकास के लिए।

धर्म और उसकी प्रणालियाँ कहीं भी क्यों न विकसित हुई हों उनका केन्द्र मनुष्य रहा है। जो कुछ इतर व सम्बन्धित विवरण है उनके सारे धागे यहीं जुड़ते हैं। दूसरे शब्दों में इसे मानव प्रकृति के विशद अध्ययन व रूपांतरण की प्रणाली कह सकते हैं। जिस तरह से शरीर शास्त्रियों को पता है कि शरीर की प्रकृति को जाने बिना विकृति का ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। ठीक यही बात समूचे मानव के बारे में है। तो यहाँ की शोध की विषय वस्तु-मानव प्रकृति का अध्ययन है। अर्थात् शरीर नहीं, प्राण नहीं, मन नहीं, समूचे मानव का अध्ययन है। शोध के इस स्वरूप का उद्देश्य है मानव में एक नयी चेतना का जन्म और विकास।

इस क्रम में धर्म के .त्रिविध अंगों के अनुरूप अध्ययन क्षेत्र का विस्तार भी तीन भागों में बँट जाता है। प्रथम नीतिशास्त्र देश-काल की मर्यादा व स्थिति के अनुरूप इसका स्वरूप विभिन्न स्थानों में अलग-अलग मिलता है। पर उद्देश्य की दृष्टि से देखें तो वह है व्यवहार में अधिक से अधिक सामंजस्य की स्थापना। सूक्ष्म दृष्टि इसमें मानव के आत्म विकास की ओर मुड़ चलने की प्रवृत्ति के जागरण को खोज सकती है। यों इस पक्ष का यत्किंचित् स्पर्श मनोविज्ञान की नवीन शाखा विहैवियरल साइन्सेज में मिलता है। एरिक फ्राम जैसे मनोविद अपने ग्रन्थ “मैन फॉर हिम सैल्फ” में स्वीकारने लगे हैं कि अच्छा व्यवहार औरों पर उपकार नहीं लेकिन ब्रह्मवर्चस् में इस संदर्भ में जो शोध प्रयास हो रहे हैं, उनमें कुछ और गम्भीर उद्देश्य निहित हैं। इसके अंतर्गत संस्कृति की प्रथाओं-परम्पराओं-प्रचलनों-नीतियों का नये सिरे से अध्ययन किया जा रहा है। यहाँ के शोधार्थी अपने-देश व्यापी विश्वव्यापी सर्वेक्षण में इस बात को गहराई से जानने की कोशिश में लगे हैं वर्तमान के और भविष्य के मनुष्यों को किन-किन नीतियों की जरूरत है और होगी। प्राचीन परम्पराएँ ऋषियों के गौरवपूर्ण उद्देश्य को पूरा कर सकें इसके लिए उनमें किस संशोधन अथवा परिवर्धन की आवश्यकता है। इनके मनुष्य के व्यक्तित्व और समाज पर क्या प्रभाव हैं? इस समाज के मनोवैज्ञानिक प्रयोगों, शोध निष्कर्षों के अनुसार धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण का नया सरंजाम जुटाया जा रहा है। जो मानव शक्तियों के क्षरण को रोके उसे एकत्रित करके सही दिशा में सुनियोजित करे।

इसका दूसरा तत्व है तत्व मीमाँसा। आचरण एवं व्यवहार की उत्कृष्टता तब तक सम्भव नहीं जब तक उच्च जीवन के प्रति अभीप्सा न जगे, औरों के प्रति अपनत्व बोध न हो। इसके बिना संवेदना का अंकुरण संभव नहीं और संवेदना के अंकुरण के बिना अच्छे जीवन और समाज की कल्पना बेकार होगी। अतएव इसके अंतर्गत मानव + प्रकृति + ईश्वर के पारस्परिक सम्बन्धों को स्पष्ट करने वाले प्रयोग सम्पन्न हो रहे हैं। इन सम्बन्धों को भुला बैठने के कारण ही मनुष्य स्वार्थी, निष्ठुर, और विलासप्रिय बन गया है। आज का विज्ञान और वैज्ञानिक मनुष्य की इन्हीं दूषित प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने के साधन जुटाते जा रहे हैं। प्रकृति से अपने सम्बन्धों को भुला बैठने की दुर्बलता ही प्रदूषण, महामारी, शारीरिक, मानसिक व्याधियों, अकाल, भूकम्प आदि आपत्तियों-विपत्तियों के रूप में प्रकट हो रही हैं। इस संदर्भ में यहाँ जो गम्भीर प्रयोग सम्पन्न हो रहे हैं उनके निष्कर्ष निकट भविष्य में आधुनिक विज्ञान को मूल्यनिष्ठता का शिक्षण मार्गदर्शन देने में समर्थ होंगे। मनुष्य को उसकी विस्मृत संवेदना फिर से याद आ सकेगी। प्रत्येक विचारशील को ऐसा विश्वास रखना चाहिए।

आधुनिक विज्ञान आज इस सत्य को भुला बैठा है कि जीवन का एक पक्ष अन्य दूसरे पक्षों से अभिन्नतापूर्वक जुड़ा है। अतएव किसी एक पक्ष की विवेचना सम्पूर्ण व्यवस्था के एक अंग के रूप में ही कर सकते हैं। उसे समग्र मान बैठना गहरी भ्रान्ति के सिवा क्या है? वैदिक युगीन जीवन में भौतिक विज्ञान का महत्व पूर्ण तो था, किन्तु मूल्य निरपेक्ष नहीं। इसी कारण इसे धर्म की व्यापक परिधि के अंतर्गत रहना पड़ता था। इसी वजह से विज्ञान की गतिविधियों का, मूल्याँकन अच्छा जीवन, अच्छा समाज, अच्छी व्यवस्था, आदि आधारों पर किया जाता था। जहाँ आज इसका स्वरूप, प्रकृति के तत्वों का विश्लेषण और प्रकृति पर विजय हो गया है। वहीं पहले विज्ञान प्रकृति की शक्तियों से सामंजस्य और उनके सदुपयोग की प्रणाली थी। जीवन मूल्यों में सम्बन्ध विच्छेद करने के कारण ही वर्तमान की वैज्ञानिक उपलब्धियाँ जीवन में लालच, ईर्ष्या, जोड़-तोड़ व विघटन उभारने वाली सिद्ध हो रही हैं।

इस असामंजस्य पूर्ण स्थिति से बचने के लिए वैदिक संस्कृति का ताना-बाना बुनने वालों ने समस्त विधाओं को आस्तिकता के सूत्र में पिरोया था। इसी से आग्रह करते हुए अरस्तू ने कहा था कि विज्ञान और तकनीक को यदि जीवन मूल्यों से मुक्त किया गया तो परिणाम खतरनाक होंगे। स्थिति स्पष्ट है। इससे उबरने इसे सँवारने का काम मानव-मानव मानव ईश्वर, मानव प्रकृति और ईश्वर के अंतर्संबंधों के बारे में जागरुक होकर ही सम्भव है। इस संदर्भ में सम्पन्न हो रहा ब्रह्मवर्चस् का शोध अध्ययन यदि इक्कीसवीं सदी के विज्ञान को आस्तिक बना डाले तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

शोध का तीसरा पक्ष अध्यात्म है। इसे समूची शोध प्रक्रिया का केन्द्र माना जाना चाहिए। सही कहा जाय तो वर्तमान मनुष्य ‘मेन्टल एनीमल’ है। उसमें समुचित बदलाव लाए बिना उसके द्वारा हो सकने की कल्पना बेकार है। जिसको हम अच्छा होना अच्छा करना कहते हैं उसकी चरम परिणति क्या है? स्थिति प्रज्ञता। दूसरे शब्दों में मानव की प्रत्येक हलचल से ब्रह्मतत्त्व चेतना झरने लगे। सर्वसामान्य के मन में सवाल उठता है कि परमात्मा ने सृष्टि की रचना क्यों की? यदि अध्यात्म का उद्देश्य यहाँ से छुट्टी लेकर हमेशा के लिए भाग जाना है तो फिर इस विश्व को रचने की जरूरत क्यों पड़ी?

सच कहा जाय तो अध्यात्म को उद्देश्य भागना नहीं और न मरने के बाद कुछ पाना है। यदि मरने के बाद कुछ मिलता भी होगा तो वह निश्चित रूप से अध्यात्म नहीं। आध्यात्म इसी जीवन में भागवत सौंदर्य की स्थापना है। अपने इसी उद्देश्य को लेकर अध्यात्म में ऐसी तकनीकें खोजी हैं ऐसी नयी-नयी प्रणालियाँ आविष्कृत की है जो मनुष्य में इस उद्देश्य को साकार कर सकें।

यों ये प्रणालियाँ चिरन्तन काल से अपनाई जाती रही हैं। मनुष्य ने इसके आनुपातिक क्रम में लाभ भी उठाए हैं। परन्तु आज श्रद्धातत्व के अभाव और बुद्धि के अतिरेक के कारण इनके नए सिरे से अध्ययन की आवश्यकता है। इनमें से प्रत्येक तकनीक का हमारे व्यक्तित्व पर क्या और कैसे प्रभाव है? जिसे हम व्यक्तित्व कहते हैं वह यथार्थ में शरीर क्रियाशक्ति (प्राण) और चिन्तनशक्ति (मन) का समुच्चय है। इन तीनों के स्वरूप और इनके अंतर्संबंध क्या हैं? इस प्रश्न के उत्तर में शरीर व प्राण के स्वरूप और अंतर्संबंध के लिए आधुनिक प्राचीन चिकित्सा शास्त्र का हवाला दिया जा सकता है। मन का स्वरूप व अन्य से संबंध, प्राच्य पाश्चात्य दर्शन योग की विभिन्न प्रणालियों मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं द्वारा समझे जा सकते हैं।

किन्तु इतना कह देना भर पर्याप्त नहीं है। इसकी प्रयोग धर्मिता को सिद्ध करने के लिए व्यापक सरंजाम जुटाने पड़े हैं। इस क्रम में शान्तिकुँज को प्रयोगशाला, ब्रह्मवर्चस को परीक्षणशाला समझा जा सकता है। शान्तिकुँज की नौ दिवसीय, एक मासीय शिविर व्यवस्था यहाँ की प्रातः तीन से रात्रि 8 तक की दिनचर्या अनुसंधान के गम्भीर उद्देश्यों को लेकर की गई है। इन्हीं गम्भीर उद्देश्यों के कारण पूज्य गुरुदेव ने शान्तिकुँज को आध्यात्मिक सेनीटोरियम की संज्ञा दी थी। इसे अगर व्यक्तित्व की रसायनशाला कहें तो अतिशयोक्ति न होगी।

शोध के इस व्यवस्था क्रम में जप, ध्यान, प्राणायाम, आसन आदि विभिन्न आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के प्रभावों के परीक्षण हेतु नयी एक्सपेरिमेन्टल डिजाइनों, परीक्षण तकनीकों का अन्वेषण करना पड़ा है। इस तत्व से अनभिज्ञ होने के कारण यहाँ आने वाले विद्वान आगन्तुक भी ई.सी.जी, ई.ई.जी, बायोफीडबैक, एक्सापायरोग्राफ, मेडस्पायरर, जैव रसायन के सरंजाम को देखकर बहुधा भूल कर बैठते हैं कि यह प्रचलित चिकित्सा शास्त्र अथवा मनोरोग चिकित्सा के लिए जुटाया गया इन्तजाम है जब उन्हें शान्तिकुँज में घटित हो रहे प्रयोगों, अध्यात्म द्वारा व्यक्तित्व में नयी चेतना के उद्भव के प्रयास को समझाया जाता है। तो ऋषि संस्कृति को नवजीवन मिलने की सुखद अनुभूति उन्हें विस्मय विमुग्ध कर देती है।

इस सम्बन्ध में किए जा रहें अनुसंधान के बारे में जानने योग्य तथ्य यह है कि प्रथम चरण में अपने विषयों में निष्णात् शोध वैज्ञानिकों द्वारा शिविर में आए व्यक्तियों के व्यक्तित्व का गहराई से परीक्षण किया जाता है। इसके परिणाम के मुताबिक उन्हें विभिन्न वर्गों में विभाजित साधना की प्रक्रियाएँ आहार-विहार के प्रयोग वनौषधि कल्प यथा उचित क्रम में शुद्धाई जाती हैं। जिन्हें शान्तिकुँज के दिव्य वातावरण में सुनिश्चित वैज्ञानिक क्रम में सम्पन्न करना पड़ता है। इसमें किसी मनमानी की गुँजाइश नहीं है। साधना की प्रक्रियाएँ जहाँ ऋषियों के अनुभूतिकोश, योगशास्त्रों से ली जाती हैं। वहीं परीक्षण के आधुनिकतम बहुमूल्य यंत्रों की व्यवस्था है। पूज्य गुरुदेव देश-काल परिस्थितियों के मुताबिक साधनाक्रम में कहीं-कहीं व्यापक परिवर्तन भी निर्देशित किए हैं। जिनके प्रभावों की जाँच करने के लिए उन्हीं के निर्देश में नई-नई तकनीकें विकसित की गई हैं।

इस क्रम में मंत्र शक्ति, ध्यान के प्राणायाम, आसन आदि के विस्मयकारी प्रभाव आने वाले व्यक्तियों पर देखे गए हैं कुण्ठा, अवसाद, दैन्य, दुर्बलता, से ग्रसित व्यक्ति जहाँ स्वयं में प्रचण्ड आत्मबल की अनुभूति करते हैं। वहीं बीसियों साल पुराने शारीरिक रोगों का छोड़कर भाग जाना यह स्पष्ट करता है कि रोग का वास्तविक कारण कहीं गहराइयों में छुपा है। इन साधना प्रयोगों में स्वस्थ व्यक्तियों (साधकों) ने स्वयं नई क्षमता, अतीन्द्रिय अनुभूतियाँ भी हासिल की हैं। चेतना के ऐसे नए क्षितिज प्रकाश में आए हैं जिनके स्वरूप के बारे में आधुनिकतम मनोविज्ञान अभी अनजान बना हुआ है। ये तथ्य जहाँ ऋषियों द्वारा सौंपी विरासत की प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं वहीं इनका अपनाया जाना मनुष्य में नयी चेतना के विकास का विश्वास भी दिलाता है।

इन पंक्तियों में सिर्फ ब्रह्मवर्चस् शोध अनुसंधान की एक झलक भर है। इसका व्यापक दिग्दर्शन,-प्रयोगों-परिणामों का वैज्ञानिक विश्लेषण अखण्ड-ज्योति के आगामी पृष्ठों में प्रस्तुत होता रहेगा। जिन्हें स्वयं में देवत्व जगाने की अकुलाहट है उन्हें विशिष्ट साधनात्मक प्रयोगों से गुजरने के लिए शिविरों में उत्साहपूर्वक सम्मिलित होना चाहिए। जो मनीषी वैज्ञानिक, युग ऋषि के इस शोध प्रयोजन के लिए समर्पित होना चाहते हैं। शोध में भागीदारी के लिए उन्हें भावपूर्ण आमंत्रण है। उनके द्वारा वर्तमान में किया गया समर्पित योगदान-कल के साँस्कृतिक गौरव बोध के रूप में स्वर्णाक्षरों में अंकित होगा।


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